सोमवार, 9 जुलाई 2012

मान और अहं ....डा श्याम गुप्त...

तुम पुरुष अहं के हो सुमेरु,
मैं नारी आन की प्रतिमा हूँ |
तुम पुरुष दंभ के परिचायक,
मैं सहज मान की गरिमा  हूँ |

मैं  परम-शक्ति, तुम परम-तत्व,
तुम  व्यक्त-भाव मैं व्यक्त-शक्ति |
तुमको   फिर  रूप-दंभ   कैसा,
तुम  बद्ध-जीव मैं सदा मुक्त |


जिस माया में बांध जाते हो,
मैं   ही  वह माया-बंधन हूँ |
तुम जीव बने  हरषाते  हो,
मैं   ही  जीवन-स्पंदन  हूँ |


तुम मुझे मान जब देते हो,
बन शक्ति-पराक्रम हरषाऊं |
तुम मेरी आन का मान रखो,
जीवन का अनुक्रम बन जाऊं |


तुम मेरे मान का मान धरो,
मैं पुरुष अहं पर इठलाऊँ |
तुम मेरी गरिमा पहचानो,
मैं सृष्टि-क्रम बनी हरषाऊं |

बन  पूरक एक दूसरे के,
इक दूजे का सम्मान करें |
तुम मेरे मान की सीमा हो,
मैं पुरुष अहं की गरिमा हूँ ||





9 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…
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Unknown ने कहा…

suNDER kAVITA ...
nARI kE MAN kA sAHI chITRAN..

http://yayavar420.blogspot.in/

Suresh kumar ने कहा…

तुम मेरे मान का मान धरो,
मैं पुरुष अहं पर इठलाऊँ |
तुम मेरी गरिमा पहचानो,
मैं सृष्टि-क्रम बनी हरषाऊं |
bahut hi sundar sandesh deti rachna......

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद शिवम व् सुरेश जी...

vandana gupta ने कहा…

सुन्दर चित्रण्।

Reena Pant ने कहा…

वाह...

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद वन्दना जी...व् रीना जी ..

Shikha Kaushik ने कहा…

तुम मेरे मान की सीमा हो,
मैं पुरुष अहं की गरिमा हूँ ||
sateek bat kahi hai .aabhar

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद शिखा जी...