रविवार, 29 सितंबर 2013

प्रभु दे मारक शक्ति, नारि क्यूँ सदा कराहे-रविकर

हे अबलाबल भगवती, त्रसित नारि-संसार। 
सृजन संग संहार बल, देकर कर उपकार।

देकर कर उपकार, निरंकुश दुष्ट हो रहे । 
करते अत्याचार, नोच लें श्वान बौरहे।

समझ भोग की वस्तु, लूट लें घर चौराहे । 
प्रभु दे मारक शक्ति, नारि क्यूँ सदा कराहे ॥

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

ये मामला केवल फेसबुक तक सीमित नहीं

फेसबुक पर यह पढ़ा-




इस लड़की का नाम है सुष्मिता।



इसने फेसबुक पर फोटो अपलोड किया था।

किसी लड़के ने इसका फोटो सेव करके गूगल में

इसका प्रोफाइल दाल कर कॉल गर्ल की लिस्ट में डाल

दिया।

ये लड़की बहुत अच्छे परिवार की थी।

उस लड़के ने पूरे शहर में फैला दिया की ये एक कॉल

गर्ल है।

जब उस लड़की और उसके परिवार को पता चला तो पूरे

परिवार ने सामूहिक आत्महत्या कर ली।

दोस्तों ये है फेसबुक की दुनिया।

अब आप ही बताएं इसका क्या उपाय

किया जा सकता है?

सभी बहनों से हाथ जोड़ कर नम्र निवेदन है

की कृप्या अपनी फोटो फेसबुक से त्वरित हटायें।



पहले बहुत दुःख हुआ पर फिर गुस्सा आया .सुष्मिता के परिवार ने गलत कदम उठाया .ये मामला केवल फेसबुक तक सीमित नहीं है .आज तक हजारों लड़कियों ने बदनामी के डर से आत्महत्या कर डाली है पर हमारा समाज नहीं सुधरा .अब जरूरत है ऐसे गंदे लोगों का सामना डट कर करने का .गलत जानकारी देकर तो कोई भी ,कहीं से किसी भी महिला के फोटो को अपलोड कर बदमान कर सकता है ...पर इसका मतलब ये तो नहीं कि आत्महत्या कर ऐसे अपराधियों को बढ़ावा दिया जाये .जिसने ऐसा गन्दा काम किया है उसे पूरे समाज व् देश के सामने लाकर उसको उचित दंड दिलाना ही सही रास्ता है .



शिखा कौशिक 'नूतन '

बुधवार, 25 सितंबर 2013

अँधेरी ,संकरी ,घुटनभरी है वो अंतहीन गली !!




माँ ने कसकर पकड़ी

बिटिया की हथेली ,

खींचते हुए उसे

अपने साथ ले चली ,

अँधेरी ,संकरी ,घुटनभरी

थी वो अंतहीन गली !!

**************************

न दिखता था कुछ ,

न ही कुछ सूझता था ,

हैवानी साये नोंचना चाहते थे

माँ और बेटी दोनों को

खुद को बचाती माँ ,

बेटी को छिपाती ,

थर -थर कांपती ,

बेटी को छाती से चिपटाती,

माँ बढती आगे-आगे

पर किधर -कहाँ ?

ये थी कुटिल पहेली !

क्योंकि अँधेरी ,संकरी ,घुटनभरी

थी वो अंतहीन गली !!

**************************

चलते चलते थकने लगी माँ ,

होने लगी निढाल ,

बेटी ने दिया सहारा ,

तभी बेटी को उसकी बेटी ने पुकारा ,

माँ को वहीँ छोड़ बेटी ने दौड़कर

अपनी बिटिया की कसकर

पकड़ी हथेली पर

फिर नहीं पकड़ में आया बेटी को

उसकी माँ का हाथ ,

माँ को निगल गयी

अँधेरी ,संकरी ,घुटनभरी

थी वो अंतहीन गली !!

***********************

ये गली है पुरुष अहम् की

जिसमे से होकर गुजरना है

हर माँ और उसकी बेटी को ,

इसमें तानाशाही के हैं अँधेरे ,

स्त्री को दोयम दर्जे का प्राणी

बनाये रखने का संकरापन

और स्त्री देह के शोषण की घुटन ,

अंतहीन हैं अत्याचार पुरुष के ,

नहीं पहुंची एक भी किरण समानता की

और न ही चली स्त्री के अस्तित्व

को स्वीकारती गुलाबी हवा

क्योंकि ये गली है

अँधेरी ,संकरी और घुटनभरी !!



शिखा कौशिक 'नूतन'

शनिवार, 21 सितंबर 2013

HAPPY DAUGHTER’S DAY

''बिटिया रानी ''







दादा जी कहते हैं मुझको ' राजदुलारी ' ,



दादी कहती - मेरी पोती ' सबसे प्यारी' ,







पापा ' प्रिंसेस' कहते मुझको गोद उठाकर,



मम्मी कहती ' ब्यूटी क्वीन' गले लगाकर,







कहें 'लाडली' चूम के माथा नाना-नानी ,



मामा-मौसी कहते हैं ' परियों की रानी' ,







सारे घर में चहक-चहक चिड़िया बन घूमूं ,



पाकर सबका स्नेह ख़ुशी से मैं हूँ झूमूं .







शिखा कौशिक 'NUTAN'



[सभी फोटो गूगल से साभार ]







शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

मज़हबी रंग -लघु कथा


सुमेधा रिक्शा से कॉलेज जा रही थी .मेन रोड पर आते ही पीछे से आते जूनून ने बदतमीज़ी की सीमा पार करते हुए सुमेधा का दुपट्टा खींच लिया .सुमेधा को इसका अंदाज़ा नहीं था पर तुरंत संभलते हुए वो चिल्लाई ''पकड़ो' और खुद भी रिक्शा से कूद पड़ी .जूनून घबराहट में साइकिल लेकर भागा पर संतुलन बिगड़ने के कारण धड़ाम से गिर पड़ा .उसके आस-पास भीड़ इकठ्ठी हो गयी .कुछ लोग जोश में आकर चीखने -चिल्लाने लगे .नेता टाइप लोगों ने मौका देखकर चिंगारी लगाईं -'' हद हो गयी ...हिन्दू लड़कियों का तो घर से निकलना ही पाप हो गया .घर से निकली नहीं और मुसलमान लड़के पड़ लिए पीछे ....मारो साले के !'' नेता टाइप लोगों के इस आह्वान पर ज्यों ही भीड़ जूनून को मारने के लिए आगे बढ़ी सुमेधा भीड़ को चीरते हुए जूनून के आगे दीवार बनकर खड़ी हो गयी और गला फाड़कर बोली -ख़बरदार जो किसी ने मेरे मुसलमान भाई को हाथ लगाया .ये तो बिना सोचे समझे ऐसी गलत हरकत कर बैठा पर आप लोग इस हादसे को मज़हबी रंग देने की कोशिश न करें . इस मज़हबी आग में हजारों मासूम लोगों की जिंदगी स्वाहा हो चुकी है .मासूमों के क़त्ल करने वालों को न तो भगवान् ही माफ़ करेगा और न अल्लाह ही .इसे सजा देने का अधिकार केवल मुझे है ...मैं इसे माफ़ करती हूँ !!'' ये कहकर सुमेधा ने अपना दुपट्टा उठाया और सलीके से ओढ़ लिया .भीड़ पर चढ़ा सांप्रदायिक नशा उतर चूका था .सब सुमेधा की सोच की प्रशंसा करते हुए अपने अपने गंतव्य की ओर अग्रसर होने लगे और जूनून ने सुमेधा के पैरों में अपना सिर रख दिया . नेता टाइप लोग भी खिसियाते हुए वहां से सरक लिए .











शिखा कौशिक 'नूतन'

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

दु:स्वप्न

शहरों में रहते रहते आप अपने आप में कुछ यूँ लीन हो जाते हैं, कि बाकी कुछ कभी याद ही नहीं रहता, आप के अगल बगल कौन रहता है, क्या करता है, क्या नाम है, कुछ भी नहीं पता होता, मैं भी इनमे से कुछ अलग नहीं हूँ, पिछले दो साल से जिस मकान में रह रहा हूँ, उसके मकान मालिक के सिवा मकान में रह रहे लोगों के चेहरे के अलावा और कुछ नहीं जानता, सुबह ऑफिस और शाम को घर आने के बाद दरवाजा बंद, फिर मैं और मेरी तनहाई, कुछ किताबें, बुद्धू बक्सा और लैपटॉप के साथ काफी के मग, यह बड़ा आम सा दृश्य है मेरे कमरे का, और हाँ मेरा कैमरा जो यदा कदा मेरे विचारों को रूप देने में बड़ा सहायक सिद्ध होता है।

ऐसी ही एक शाम घर लौट कर ताला खोलने के लिए हाथ बढ़ाये ही थे कि किसी की आवाज़ कानों से टकराई, मेरे सामने, मकान के नीचे के कमरे में रहने वाली भाभी जी खड़ी थी, भाभी ही कहता था मैं उसे, जबकि उम्र में वह मुझसे बहुत छोटी है, यही कोई २० से २२ साल की उम्र होगी, लेकिन अब जब किसी को न जानो तो हर शादी शुदा औरत भाभी ही हो जाती है, उसकी आँखें शून्य में निहार रही थी और बात वो मुझसे कर रही थी, उसने फिर कहा कि मुझे आपसे कुछ बात करनी है, चूँकि पूरे मकान में उस समय कोई नहीं था, सिर्फ मैं और वो, सोचकर थोडा मैं ठिठका क्यूंकि दिल्ली में रहते रहते या फिर यूँ कहें कि शहरों की ख़ाक छानते छानते अब जल्दी किसी पर विश्वास नहीं आता और जब बात एक औरत की हो तो डर अपने आप घर कर जाता है, क्यूंकि सोचने और कहने वालों की सोच और जुबान पर ताला नहीं होता, उन्हें जो कहना होता है वो कह देते हैं और भुगतता कोई दूसरा है। लेकिन शायद वो मेरे विचारों को ही पढ़ रही थी ......" भैया चिंता मत कीजिये, कोई नहीं है और आपको कोई कुछ नहीं कहेगा।" उसके उस वाक्य ने मेरी चिंता को कम करने के बजाय और बढ़ा दिया कि भला यह औरत चाहती क्या है, झिझकते हुए ही सही मैंने उसे अन्दर आने के लिए कहा( मन में चल रही अनेकों लड़ाइयों से जूझता हुआ), उसे बिठाया और फिर पूछा कि हाँ बताइये भाभी, क्या बात है? मेरा यह कहना जैसे किसी पटाखे की सूतली में आग लगाने जैसा था, उसकी आँखें जो अभी तक सामान्य(सामान्य तो नहीं कहूँगा, लेकिन सोचों के दायरे से अगर कोई न देखे तो समान्य ही थी) थी, अचानक आंसुओं से डबडब हो गयी और फिर उसने जो बताया और दिखाया वो मेरे लिए एक दु:स्वप्न् था, भयावह दु:स्वप्न….......।

"भैया मैं क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा, मेरा पति राक्षस है, बहुत मारता है मुझे और शक भी करता है, छिनाल डायन और न जाने क्या क्या कहता रहता है।" इतना कहते समय उसकी साँसे धौंकनी की तरह चल रही थी और उसने अपनी साड़ी का पल्लू जब हटाया तो मेरी आँखें फटी रह गयी, उसके गले पर काले काले निशान जमे थे, मैंने अपनी आँखें दूसरी तरफ फेर ली, क्यूंकि मैं नहीं देख सकता था उसके निशान, कोई अपने जानवर को भी ऐसे न मारे, मैंने कहा अपने मायके में किसी को बताया है, उसने कहा दो साल हो गए शादी को, घर पर न जाने कितनी बार बोला लेकिन हर कोई यही कहता है कि अब तुम्हारा घर वही है, जैसे भी रहना है तुम्हे ही संभालना है, अपने पति को समझाओ वगैरह लेकिन "भैया मेरा क्या दोष है, शादी से पहले तो मैं इसे जानती भी न थी और शादी के बाद इसने मुझे जानने का मौका ही कहाँ दिया, सिर्फ रात को सोते समय ही प्यार आता है वो भी कुछ घंटों का, उसके बाद फिर वही गत होती है मेरी, बिस्तर से लात मारकर धकेल देता है, क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा, अपनी माँ से भी कहा कि क्या करूँ तो उन्होंने कहा "शान्ति से अपना घर संभालो, जहाँ डोली उतरती है, वहीँ से औरत की अर्थी निकलती है।" मुझे याद आया कि वो गर्भवती थी, अभी कुछ दिनों पहले ही तो मैंने देखा था उसे घर आते समय लेकिन पूछने की हिम्मत न हुई, पूछता भी कैसे, अगर ऐसी मार पड़ रही है तो मुमकिन है कि उसका बच्चा जीवित नहीं रहा होगा, उसने खुद ही बता दिया मेरे पूछने से पहले " मैं माँ बनने वाली थी, सब कुछ सही चल रहा था, दुबली पतली होने की वजह से डॉक्टर ने कई सारे परहेज़ और खाने पीने एवं आराम करने को कहा था कि एक दिन उसने मुझे इतना मारा कि पेट के बल गिरने से बच्चे की मौत हो गयी और अब मैं माँ भी नहीं बन सकती, चोट इतनी तेज थी कि ऑपरेशन करके गर्भाशय निकलना पड़ा" उफ़ इतनी पीड़ा और वह भी यह गाँव की बात नहीं शहर की है, पढ़े लिखे लोगों की, मैं एकटक उसे देखे जा रहा था फिर वह चुपचाप उठी और जाने लगी, दरवाज़े के पास पहुँच कर ठिठकी और कहा " किसी से कहियेगा मत, नहीं तो पता नहीं मेरा क्या होगा, मुझे मरना नहीं है भैया, वो तो एक भार जैसा लग रहा था, किसी से बता नहीं पा रही थी तो सोचा आपसे ही बता दूँ, अब हल्का महसूस हो रहा है।"

वह चली गयी, और मैं एकटक दरवाज़े को देख रहा था, कुछ कर भी तो नहीं सकता था मैं, क्या करता। चुचाप उठा, दरवाजा बंद किया और मेरी दुनिया फिर सिमट गयी, ऑफिस, लैपटॉप, काफी, बुद्धू बक्सा और ऐश ट्रे में पड़ी जलती हुई सिगरेट। फिर मैंने उसे कभी नहीं देखा, शायद उन लोगों ने मकान बदल लिया होगा लेकिन उसके निशाँ अभी भी चस्पा हैं मेरी आँखों की पुतलियों पर और मैं सोच रहा हूँ, क्या वह छिनाल थी, डायन थी........................क्या थी, क्यूँ उसे ये उपनाम मिलते थे, या फिर यह उसकी नियति थी? क्या थी वह?

मैं बस सोच रहा हूँ, ढूंढ़ रहा हूँ जवाब, पता नहीं कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, लेकिन इस बीच निर्भया के दोषियों को सजा हो गयी है, एक सुधार गृह में बंद है, क्या वही इसका पति है? पता नहीं लेकिन यह अबला सबला कैसे बनेगी, पता नहीं, क्या वह जंगली नहीं बन सकती पुरुष की तरह? सोच रहा हूँ और प्रज्ञा पाण्डेय की यह कविता जेहन में चल रही है लगातार, किसी दिन मिलूँगा उनसे और पूछूँगा की क्या ऐसा सचमुच…………….?

हाँ मैं हूँ जंगली मुझे नहीं आती
तुम्हारी बोली
नहीं समझती
तुम्हारी भाषा
उतनी आभिजात्य नहीं कि
ओढ़ कर लबादा तुम्हारी हँसी का
बाँटती रहूँ अपने सस्कार तुममें

मुझमें नहीं इतनी ताक़त
कि पी जाऊँ अपनी अस्मिता
और
परोसूँ अपना वजूद

हाँ मैं हूँ जंगली ..
नहीं जानती कि मुझमें है
ऐसा सौंदर्य
कि
सभ्यताएँ पहन तुम होते हों वहशी!

मगर मुझे क्रोध आता है तुम्हारी हंसी पर
मुझे क्रोध आता है
जब ग्लैमर कि चाशनी में लपेट तुम
शुरू करते हों मुझको परोसना!

हाँ मै हूँ जंगली नहीं जानती सभ्यता
पर इतना जानती हूँ कि
तुम शोषक हों और मै हूँ शोषिता!



पूछूँगा कि कब तक…वह हथियार भी तो उठा सकती है, तो फिर शोषिता क्यूँ? क्यूँ, क्यूँ क्यूँ ......मेरा सर फट रहा है, कॉफ़ी मेकर में काफी बन गयी है, शीशे के उस पार काली कॉफ़ी उबल रही है पानी के साथ, पी लूँ, दरवाजा खुला छूट गया है, उसे भी बंद कर लूँ, कहीं फिर कोई दु:स्वप्न दस्तक न दे दे।

-नीरज 

क्वालिटी ऑफ लाइफ .. संतुलित कहानी ...डा श्याम गुप्त ....


                                                     संतुलित कहानी ... क्वालिटी ऑफ लाइफ ..  

                ‘नीलेश, रात को कब आये, बड़ी देर करदी |’ सुबह नाश्ते की मेज पर चंद्रकांत जी ने पूछा |

            हाँ, पापा, आफिस में काम कुछ अधिक था, तीन दिन से टूर पर रहने से काम इकट्ठा भी होगया था |  कुछ कंपनियों के मर्जर के लिए भी मीटिंग में भी काफी ‘डिफरेंस ऑफ ओपीनियन’ थी, अकाउंट्स में भी कुछ गडबडियां भी थीं | तर्क-वितर्क व सैटिल करते-कराते काफी समय होगया | और रास्ते में ट्रेफिक जाम ने तो बस पूछिए ही मत, हालत ही खराब करदी, सदा की तरह... एज यूज़ुअल |

           ‘हूँ, चंद्रकांत जी एक लंबी सांस लेकर बोले, ‘आखिर क्या लाभ है इस सारी भाग-दौड का, दंद–फंद करने का, अति-भौतिकता के पीछे भागने का | ये ऊंची-ऊंची इमारतें, बड़ी-बड़ी कंपनियां, एसी मॉल-होटल कल्चर, भागम-भाग का जीवन| न खाने का समय न आराम का | क्या फर्क पड़ा है मानव जीवन पर, इतनी वैज्ञानिक उन्नति-विकास के पश्चात भी मानव के जीवन में, व्यवहार में कोई परिवर्तन आया है क्या ?’     

          ‘अंतर तो आया है, इतना दिख तो रहा है |’ नीलेश ने प्रतिवाद किया| ‘पहले बृक्षों–झोपडियों पर रहते थे अब आलीशान बंगलों-फ्लेटों में सुख-चैन से व शान से रहते हैं| पहले जहां पैदल चलकर हफ़्तों-महीनों में पहुँचते थे अब वायुयान में कुछ घंटे में | पहले चटाई पर सोते थे अब ८” मोटे गद्दे पर व एसी में आराम से सुख-पूर्वक | पहले ढोलक बजाते थे अब होम-थियेटर में मस्ती करते हैं|  

       ‘ये तो देश-काल, परिस्थिति के अनुसार भौतिक सुख-साधन-भोग की स्थिति है| मानव तो वहीं का वहीं है | वही मानसिकता, लड़ाई-झगड़े, द्वंद्व-द्वेष, मतभेद | पहले चोरी होती थी अब टैक्स-चोरी, पहले तलवार से तो अब विचारों की तलवार से लड़ते-भिडते...काटते हैं| पहले चाकू-तलवार से तो अब गोली-बन्दूक से, ट्रक से कुचलकर हत्याएं होती हैं | सुख-दुःख एक तुलनात्मक भाव हैं, स्थितियां हैं | पहले जब सभी जमीन पर सोते थे सब बराबर थे|  अब असमानता बढ़ी, दुःख बढ़ा | सभी के पास चटाई ही थी, किसी को निद्रा-अनिद्रा का दुःख नहीं, सब बराबर | किसी की चटाई कुछ अच्छी होती थी अपने को अधिक सुखी मान लेता था | यही बात आज भी है | जो ८” के गद्दे पर सोता है वह ४” मोटे गद्दे वाले से स्वयं को ऊंचा व् सुखी समझता है | जिस पर कार नहीं वह दुखी और जिस पर कार है वह भी दुखी कि उस पर तीन कारें क्यों नहीं | कौन सुखी है......, “नानक दुखिया सब संसार“  |’  चंद्रकांत जी कहने लगे |

       ‘क्यों सुखी नहीं हैं | आज का आदमी एसी कार में सुखपूर्वक चलता है| अपने कार्य व व्यापार को शीघ्रता से व अधिकता से कर सकता है | पहले बैलगाड़ी में गंतव्य स्थान पर एक माह में पहुंचते थे और व्यापार करके महीनों में लौटते थे| अब वायुयान से एक घंटे में पहुंचकर उसे दिन वापस लौट कर अपना काम-धंधा संभाल लेते हैं| व्यापार-व्यवसाय कितना बढ़ गया है, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार भी | दुनिया की दूरियां घट गयी हैं अब तो मोबाइल पर ही आप अपना कार्य-व्यापार कर लेते हैं |,’ बहू सुनीता कहने लगी |

        ‘ये सब आभासी हैं |’, चंद्रकांत जी ने कहा,’ वास्तव में तो सभी शीघ्रातिशीघ्र अपना काम करना चाहते हैं | गंतव्य पर पहुँचना चाहते हैं | पर तुलनात्मक रूप में देखें | उदाहरणार्थ ..मानलो किसी को एक कांट्रेक्ट प्राप्त करना है | जो शीघ्रातिशीघ्र प्रस्थान करेगा वही पहले पहुंचेगा | चाहे दोनों युगानुसार बैलगाड़ी का उपयोग करें या वायुयान का | जो दूसरे से पहले टिकट की लाइन में ( या नेट पर मोबाइल पर अथवा बैलों को जोडने) पहले नहीं पहुंचा उसका यान छूट जाएगा और ठेका भी | भ्रष्ट उपायों की बात पृथक है जो इस भागम-भाग के खाद-पानी में खूब तेजी से पैर पसारते हैं | अतः तुलनात्मक लाभ-हानि तो वही रही न, जो अधिक व त्वरित श्रम-संकल्प करेगा वही जीतेगा | दौड चाहे इक्के की हो या वायुयान की |’

        ’ वास्तव में तो मानवता व जीवन प्रफुल्लता का ह्रास हुआ है |’ वे पुनः कहने लगे, ‘जो आदमी साधारण कुर्ता-पायजामा में खुश था आज सूट में भी खुश नहीं है | अब उसे १००००/ का  सूट चाहिए | पहले एक ही नौकरी, काम-धंधा कर लिया, खाने-पीने को और खुश| आज एक-एक लाख सेलेरी मिलती है पर घर देखने की फुर्सत नहीं, स्वयं के लिए, मनोरंजन, परिवार के लिए समय नहीं| खाने-पीने का कोई क्रम नहीं| सभी सुख-साधन हैं परन्तु कौन उपयोग-प्रयोग-भोग कर पा रहा है?’

        ‘परन्तु क्वालिटी आफ लाइफ तो बढ़ी है|’ नीलेश कहने लगा, ‘पहले पेड पर, टपकती हुई झोंपडी में भीगते थे अब आराम से पक्की छत के नीचे बरसात का आनंद लेते हैं|’

        हाँ, ...’बट फॉर क्वालिटी आफ लाइफ वी आर एन्डेजरिंग द लाइफ इटसेल्फ’ ...नव जवान इतनी कम उम्र में ही इतनी अधिक सेलेरी पाते हैं, परन्तु सिर के सारे बाल गायब होकर असमय ही वृद्ध नज़र आते हैं | अपने पितृ-जनों से भी अधिक वुजुर्ग लगते हैं | दिनभर विद्युत के प्रकाश में कम्प्युटर पर कार्य, एसी में रहना, फ्रिज का बासी खाना, वायुयान में अधिकाँश घूमते रहना, देशभर में व्यापार या कंपनी की सेवा में, रात में चैन से सोना नहीं |  न खाने का समय, न खेलने का-घर देखने का | और.....
            “घर को सेवे, सेविका, पत्नी सैवे अन्य |
            छुट्टी लें तब मिल सकें, सो पति-पत्नी धन्य |” 
और क्वालिटी का अंदाज़ यह है कि ...खेल के लिए २०००-२००० के जूते, ५००० का स्विम सूट- ड्रेस, एंजोयमेंट-मस्ती के लिए नब्बे-हज़ार का होम-थ्येटर वह भी  हफ्ते-दो हफ्ते में एक बार के लिए| आखिर लाइफ है कहाँ ?    

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

अब कहाँ मदर इण्डिया ?-लघु कथा


गैंगरेप के केस में एक अपराधी को नाबालिग होने के कारण मात्र तीन वर्ष की सज़ा सुनाई गयी और अन्य अपराधियों को फाँसी की सज़ा . नाबालिग अपराधी की माँ दुआ में हाथ जोड़ते हुए बोली -” अल्लाह तेरा शुक्र है तूने मेरी औलाद को जिंदगी बख्श दी .” तभी उसे लगा कोई उसके कान में कह रहा है -” ज़लील औरत तेरी औलाद ने ऐसा कुकर्म किया है कि अल्लाह उसे कभी माफ़ नहीं कर सकता !बेहतर होता तू खुद उसके लिए फाँसी की मांग करती …खैर …गुनाहगार का साथ देने वाली तूने उस बिटिया के लिए भी कभी दुआ में हाथ उठाए जो तेरी औलाद की दरिंदगी की शिकार हुई …नहीं ना ! जा आज से तू भी अल्लाह की नज़र में गुनाहगार हो गयी !!” नाबालिग अपराधी की माँ के दुआ के लिए उठे हाथ शर्मिंदगी में खुद-बी-खुद अलग हो गए .

शिखा कौशिक ‘नूतन’



सोमवार, 16 सितंबर 2013

बलात्कार करने वाला कभी नाबालिग नहीं होता


बलात्कार से सम्बंधित कानून में बालिग व् नाबालिग का अंतर ख़त्म होना चाहिए क्योंकि बलात्कार करने वाला कभी नाबालिग नहीं होता .इसका सम्बन्ध उम्र से नहीं अपराध से जोड़ा जाना चाहिए .दामिनी के साथ न केवल बलात्कार बल्कि दरिंदगी की सारी सीमायें पार करने वाला अफरोज यदि नाबालिग के आधार पर कानून से बच जाता है तो यह पूरे मानवीय समाज के मुंह पर तमाचा मारे जाने जैसा है .वैसे भी अफरोज मुसलमान है और मुस्लिम कानून के अनुसार वो बालिग है .अफरोज को यदि भारतीय कानून ने फाँसी पर नहीं चढ़ाया तो भारतीय समाज में एक गलत सन्देश जायेगा जिसका खामियाजा भविष्य में भारतीय समाज को भुगतना होगा .



शिखा कौशिक 'नूतन'

शनिवार, 14 सितंबर 2013

भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -४

भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -४





क्या है भारतीय नारी की छवि आपके विचार में ? लिख भेजिए कविता ,आलेख के रूप में .शब्द सीमा-४००



अंतिम तिथि -३० सितम्बर २०१३



नियम व् शर्ते



*अपनी प्रविष्टि केवल इस इ मेल पर प्रेषित करें [shikhakaushik666@hotmail.com].अन्यत्र प्रेषित प्रविष्टि प्रतियोगिता का हिस्सा न बन सकेंगी .प्रविष्टि के साथ अपना पूरा पता सही सही भेंजे .

* प्रतियोगिता आयोजक का निर्णय ही अंतिम माना जायेगा .इसे किसी भी रूप में चुनौती नहीं दी जा सकेगी .

*प्रतियोगिता किसी भी समय ,बिना कोई कारण बताये रद्द की जा सकती है .

* विजेता को आकर्षक पुरस्कार प्रदान किया जायेगा .

*उत्तर भेजने की अंतिम तिथि ३० सितम्बर २०१३ है .

*प्रतियोगिता परिणाम के विषय में अंतिम तिथि के बाद इसी ब्लॉग पर सूचित कर दिया जायेगा .





शिखा कौशिक 'नूतन'

[व्यवस्थापक -भारतीय नारी ब्लॉग ]





















भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -3 परिणाम

भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -3 के लिए केवल एक प्रविष्टि प्राप्त हुई जो प्रतियोगिता के मानकों को पूरा नहीं कर पाई .इसलिए किसी को भी इस बार विजेता घोषित नहीं किया जा रहा है .कुछ इस प्रकार से थी प्रतियोगिता व् प्राप्त प्रविष्टि -







''भारतीय नारी '' ब्लॉग प्रतियोगिता -3







एक नारी होकर आपने कैसे किया पुरुष समाज का सामना ?क्या आप दे पाई किसी कुप्रथा को चुनौती ?और यदि आप हैं पुरुष तो आपने कैसे दिया किसी नारी का साथ किसी कुप्रथा से लड़ने में ? दो सौ शब्दों की सीमा में लिख दीजिये अपना संस्मरण .यही है -''भारतीय नारी '' ब्लॉग प्रतियोगिता -3

प्राप्त प्रविष्टि -



मेरा घर



****************



****************







कहते है घर गृहणी का होता है



लेकिन यह सच नहीं है



घर में रहने वालो से पूछो



घर किसका होता है .



घर होता है दादा का,पापा का,



बेटे का,और उसके बेटे का



सदियों से यही चला आ रहा है



घर ना बेटी का होता है ,न ही बहू का



बेटी को तो बचपन से ही सिखाया जाता है



ये घर तेरा नहीं है



तुम्हे अभी अपने घर जाना है (ससुराल )



बेटी बेचारी अपने घर के सपने सँजोए



मन उलझाये ही रहती है



फिर एक दिन जब वो अपने घर चली जाती है



अपने - अपनों के जाल में फँसकर



हर चीज को तरस जाती है



मन को यही दुविधा सताती है



पता नहीं इस अपने कहे जाने वाले घर से



जाने कब निकाली जा सकती है .



वह बेचारी भोली सी,नादान सी,



समझ ही नहीं पाती कि ... घर भी कभी



किसी औरत का हुआ है जो अब होगा .



घर औरत से बनता है ,सजता है,



औरत ही घर की जननी है



लेकिन यह बनाना बिगाड़ना पुरूष ही करता है



क्योकि अपना देश तो पुरूष प्रधान देश है .



यहाँ औरत स्वतन्त्रता के नाम पर



खुले आसमान के नीचे



बन्धनों की चाहर -दिवारी से कैद है



लेकिन फिर भी नकारात्मक सच है



कि .......घर गृहणी का ही होता हे.



नीतू राठौर



**********************



प्रस्तुतकर्ता -शिखा कौशिक 'नूतन





निर्भया ने ली होगी सुकून की अब साँस !

तारिख थी सोलह

सन दो हजार बारह ,

और दिसंबर मास !

**********************

हैवानियत की इन्तिहाँ ,

इंसानियत का क़त्ल ,

इंसानी जिस्मों में

वहशियत का वास !

***********************

निर्भया की आहें

जख्मों पे उसकी टीसें ,

गूंजती रही हैं

आज तक आस-पास !

**********************

दरिंदों को मिली फाँसी ,

कितना सुखद अहसास !

निर्भया ने ली होगी

सुकून की अब साँस !



शिखा कौशिक 'नूतन'

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

वो पुरुष ही क्या जिसमे पौरुष के न हो दर्शन


वो पुरुष ही क्या जिसमे पौरुष के न हो दर्शन ,

विवश हो जिसके समक्ष नारी स्वयं कर दे समर्पण !

**********************************************************

नीच दुष्ट राक्षस पिशाच की श्रेणी के नर ,

पौरुषहीन ही हैं करते बलात स्त्री का हरण !

विवश हो जिसके समक्ष नारी स्वयं कर दे समर्पण !

*********************************************************

जिसका बुद्धि और भुजबल आकृष्ट कर ले नारी चित्त ,

उत्सुक सरिता बह चले अर्णव से करने को मिलन !

विवश हो जिसके समक्ष नारी स्वयं कर दे समर्पण !

*************************************************

जिस नर में हो धीरता ,उदारता व् वीरता ,

उसके प्रति नारी उर में पनप जाता है आकर्षण !

विवश हो जिसके समक्ष नारी स्वयं कर दे समर्पण !

******************************************************

पुरुषों में उत्तम कहे जाते हैं श्री राम क्यूँ ?

नारी के सम्मान हेतु काट देते हैं दशानन !

विवश हो जिसके समक्ष नारी स्वयं कर दे समर्पण !

******************************************************

कृष्णा की पुकार पर दौड़कर पधारते ,

पूर्ण-पुरुष कहलाते है इसीलिए राधेकृष्ण ,

विवश हो जिसके समक्ष नारी स्वयं कर दे समर्पण !



शिखा कौशिक 'नूतन '

बुधवार, 11 सितंबर 2013

वकीलों से सवाल

अगर गुनहगार का साथ देना भी गुनाह है तो गुनाह साबित हो जाने पर वकीलों को सजा देने का प्रावधान क्यों नहीं है, जो सबकुछ जानते हुए भी अपने मुवक्किल को बेगुनाह बताता है और गुनाह साबित हो जाने पर तरह तरह के बहाने बनाके सजा न देने की भीख माँगता है । अगर ये उनके प्रोफेशन का हिस्सा है तो ये कैसा प्रोफेशन है-चंद फीस के लिए गुनाह का साथ दो ?

क्या ज़मीर नाम की जो चीज़ होती है वो वकीलों के लिए नहीं है ? उनका दिल ये कैसे गवाही देता है कि सबकुछ जानते हुए भी वो अंतिम समय तक गुनहगार को बचाने का प्रयास करते रहते हैं ?

आप भी सोचे ? अपराध दिन ब दिन इतना बढ़ता क्यों जा रहा है क्योंकि कानून को लेके किसी के मन में कुछ भय नहीं है | सब सोचते हैं कि कुछ भी कर लो, अगर पकड़े गए तो पैसों के दम पे अच्छा से अच्छा वकील रख लो; वो कानून को तोड़-मरोड़ कर, झूठ को सही साबित करके बचा ही लेगा | अगर कुछ ऐसा प्रावधान हो जाए कि मुजरिम साबित हो जाने पर मुजरिम के साथ-साथ उसका केस लड़ रहे वकील को भी सजा मिलेगी तो डर से वकील जान कर गलत लोगों का केस लेना बंद कर देंगे और इस से अपराध करने वाले के मन में भी भय बैठ जाएगा और आधे से ज्यादा जुर्म ऐसे ही कम हो जाएंगे |


(संदर्भ-दिल्ली में गैंग रेप के आरोपियों का केस लड़ रहे वकील ने गुनाह साबित हो जाने के बाद भी मांग की है कि कम से कम सजा मिले)

आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी

आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी ,
सिसकियाँ भरते हुए रुक रुक के ये कहने लगी !
इन्सान  के दिल और दिमाग न रहे कब्जे में अब ,
मुझको निकाल  कर  वहां  हैवानियत  रहने  लगी  !!
**************************************
भूखी प्यासी मैं भटकती चीथड़ों  में रात दिन ,
पास बैठाते मुझे आने लगी है सबको घिन्न ,
मैं तड़पती और कराहती खुद पे शर्माने लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
********************************
 
हैवानियत के ठाट हैं पीती शराफत का है  खून ,
वहशी इसको पूजते चारों दिशाओं  में है धूम ,
 बढ़ता रुतबा देखकर हैवानियत इतराने लगी !!
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
*******************************
 इंसानियत बोली थी ये क्रोध में जलते हुए ,
डूबकर मर जाऊं  या फंदा खुद कस लूँ गले ?
दरिंदगी के आगे बहकी नज़र आने लगी !!
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
********************************
पोंछकर आंसू मैं उसके ये लगी फिर पूछने ,
तुम ही बतलाओ करूं क्या ?बात कैसे फिर बने ?
इंसानियत खोयी हुई हिम्मत को  जुटाने  लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
*******************************
है अगर दिल में जगह इंसानियत को दें पनाह ,
ये रहेगी दिल में तो हो सकता न कोई गुनाह ,
इंसानियत की बात ये 'नूतन' को लुभाने लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!

शिखा कौशिक 'नूतन'

रविवार, 8 सितंबर 2013

प्रेम बुद्धि बल पाय, मूर्ख रविकर क्यूँ माता -

पर मेरी प्रस्तुति 

माता निर्माता निपुण, गुणवंती निष्काम ।
सृजन-कार्य कर्तव्य सम, सदा काम से काम ।

सदा काम से काम, पिंड को रक्त दुग्ध से । 
सींचे सुबहो-शाम, देवता दिखे मुग्ध से । 

देती दोष मिटाय, सकल जग शीश नवाता । 


प्रेम बुद्धि बल पाय,  मूर्ख रविकर क्यूँ माता  ??


तुमने कुछ कहा था?

तुमने कुछ कहा था?
शायद मैंने ही नहीं सुना होगा,
वक़्त के साथ - साथ थोडा बदल सा गया हूँ मैं,
तुम्हे नहीं लगता क्या ऐसा?
चलो अच्छा है फिर,
कम से कम ठंढी हो चुकी कॉफ़ी के साथ,
सिगरेट फूंकता हुआ मैं तुम्हे अभी भी अच्छा लगता हूँ,
देखो न, इन पके बालों और चहरे पर उभरती झुर्रियों में,
कितना वक़्त गुजर गया,
बस भागे जा रहे हैं हम,
मैं ठहरना चाहता हूँ,
लेकिन तुम ठहरने ही नहीं देती,
हम जैसे कल थे वैसे ही आज भी हैं,
समय से भागते हुए,
लेकिन तनहाई फिर भी नहीं मिली,
तुम्हे मिली क्या?
जिस दिन भी मिले बताना जरूर,
अपनी तन्हाई से मैं चुपके से पूछ लूँगा,
क्यूँ होता है इतना कुछ,
जब कुछ भी नहीं होना होता ?

-नीरज

पंचायत ने किशोरी की इज्जत की कीमत लगाई 50 हजार रुपए


पंचायत ने किशोरी की इज्जत की कीमत लगाई 50 हजार रुपए

merrut gang rape victim
अमर उजाला, मेरठ से साभार 

उत्तर प्रदेश में मेरठ के करनावल में शुक्रवार को तीन युवकों ने घर में काम करने वाली 15 साल की नौकरानी से सामूहिक दुष्कर्म किया। इसको लेकर बैठी पंचायत में पुलिस की मौजूदगी में किशोरी की अस्मत की कीमत 50 हजार रुपये लगा दी।

इतना ही नहीं आननफानन में जबरन किशोरी के परिजनों को 50 हजार रुपये सौंप दिए गए।

सूत्रों के अनुसार करनावल की एक किशोरी कस्बे के ही एक घर में काम करती थी। रोजाना की तरह शुक्रवार सुबह भी वह काम करने गई तो तीन युवकों ने उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया और फरार हो गए।

आरोप है कि आरोपियों ने किशोरी के परिजनों को कार्रवाई न कराने के लिए धमकी भी दी। सूचना पर पहुंचे परिजन किशोरी को बदहवास हालत में घर ले गए। इस बीच इंस्पेक्टर भी मय फोर्स गांव पहुंच गए और मामले की जानकारी ली लेकिन कुछ लोग मामले को दबाने में जुट गए।

मामले को लेकर रात में पंचायत बैठ, जिसमें दोनों पक्षों के अलावा पुलिस भी शामिल हुई।

आरोप है कि पुलिस की मौजूदगी में ही किशोरी की अस्मत की कीमत 50 हजार रुपये लगाकर फैसला करा दिया गया। पीड़ित पक्ष का आरोप है कि पुलिस ने सांठगांठ फैसले के लिए दबाव बनाया।


प्रस्तुतकर्ता -शिखा कौशिक 'नूतन '

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

अब दिल को मांजा जाये -लघु कथा

अब दिल को मांजा जाये -लघु कथा 
'संगीता  ये क्या  कर  रही  है ? अपना  गिलास क्यों दिया तूने ?अब घर  जाकर रख से मंजवाना ...जानती नहीं ये रेशमा मुसलमान है .....माँस  खाते हैं ये ....मुझे  तो उबकाई आती है इनसे बात करते हुए ..इनके पास बैठते हुए ..''सुषमा ने नौवी  कक्षा  के  एक कोने में ले जाकर संगीता से ये सब कहा तो संगीता सुषमा के कंधें पर हाथ रखते हुए बोली -'' सुषमा जानती हो ना रेशमा की तबियत कितनी ख़राब थी यदि मैं तुरंत अपने गिलास में पानी कर के उसे न पिलाती तो उसकी तबियत और ख़राब हो सकती थी .  जहाँ तक  बात राख से मंजवाने की तो बर्तन हमारे घर में सभी अच्छी तरह धोये जाते हैं ,झूठे बर्तन में कोई नहीं खाता पीता हमारे यहाँ ...अब चाहे ये तुम्हारा झूठा हो या रेशमा का . ये ठीक  है  कि तुम शाकाहारी  हो और रेशमा मांसाहारी पर इसमें   हिन्दू-मुसलमान का अंतर नहीं अब तो कितने ही हिन्दू -जैन समुदाय के लोग माँसाहार करते हैं .रही बात तुम्हे उबकाई आने की तो मेमसाब दिल पक्का कर लो साइंस की क्लास  में कल को मानव-शरीर के बारे में पढाया जायेगा .''   ये कहकर संगीता हँसी और सुषमा लज्जित सी होकर  इधर -उधर  देखने  लगी   .

शिखा  कौशिक  'नूतन '   

बुधवार, 4 सितंबर 2013

शत शत नमन सद्गुरु के चरणों में !


शत शत नमन   सद्गुरु  के  चरणों  में !
शत शत नमन   सद्गुरु  के  चरणों  में !

   सद्गुरु  के  चरणों  में हम शीश  धरते हैं ,
 श्रद्धा  अवनत  होकर   प्रणाम  करते   हैं .
******************
 आपने हरा अज्ञान  का है तम
पूजनीय हैं आप सर्वप्रथम
आपकी महिमा का गुणगान करते हैं
श्रद्धा अवनत होकर प्रणाम करते हैं .
**********************
सत्य  का पथ आपने दिखाया
माया मोह के जाल से  बचाया    
करबद्ध  हो सम्मान करते हैं
श्रद्धा अवनत होकर प्रणाम करते हैं .
**********************

पग पग पर आपने   किया निर्देशन  
अहर्निश हमारा किया मार्गदर्शन      
आप हैं महान विद्यादान करते हैं
श्रद्धा अवनत होकर प्रणाम करते हैं .
****************
आपको करते हैं शत शत नमन
आपने सँवारा  हमारा जीवन  
 आप जैसे  गुरु पर अभिमान करते हैं
 श्रद्धा अवनत होकर प्रणाम करते हैं .    
                            

  शिखा कौशिक

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

रहन सहन एवं यौन अपराध व बलात्कार.......डा श्याम गुप्त ..




 





               If  this is the situation, this is the innovation & pretty pictures & the same is taught, told & displayed in schools ..colleges & their functions.. then forget that rapes & crimes will be controlled in country and society....

                 यदि यह  वस्तुस्थिति  एवं यही नवीनता, नवीन वैचारिकता है जिसे  स्कूलों, कालेजों में यह सिखाया, पढ़ाया, बताया एवं  दिखाने व कार्यक्रमों का भाग होता रहा तो आप भूल जाएँ कि देश व समाज में बलात्कार, यौन शोषण एवं स्त्रियों के प्रति अपराध कम होंगे .....

                                                                   ---     चित्र -- टाइम्स ऑफ़ इंडिया

रविवार, 1 सितंबर 2013

बेटियाँ कैसे बचेंगी


                                      बेटियाँ कैसे बचेंगी 


            समाचार पत्रों की सुर्खियाँ और मन में उठते हजार सवाल ………… कैसे सुरक्षित रहेंगी हमारी बेटियाँ ?
                 संतों की यह भूमि दागदार हो गयी एक संत के कारण , यदि हम मान भी ले कि ये साजिश हो तो भी सवाल ये है कि संत ने अकेले कमरे में लड़की का उपचार क्यों किया जबकि उनमे शक्ति है तो वे सबके सामने भी कर सकते थे । आशाराम बापू की आत्मा क्या स्वयं को नहीं धिक्कारती होगी जो ऐसे गुनाह उनके ऊपर लगे?
             सवाल ये नहीं है कि महान  संत पर आज इल्जाम लगा है , बल्कि ये है कि यदि उन्होंने गलती नहीं की है तो भागते क्यों है ? आत्मसर्पण कर समाज के सामने सच्चाई लाते, अपनी बेगुनाही का सबूत  देते ?
          पतन की ओर जाते हमारे समाज को पुनः  सभ्य बनाने जरुरत की  है। आज  हर घर को जगाने की जरुरत है , एक आदमी के कारण पुरे समाज को दोष नहीं दिया जा सकता लेकिन तेजी से बढ़ रही दुराचार की घटनाओं को नजरंदाज भी नहीं किया जा सकता। राह चलती लड़कियों को गिद्ध की दृष्टि से देखनेवालों की कमी नहीं है पर बेटियों की सुरक्षा सबसे अहम है। हमें जागना होगा, उन सभी जानवरों से सचेत रहना होगा जिनकी बदनीयती समाज में कलंक के रूप में उभर रही हैं। घर से लेकर बाहर तक राक्षस भरे पड़े हैं , ऐसे में उनसे बचना भी एक समस्या ही है फिर भी हमें सचेत होकर मुकाबला करना होगा।