बुधवार, 11 सितंबर 2013

आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी

आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी ,
सिसकियाँ भरते हुए रुक रुक के ये कहने लगी !
इन्सान  के दिल और दिमाग न रहे कब्जे में अब ,
मुझको निकाल  कर  वहां  हैवानियत  रहने  लगी  !!
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भूखी प्यासी मैं भटकती चीथड़ों  में रात दिन ,
पास बैठाते मुझे आने लगी है सबको घिन्न ,
मैं तड़पती और कराहती खुद पे शर्माने लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
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हैवानियत के ठाट हैं पीती शराफत का है  खून ,
वहशी इसको पूजते चारों दिशाओं  में है धूम ,
 बढ़ता रुतबा देखकर हैवानियत इतराने लगी !!
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
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 इंसानियत बोली थी ये क्रोध में जलते हुए ,
डूबकर मर जाऊं  या फंदा खुद कस लूँ गले ?
दरिंदगी के आगे बहकी नज़र आने लगी !!
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
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पोंछकर आंसू मैं उसके ये लगी फिर पूछने ,
तुम ही बतलाओ करूं क्या ?बात कैसे फिर बने ?
इंसानियत खोयी हुई हिम्मत को  जुटाने  लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
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है अगर दिल में जगह इंसानियत को दें पनाह ,
ये रहेगी दिल में तो हो सकता न कोई गुनाह ,
इंसानियत की बात ये 'नूतन' को लुभाने लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!

शिखा कौशिक 'नूतन'

5 टिप्‍पणियां:

कौशल लाल ने कहा…

निसन्देह बहुत सुन्दर .......

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर .

Satish Saxena ने कहा…

प्रभावशाली रचना ..
बधाई !

डॉ सुरेश राय ने कहा…

BAHUT SUNDER, ARTHPURNA RACHNA KE LIYE HARDIK BADHAI NUTAN JI

Bharti Das ने कहा…

अर्थपूर्ण रचना जो दिल को छू गयी