भारतीय नारी ब्लॉग प्रतियोगिता -3 के लिए केवल एक प्रविष्टि प्राप्त हुई जो प्रतियोगिता के मानकों को पूरा नहीं कर पाई .इसलिए किसी को भी इस बार विजेता घोषित नहीं किया जा रहा है .कुछ इस प्रकार से थी प्रतियोगिता व् प्राप्त प्रविष्टि -
''भारतीय नारी '' ब्लॉग प्रतियोगिता -3
एक नारी होकर आपने कैसे किया पुरुष समाज का सामना ?क्या आप दे पाई किसी कुप्रथा को चुनौती ?और यदि आप हैं पुरुष तो आपने कैसे दिया किसी नारी का साथ किसी कुप्रथा से लड़ने में ? दो सौ शब्दों की सीमा में लिख दीजिये अपना संस्मरण .यही है -''भारतीय नारी '' ब्लॉग प्रतियोगिता -3
प्राप्त प्रविष्टि -
मेरा घर
****************
****************
कहते है घर गृहणी का होता है
लेकिन यह सच नहीं है
घर में रहने वालो से पूछो
घर किसका होता है .
घर होता है दादा का,पापा का,
बेटे का,और उसके बेटे का
सदियों से यही चला आ रहा है
घर ना बेटी का होता है ,न ही बहू का
बेटी को तो बचपन से ही सिखाया जाता है
ये घर तेरा नहीं है
तुम्हे अभी अपने घर जाना है (ससुराल )
बेटी बेचारी अपने घर के सपने सँजोए
मन उलझाये ही रहती है
फिर एक दिन जब वो अपने घर चली जाती है
अपने - अपनों के जाल में फँसकर
हर चीज को तरस जाती है
मन को यही दुविधा सताती है
पता नहीं इस अपने कहे जाने वाले घर से
जाने कब निकाली जा सकती है .
वह बेचारी भोली सी,नादान सी,
समझ ही नहीं पाती कि ... घर भी कभी
किसी औरत का हुआ है जो अब होगा .
घर औरत से बनता है ,सजता है,
औरत ही घर की जननी है
लेकिन यह बनाना बिगाड़ना पुरूष ही करता है
क्योकि अपना देश तो पुरूष प्रधान देश है .
यहाँ औरत स्वतन्त्रता के नाम पर
खुले आसमान के नीचे
बन्धनों की चाहर -दिवारी से कैद है
लेकिन फिर भी नकारात्मक सच है
कि .......घर गृहणी का ही होता हे.
नीतू राठौर
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प्रस्तुतकर्ता -शिखा कौशिक 'नूतन
''भारतीय नारी '' ब्लॉग प्रतियोगिता -3
एक नारी होकर आपने कैसे किया पुरुष समाज का सामना ?क्या आप दे पाई किसी कुप्रथा को चुनौती ?और यदि आप हैं पुरुष तो आपने कैसे दिया किसी नारी का साथ किसी कुप्रथा से लड़ने में ? दो सौ शब्दों की सीमा में लिख दीजिये अपना संस्मरण .यही है -''भारतीय नारी '' ब्लॉग प्रतियोगिता -3
प्राप्त प्रविष्टि -
मेरा घर
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कहते है घर गृहणी का होता है
लेकिन यह सच नहीं है
घर में रहने वालो से पूछो
घर किसका होता है .
घर होता है दादा का,पापा का,
बेटे का,और उसके बेटे का
सदियों से यही चला आ रहा है
घर ना बेटी का होता है ,न ही बहू का
बेटी को तो बचपन से ही सिखाया जाता है
ये घर तेरा नहीं है
तुम्हे अभी अपने घर जाना है (ससुराल )
बेटी बेचारी अपने घर के सपने सँजोए
मन उलझाये ही रहती है
फिर एक दिन जब वो अपने घर चली जाती है
अपने - अपनों के जाल में फँसकर
हर चीज को तरस जाती है
मन को यही दुविधा सताती है
पता नहीं इस अपने कहे जाने वाले घर से
जाने कब निकाली जा सकती है .
वह बेचारी भोली सी,नादान सी,
समझ ही नहीं पाती कि ... घर भी कभी
किसी औरत का हुआ है जो अब होगा .
घर औरत से बनता है ,सजता है,
औरत ही घर की जननी है
लेकिन यह बनाना बिगाड़ना पुरूष ही करता है
क्योकि अपना देश तो पुरूष प्रधान देश है .
यहाँ औरत स्वतन्त्रता के नाम पर
खुले आसमान के नीचे
बन्धनों की चाहर -दिवारी से कैद है
लेकिन फिर भी नकारात्मक सच है
कि .......घर गृहणी का ही होता हे.
नीतू राठौर
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प्रस्तुतकर्ता -शिखा कौशिक 'नूतन
1 टिप्पणी:
हिंदी दिवस के शुभ मौके पर हिंदी को एक ओर उपहार ---हिंदी तकनीकी दुनिया का शुभारंभ... कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें |
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