बुधवार, 25 सितंबर 2013

अँधेरी ,संकरी ,घुटनभरी है वो अंतहीन गली !!




माँ ने कसकर पकड़ी

बिटिया की हथेली ,

खींचते हुए उसे

अपने साथ ले चली ,

अँधेरी ,संकरी ,घुटनभरी

थी वो अंतहीन गली !!

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न दिखता था कुछ ,

न ही कुछ सूझता था ,

हैवानी साये नोंचना चाहते थे

माँ और बेटी दोनों को

खुद को बचाती माँ ,

बेटी को छिपाती ,

थर -थर कांपती ,

बेटी को छाती से चिपटाती,

माँ बढती आगे-आगे

पर किधर -कहाँ ?

ये थी कुटिल पहेली !

क्योंकि अँधेरी ,संकरी ,घुटनभरी

थी वो अंतहीन गली !!

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चलते चलते थकने लगी माँ ,

होने लगी निढाल ,

बेटी ने दिया सहारा ,

तभी बेटी को उसकी बेटी ने पुकारा ,

माँ को वहीँ छोड़ बेटी ने दौड़कर

अपनी बिटिया की कसकर

पकड़ी हथेली पर

फिर नहीं पकड़ में आया बेटी को

उसकी माँ का हाथ ,

माँ को निगल गयी

अँधेरी ,संकरी ,घुटनभरी

थी वो अंतहीन गली !!

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ये गली है पुरुष अहम् की

जिसमे से होकर गुजरना है

हर माँ और उसकी बेटी को ,

इसमें तानाशाही के हैं अँधेरे ,

स्त्री को दोयम दर्जे का प्राणी

बनाये रखने का संकरापन

और स्त्री देह के शोषण की घुटन ,

अंतहीन हैं अत्याचार पुरुष के ,

नहीं पहुंची एक भी किरण समानता की

और न ही चली स्त्री के अस्तित्व

को स्वीकारती गुलाबी हवा

क्योंकि ये गली है

अँधेरी ,संकरी और घुटनभरी !!



शिखा कौशिक 'नूतन'

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