सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

पद--- डा श्याम गुप्त .....

पद---  डा श्याम गुप्त.....
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मैं तो खोजि खोजि कें हारो |
ब्रह्म हू जान्यो, पुरानन खोजो, गीता बचन उचारो |
ज्ञान वार्ता, धरम-करम औ भक्ति-प्रीति मन धारो |
कथा रमायन, वेद-उपनिषद् ढूँढो अग-जग सारो |
पोथी पढ़ि पढ़ि भजन -कीरतन रत अति भयो सुखारो |
किधों रहै कित उठै औ बैठे कौन सो ठांव तिहारो |
कबहुं न काहू कतहु न पायो प्रभु का रूप संवारो |
थकि हारो अति आरत , राधे राधे नाम पुकारो |
कुञ्ज-कुटीर में लुकौ राधिका पाँव पलोटतु प्यारो |
सो लीला छवि निरखि श्याम' तन मन अति भयो सुखारो ||

रविवार, 19 फ़रवरी 2017

-विकास या पतन----लघु कथा---- ---डा श्याम गुप्त...



लघु कथा-----विकास या पतन ---डा श्याम गुप्त....


      “यहाँ लड़कियां, स्त्रियाँ सब खाए-पिए, हैवी बदन वाली, भारी बेडौल शरीर व नितम्बों वालीं, अनियमित चाल वालीं, जो टाईट जींस-पेंट टॉप में और अधिक उभरकर आती है, दिखाई देती हैं|,” मल्टी-स्टोरी रेजिडेंन्शियल बिल्डिंग के भ्रमण–पथ पर स्थानीय मित्रों के साथ घूमते हुए मैंने कहा |

      ‘हाँ, सभी आधुनिका, पढी-लिखी नारी हैं | अच्छी पगार-पैकेज पाने वालीं या पाने वाले या बिजनेस वाले अपेक्षाकृत अमीर लोगों की पत्नी, बहू-बेटियाँ हैं | ठाठ-बाट से रहने वालीं, लिपी-पुती, पेंट-जींस में रहने वालीं |’ शुक्ला जी बोले |

      ‘भई, अब वो कम खाने वाली, बचा-खुचा खानेवाली, गम खाने वाली स्त्रियाँ थोड़े ही रह गयी हैं | तरक्की पर है समाज | अब नारी वो पतली-दुबली, कृशकाय अबला नहीं रही|’ जोशीजी कहने लगे |

      ‘ हाँ सही है, परन्तु कहाँ है वह ग्लेमर, सहज-प्राकृतिक सौन्दर्य जो साधारण वस्त्रों में, रूखा-सूखा खाकर भी प्रसन्न रहने वाली सामान्य महिला में होता है | कवि की कल्पना की उस  ‘कनक छरी सी कामिनी...’  में होता है | जिसके लिए मजनूँ, फरहाद, सदाबृक्ष, रांझा जीवन वार देते थे |’ मैंने प्रश्न किया, शायद स्वयं से ही |

      ‘वस्तुतः अति-अभिजात्यता, अत्याधुनिकता सदैव ही स्त्रैण-भाव की कमी व नारी में पुरुषत्व-भाव लाती है | अप्राकृतिकता व नारी के सहज आकर्षण की कमी उत्पन्न करती है| यह सदा से ही होता आया है | पहले भी राजकुमार प्रायः राजकुमारियों को छोड़कर किसी दासी, दासी-पुत्री या सामान्य ग्रामीण बाला को पसंद करने लगता था, रानी बनाने हेतु | जाने कितनी गाथाएँ हैं|’ मैंने कहा |

     आज भी तो,’ शुक्ला जी कहने लगे, ‘साहब प्रायः घरेलू नौकरानी, मातहत, कामगार, सेक्रेटरी के आकर्षण में बह जाते हैं| पश्चिम-समाज में तो यह काफी सामान्य बात है, साहब का, मालिक का, सेविका से, घर की व्यवस्थापिका से, मातहत से शादी कर लेना | आज अभिजात्य में प्रेम, प्रेम के त्याग भाव आदि के न रह जाने से स्त्रियोचित लावण्य-सौन्दर्य नहीं दिख रहा है|  कमाऊ पत्नी देर रात तक बाहर रहने वाली पत्नी युग एवं फैशन, चमक-धमक के युग में, केवल शारीरिक आकर्षण व आवश्यकता ही प्रधान रह गयी है| विवाह भी आज बस सहजीवन रह गया है, एक सौदा, कांट्रेक्ट....| 
     ‘सही कह रहे हैं शुक्ला जी’, मैंने कहा,  ‘कहाँ रहा वह अटूट बंधन, प्रेम, भक्ति, त्याग का आकर्षण-बंधन | अतः पुरुष भी भ्रमित भाव , शारीरिक आकर्षण में बह जाता है , कहीं भी | स्त्री-पुरुष अहं, ईगो, झगड़े, तलाक व पुनर्विवाह के मामले सामान्य होते जा रहे हैं|’  

      ‘पर यह उन्नति-प्रगति का दौर है, बौद्धिकता के विकास का, कब तक वहीं पड़े रहेंगे’, सुराना जी कहने लगे, ‘कि नारी पुरुष की अभ्यर्थना में खड़ी रहे| अरे, अच्छा कमाते हैं तो सुख क्यों न उठायें| लड़कियां किसी से कम थोड़े ही हैं, बराबरी का दौर है |’  

        हाँ वह तो है, मैं सोचते हुए बोला, ‘पर इसमें नारी, स्त्री, पत्नी, रानी न रहकर सिर्फ भोग्या ही रह गयी है | यह विकास है या पतन |