आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी |
सिसकियाँ भरते हुए रुक रुक के ये कहने लगी !
इन्सान के दिल और दिमाग न रहे कब्जे में अब ,
मुझको निकाल कर वहां हैवानियत रहने लगी !!
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भूखी प्यासी मैं भटकती चीथड़ों में रात दिन ,
पास बैठाते मुझे आने लगी है सबको घिन्न ,
मैं तड़पती और कराहती खुद पे शर्माने लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
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हैवानियत के ठाट हैं पीती शराफत का है खून ,
वहशी इसको पूजते चारों दिशाओं में है धूम ,
बढ़ता रुतबा देखकर हैवानियत इतराने लगी !!
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
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इंसानियत बोली थी ये क्रोध में जलते हुए ,
डूबकर मर जाऊं या फंदा खुद कस लूँ गले ?
दरिंदगी के आगे बहकी नज़र आने लगी !!
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
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पोंछकर आंसू मैं उसके ये लगी फिर पूछने ,
तुम ही बतलाओ करूं क्या ?बात कैसे फिर बने ?
इंसानियत खोयी हुई हिम्मत को जुटाने लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
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है अगर दिल में जगह इंसानियत को दें पनाह ,
ये रहेगी दिल में तो हो सकता न कोई गुनाह ,
इंसानियत की बात ये 'नूतन' को लुभाने लगी !
आज मुझसे मिल गले इंसानियत रोने लगी!!
शिखा कौशिक 'नूतन'
5 टिप्पणियां:
निसन्देह बहुत सुन्दर .......
बहुत सुंदर .
प्रभावशाली रचना ..
बधाई !
BAHUT SUNDER, ARTHPURNA RACHNA KE LIYE HARDIK BADHAI NUTAN JI
अर्थपूर्ण रचना जो दिल को छू गयी
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