तन को चुपड़ना छोड़ सखी कर बुद्धि का श्रृंगार .
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देह की चौखट के पार पड़ा है प्रज्ञा का संसार ;
तन को चुपड़ना छोड़ सखी कर बुद्धि का श्रृंगार .
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कब तक उबटन से मल - मल कर निज देह को तुम चमकाओगी ?
कुछ तर्क-वितर्क करो खुद से अबला कब तक कह्लोगी ,
केशों की सज्जा छोड़ सखी मेधा को आज सँवार .
तन को चुपड़ना छोड़ ......
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पैरों में रचे महावर है ; हाथों में रचती है मेहँदी ,
नयनों में कजरा लगता है ; माथे पर सजती है बिंदी ,
सोलह सिंगार तो बहुत हुए अब उठा ज्ञान तलवार .
तन को चुपड़ना छोड़ ....
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हाथों में कंगन; कान में झुमका; गले में पहने हार ;
पैर में पायल; कमर में तगड़ी ; कितने अलंकार ?
ये कंचन -रजत के भूषण तज फौलादी करो विचार .
तन को चुपड़ना छोड़ सखी कर बुद्धि का श्रृंगार .
शिखा कौशिक
[विख्यात ]
7 टिप्पणियां:
bahut achchha sandesh deti kavita.aabhar.हमें आप पर गर्व है कैप्टेन लक्ष्मी सहगल
उबटन से ऊबी नहीं, मन में नहीं उमंग ।
पहरे है परिधान नव, सजा अंग-प्रत्यंग ।
सजा अंग-प्रत्यंग , नहाना केश बनाना ।
काजल टीका तिलक, इत्र मेंहदी रचवाना ।
मिस्सी खाना पान, महावर में ही जूझी ।
कर अपना उत्थान, बात कब तक यह बूझी ।।
करना निज उत्थान, बात अब तक ना बूझी ।।
बुद्धि का विकास तो होना हो चाहिए पर किसी बात को छोड़ देना ... काहे ..?
सुन्दर भावमय रचना है ...
सुन्दर भाव अभिवयक्ति है आपकी इस रचना में
ख्याल बहुत सुन्दर है और निभाया भी है आपने उस हेतु बधाई
http://madan-saxena.blogspot.in/
http://mmsaxena.blogspot.in/
http://madanmohansaxena.blogspot.in/
वाह! क्या बात है ...सुन्दर भाव व सीख
...परन्तु किसी भी प्राकृतिक भाव को आप कैसे छोड़ सकते हैं ....हाँ सारे सौंदर्य भाव सिर्फ अपने घर (यथा.. पति - प्रेमी ) के लिए तक सीमित हों तो सब उचित है अपितु आवश्यक हैं अन्यथा सृष्टि कैसे चलेगी | परन्तु अन्य के सम्मुख इस सबका कोई महत्त्व व आवश्यकता नहीं है इसीसे समाज में अनाचारिता का विकास होता है....इसी स्थिति व स्थान के लिए --"तन को चुपड़ना छोड़ सखी कर बुद्धि का श्रृंगार" ... एक दम उचित व सटीक है.... .
---विवाह संस्था को प्रचलित करने का यही कारण था....
----बहुत सुन्दर अतिसुन्दर...
very nice....
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