जलें लकड़ियाँ लोहड़ी, होली बारम्बार ।
जले रसोईं में कहीं, कहीं घटे व्यभिचार ।
कहीं घटे व्यभिचार, शीत-भर जले अलावा ।
भोगे अत्याचार, जिन्दगी विकट छलावा ।
रविकर अंकुर नवल, कबाड़े पौध कबड़िया ।
आखिर जलना अटल, बचा क्यूँ रखे लकड़ियाँ ।।
1 टिप्पणी:
sarthak prastuti .aabhar
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