-प्रेम प्रकाश
सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ी है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिंचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीजिंग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है। इस ग्रे कलर का परसेंटेज जरूर काल-पात्र-स्थान के मुताबिक बदलता रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल' कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे। इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधर्ता आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं। लिहाजा संबंधों की हरियाली को कायम रखने और इसके रकबे के बढ़ाने में सीटियों ने भी कोई कम योगदान नहीं किया है। यह अलग बात है कि इस तरह की कोशिशें कई बार सिरे नहीं चढ़ने पर बेहूदगी की भी अव्वल मिसालें बनी हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।' 1951 आयी फिल्म 'अलबेला' में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज़ में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' तो आज भी सुनने को मिल जाता है ।
साफ है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को सीटी से ज्यादा परेशानी कभी नहीं रही और अगर रही भी तो यह परेशानी कभी सांघातिक या आतंकी नहीं मानी गई। मॉरल पुलिसिंग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिंग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिंग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिंगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।
मोबाइल, फेसबुक और आर्कुट के दौर में सीटियों की विदाई स्वाभाविक तो है पर यह खतरनाक भी है। इस खतरे का 'टेक्स्ट' आधी दुनिया के पल्ले पड़ना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि वह इसकी शिकार होने लगी। सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है। बेतार खतरों के जंजाल में फंसी स्त्री अस्मिता और सुरक्षा के लिए यह बड़ा सवाल है।
5 टिप्पणियां:
सीटियों का दौर कभी समाप्त नहीं हो सकता।
koi ladki kabhi nahi chahegi ki koi seeti bajaye. yah sachmuch smapt ho jana chahiye....
सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
मेरी बधाई स्वीकार करें ||
kuch pratiikiryaon ko pdhkr lg rha hai ke lekh pr mahhiilaon aur puruson kee pratikirya alag alag hai...maina ya kbhi nhi...aur khin nhi kha ha ki seetian bjni chahea...aur wo bhhi mahilaon ka khiilaf...maina apna lekh ka madhyam sa sirf ya kha hai ke ab seetion sa bda khtra aa gya hain...aur aj mahila ashmita ka sangharsh jyada mushkil ho gya hai...ya bazaar aur naya daur ke maya hai...
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