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गुरुवार, 6 नवंबर 2014

बॉबी केस और पामेला बोर्डेस


-प्रेम प्रकाश
पामेला बोर्डे स का नाम 1989 और 199० के आसपास जब मीडिया की सुर्खियों में आया था तो दुनिया सिर्फ इस बात पर दंग नहीं थी कि तब की ब्रितानी हुकूमत और वहां की सियासत के साथ मीडिया जगत में अचानक भूचाल आ गया। ...और वह भी एक कॉल गर्ल के कारण। भारत में तो लोग इस बात पर ज्यादा हतप्रभ थे कि इस सेक्स स्केंडल में भारत की एक बेटी का नाम आ रहा है। 
पामेला 1982 में मिस इंडिया चुनी गई थी पर ग्लैमर की जिस दुनिया में वह मुकाम हासिल करना चाह रही थी वह दुनिया उसके आगे देह की नीलामी की शर्त रख देगी ऐसा शायद उसने भी नहीं सोचा था। 1982 वही साल है जब बिहार का बॉबी मर्डर केस सामने आया था। नेताओं और उनके बेटों ने सचिवालय में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी को पहले तो हवस का कई बार शिकार बनाया और बाद में जब बात हाथ से निकलती दिखी तो उसका गला घोंट दिया गया। 
दरअसल, पिछले दो-ढाई दशकों में भारत इन मामलों में इतना 'उदार’ जरूर हो गया है कि उसे अब ऐसी सनसनी के लिए सात समंदर पार का दूरी तय करनी पड़े। इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था अगर ग्लोबल हुई है तो परिवार, समाज और राजनीति में भी काफी कुछ बदल गया है। कैमरा, मोबाइल और इंटरनेट के दौर में एक तो निजी और सार्वजनिक जीवन का अलगाव मिट गया है, वहीं इससे गोपन के 'ओपन’ का जो संधान शुरू हुआ है, उसने कई दबी और गुह्य सचाइयों को सामने ला दिया। बात अकेले राजनीति की करें तो अंगुलियां कम पड़ जाएंगी गिनने में कि इस दौरान कितने नेताओं और सरकार के हिस्से-पुर्जों की मर्यादित जीवन की कलई खुलने के बाद मुंह ढांपने पर मजबूर होना पड़ा है। हाल के कुछ सालों की बात करें तो भारतीय राजनीतिक यह सर्वाधिक अप्रिय प्रसंग अब आपवादिक नहीं रह गया है। इसके साथ ही स्त्री और राजनीति का साझा भी इस कदर बदल गया है, इसमें गर्व और संतोष करने लायक शायद ही कुछ बचा हो। इस स्थिति की गहराई में जाएं तो हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि सेवा और राजनीति का अलगाव तो बहुत पहले हो गया था। ऐतिहासिक रूप से यह स्थिति जयप्रकाश आंदोलन के भी बहुत पहले आ गई थी। अब तो वही लोग राजनीति में आ रहे हैं जिन्हें चुनाव मैनेज करना आता हो। धनबल और बाहुबल के जोर के आगे चरित्रबल को कौन पूछता है। फिर समाज का अपना चरित्र भी कोई इससे बहुत अलग हो, ऐसा भी नहीं है। टीवी-सिनेमा से लेकर परिवार-समाज तक चारित्रिक विघटन का बोलबाला है।
दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति के इस धूमिल अध्याय का पटाक्षेप अभी आसानी से होता तो नहीं लगता। क्योंकि जो स्थिति है उसमें इस चिता को भी पूरी स्वीकृति नहीं है। ऐसे मौकों पर महेश भट्ट जैसे फिल्मकार इस दलील के साथ सामने आते हैं कि जीवन का भीतरी और बाहरी सच अब अलग-अलग नहीं रहा। जो है वह खुला-खुला है, ढंका-छिपा कुछ भी नहीं। नहीं तो ऐसा कभी नहीं रहा है कि संबंध और परिवार की मर्यादा वही रही हो, जैसी दिखाई-बताई जाती रही हो। भट्ट आगे यहां तक कह जाते हैं कि इस स्थिति पर सर फोड़ने के बजाय इसे स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि अगर इस स्वीकृति से हमने आदर्श और मर्यादा के नाम पर कोई मुठभेड़ की तो फिर हम सचाई से भागेंगे। यह नंगे सच की चुनौती है। 
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रविवार, 5 अगस्त 2012

50 लाख पन्नों पर लिखी दोस्ती

- प्रेम प्रकाश
प्यार और दोस्ती जीवन से जुड़े ऐसे सरोकार हैं जिनको निभाने के लिए हमारी आपकी फिक्रमंदी भले कम हुई हो पर इसे उत्सव की तरह मनाने वाली सोच बकायदा संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। दिलचस्प यह भी है कि कल तक लक्ष्मी के जिन उल्लुओं की चोंच और आंखें सबसे ज्यादा परिवार और परंपरा का दूध पीकर बलिष्ठ हो रहे संबंधों पर भिंची रहतीं थी, अब वही कलाई पर दोस्ती और प्यार का धागा बांधने का पोस्टमार्डन फंडा हिट कराने में लगे हैं। फ्रेंड और फ्रेंडशिप का जो जश्न पूरी दुनिया में अगस्त के पहले रविवार से शुरू होगा उसके पीछे का अतीत मानवीय संवेदनाओं को खुरचने वाली कई क्रूर सचाइयों पर से भी परदा उठाता है।
फ्रेंडशिप डे या मैत्री दिवस को मनाने का ऐतिहासिक सिलसिला 1935 में तब शुरू हुआ जब यूएस कांग्रेस ने दोस्तों के सम्मान में इस खास दिन को मनाने का फैसला किया। इस फैसले तक पहुंचने के पीछे सबसे बड़ी वजह प्रथम विश्वयुद्ध के वे शर्मनाक अनुभव बनी जिसने देशों के साथ समाज के भीतर संबंधों के सारे सरोकारों को तार-तार कर दिया। इस त्रासद अनुभव को सबने मिलकर अनुभव किया। तभी बगैर किसी हील-हुज्जत के यह सर्वसम्मत राय बनने लगी कि अगर हम संबंधों के निभाने के प्रति समय रहते संवेदनशील जज्बे के साथ सामने नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं जब मानव इतिहास का कोई भी हासिल बचा नहीं रख पाएंगे। आलम यह है कि पिछले कई दशकों से  दुनिया के सबसे ताकतवर देश का तमगा हासिल करने वाले देश से मैत्री को उत्सव दिवस के रूप में मनाने की परंपरा आज पूरी दुनिया के कैलेंडर की एक खास तारीख है। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े इस जरूरत को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने भी 1997 में एक अहम फैसला लिया। उसने लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती का राजदूत घोषित किया।
पिछले दस सालों में दोस्ती का यह पर्व उसी तरह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ है जिस तरह वेंलेंटाइन डे। अलबत्ता यह बात जरूर थोड़ी चौकाती है कि सेक्स और सेंसेक्स के बीच झूलती दुनिया में संबंधों को कलाई पर बांधकर दिखाने की रस्मी रिवायत से किसका भला ज्यादा हो रहा है। लेखक राजेंद्र यादव दोस्ती की बात छेड़ने पर अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत दोहराते हैं- 'बूट्स एंड फ्रेंडशिप शुड बी पॉलिश्ड रेग्युलरली।' जाहिर है संबंधों को एक दिन के उल्लास और उत्सव की रस्म अदायगी के साथ निपटाने के खतरे को वे बखूबी समझते हैं।
फेंड और फ्रेंडशिप का जिक्र हो रहा हो और बात युवाओं की न हो बात पूरी नहीं होती है। आर्चीज जैसी कार्ड और गिफ्ट बनाने और बेचने वाली कंपनियां इन्हीं युवाओं के मानस पर प्रेम, ख्वाब, यादें और दोस्ती जैसे शब्द लिखकर तो अपनी अंटी का वजन रोज ब रोज बढ़ा रही हैं। फिर बात दोस्ती के महापर्व की हो तो इन युवाओं को कैसे भूला जा सकता है। हाल में टीवी पर दिखाए जा रहे एक शो में जज बने जावेद अख्तर तब तुनक गए जब गायिका वसुंधरा दास ने अपने एक गाने को यूथफूल होने की दलील उनके सामने रखी। जावेद साहब ने थोड़े तल्ख लहजे में उस मानसिकता पर चुटकी ली जिसमें देह की अवधारणा को संदेह से अलगाने की कोशिश हो या किसी बेसिर-पैर के म्यूजिकल कंपोजिशन को मार्डन या यूथफूल ठहराने का कैलकुलेटेड एफर्ट, यूथ सेंटीमेंट की बात छेड़कर सब कुछ जायज और जरूरी ठहरा दिया जाता है। उनके शब्द थे "इस तरह की दलीलों को सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे यूथ कोई 21वीं सदी का इन्वेंशन हो और इससे पहले ये होते ही नहीं थे।' इस  वाकिए को सामने रखकर यह समझने में थोड़ी सहुलियत हो सकती है कि नई पीढ़ी को सीढ़ी बनाकर संबंधों के केक काटने वाला बाजार किस कदर अपने मकसद में क्रूर है। यहां यह भूल करने से बचना चाहिए कि नई पीढ़ी की संवेदनशीलता कोरी और कच्ची है। हां, यह जरूर है कि उसके आसपास का वातावरण उससे वह मौका भरसक हथिया लेने में सफल हो रहा है जो निभाए जाने वाले मानवीय सरोकारों को दिखाए जाने वाला रोमांच भर बना रहे हैं।
स्थिति शायद उतनी निराशाजनक नहीं जितनी ऊपर से दिखती है। गूगल सर्च इंजन पर फ्रेंडशिप डे के दो शब्द जो 50 लाख से ज्यादा पन्ने हमारे सामने खोलता है उसमें कई सामाजिक संस्थाओं और दोस्तों के ऐसे समूहों के क्रिया-कलापों का बखान भी बखान भी है जो मानवीय संबंधों को हर तरह की त्रासदी से उबाड़ने में लगे हैं। खुशी की बात यह कि ऐसी पहलों का ज्यादातर हिस्सा युवाओं के हिस्से है। बहरहाल, पूरी दुनिया के साथ भारत भी मैत्री दिवस को मनाने के लिए तैयार है। और उम्मीद की जानी चाहिए कि संबंधों और वचनों के मान के लिए सब कुछ दाव पर लगा देने वाले देश में लोक और परंपरा के साथ आधुनिकता के बीच दोस्ती के नए संकल्प पूरे होंगे।
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सोमवार, 30 जुलाई 2012

पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी !

बढ़ती गरमी बारिश की याद ही नहीं दिलाती, उसकी शोभा भी बढ़ाती है। केरल तट पर मानसून की दस्तक हो कि राजधानी दिल्ली में उमस भरी गरमी के बीच हल्की बूंदा-बांदी, खबर के लिहाज से दोनों की कद्र है और दोनों के लिए स्पेस भी। अखबारों-टीवी चैनलों पर जिन खबरों में कैमरे की कलात्मकता के साथ स्क्रिप्ट के लालित्य की थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती है, वह बारिश की खबरों को लेकर ही। पत्रकारिता में प्रकृति की यह सुकुमार उपस्थिति अब भी बरकरार है, यह गनीमत नहीं बल्कि उपलब्धि जैसी है। पर इसका क्या करें कि इस उपस्थिति को बचाए और बनाए रखने वाली आंखें अब धीरे-धीरे या तो कमजोर पड़ती जा रही हैं या फिर उनके देखने का नजरिया बदल गया है।
दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों के साथ अब तो सूरत, इंदौर, पटना, भोपाल जैसे शहरों में भी बारिश दिखाने और बताने का सबसे आसान तरीका है, किसी किशोरी या युवती को भीगे कपड़ों के साथ दिखाना। कहने को बारिश को लेकर यह सौंदर्यबोध पारंपरिक है। पर यह बोध लगातार सौंदर्य का दैहिक भाष्य बनता जा रहा है। और ऐसा मीडिया और सिनेमा की भीतरी-बाहरी दुनिया को साक्षी मानकर समझा जा सकता है। कई अखबारी फोटोग्राफरों के अपने खिंचे या यहां-वहां से जुगाड़े गये ऐसे फोटो की बाकायदा लाइब्रोरी है। समय-समय पर वे हल्की फेरबदल के साथ इन्हें रिलीज करते रहते हैं और खूब वाहवाही लूटते हैं। नये मॉडल और एक्ट्रेस अपना जो पोर्टफोलियो लेकर प्रोडक्शन हाउसों के चक्कर लगाती हैं, उनमें बारिश या पानी से भीगे कपड़ों वाले फोटोशूट जरूर शामिल होते हैं। बताते हैं कि नम्रता शिरोडकर की बहन शिल्पा शिरोडकर को कई बड़े बैनरों को फिल्में एक दौर में इसलिए मिलीं कि उसे कैमरे के आगे पानी में किसी भी तरह से भीगने से गुरेज नहीं था। खबरें तो यहां तक आर्इं कि उसे एक फिल्म में इतनी बार नहलाया-धुलाया गया कि अगले कई महीनों तक वह निमोनिया से बिस्तर पर पड़ी रही। हीरोइनों के परदे पर भीगने-भिगाने का चलन वैसे बहुत नया भी नहीं है। पर पहले उनका यह भीगना-नहाना ताल-तलैया, गांव-खेत से लेकर प्रेम के पानीदार क्षणों को जीवित करने के भी कलात्मक बहाने थे।
वह दौर गया, जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान फूटे। जिन कुछ लोक अंचलों में यह सांगीतिक-सांस्कृतिक परंपरा थोड़ी-बहुत बची है, वह मीडिया की निगाह से दूर है। इसे उस सनक या समझ का ही कमाल कहेंगे कि टूथपेस्ट बेचना हो या मानसून आने की खबर देनी हो, तरीका चाहे जो भी हो होता दैहिक ही है। बारहमासा गाने वाले देश में आया यह परिवर्तन काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। यह फिनोमना सिर्फ हमारे यहां नहीं पूरी दुनिया का है। पूरी दुनिया में किसी भी पारंपरिक परिधान से बड़ा मार्केट स्विम कास्ट¬ूम का है। दिलचस्प तो यह कि अब शहरों में घर तक कमरों की साज-सज्जा या लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से नहीं, अपार्टमेंट में स्विमिंग पूल की उपलब्धता की लालच पर खरीदे जाते हैं। इस पानीदार दौर को लेकर इतनी चिंता तो जरूर जायज है कि पानी के नाम पर हमारी आंखों और सोच में कितना पानी बचा है। अगर पानी होने या बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं तो फिर पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी है।
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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

माफ करना साथिन !


तुम्हें तो पंख मिले हैं फितरतन
जाओ न उड़ो तुम भी
कहो कि मेरा है आकाश

क्यों
आखिर क्यों चाहिए तुम्हें
उतनी ही हवा
जितनी उसके बांहों के घेरे में है
क्यों है जमीन उतनी ही तुम्हारी
जहां तक वह पीपल घनेरा है

सुनी नहीं बहस तुमने टीवी पर
बिन ब्याही भी पूरी है औरत
क्या बैर है तुम्हारा उन सहेलियों से
जिनके पर्स में रखी माचिस
कहीं भी और कभी भी
चिंगारी फेंकने के लिए रहती है तैयार

बताओ आखिर
क्या मतलब है इसका
कि एक आईना भी नहीं है तुम्हारे पास
उसे छोड़कर
जिसमें तुम संवर सको
मलिका बन सको दुनिया जहान की

तुमने तो देखी भी नहीं होगी
टांगें अपनी ऊपर से नीचे तक
पता भी है तुम्हें
कि जिन अलग-अलग नंबरों से
घेरती-बांधती हो खुद को
उसका जरूरत से ज्यादा बटनदार होना
आजादी की असीम संभावनाओं का गला घोंटना है

जानती नहीं तुम
कि छलनी से चांद निहारने की आदत तुम्हारी
आक्सीजन में मिलावट है उसके लिए
खांसने लगता है वह
हांफती है जिंदगी उसकी
तुम्हारे बस उसके कहलाने से

तुम भले बनना चाहो उसकी मैना
वह तुम्हारे दरख्त का तोता नहीं बन सकता
वन बचाओ मुहिम का एक्टिविस्ट वह
जंगली है पूरी तरह से

तुम्हें अहसास नहीं शायद
कि बेटी हो तुम उस सौतेली सोच की
जो पूरी जिंदगी सोखा आती है
अपने बाप का हुलिया जानने में
माफ करना साथिन
बिल क्लिंटन की पीढ़ी का मर्द
इससे ज्यादा ईमानदार नहीं हो सकता
कि रात ढले तक तुम्हें
अपनी दबोच से आजाद रखे

रविवार, 8 जुलाई 2012

डेस्क पर दुष्कर्म


रौंदे गए खेत की तरह
पहुंची वह डेस्क पर
भरभरा कर ढहती
मिट्टी का सिलसिला
शिथिल पड़ गया था
पर थमा नहीं था बिल्कुल
पुलिस लग गई थी छानबीन में
सुराग की छेद में समाया था
टीचर से ब्वॉयफ्रेंड बना गिरिधारी

कवर की बॉटम होगी
पूरे पांच कॉलम की
उघड़ी खबर की आंखें
कल शहर की तमाम आंखों की
तलाशी लेगी

घबराना नहीं तुम
छंटने लगे बेहोशी तब भी
कल कोई नहीं पहचानेगा
भरभरा कर झरती
दोबारा इस मिट्टी को
बदनाम तो होगी वह
जिसे सूंघते फिरंगे सब
सड़कों-मोहल्लों पड़ोस में
और हम
हम तो होंगे बस
पेशेवर चश्मदीद
भेड़ियों की पीठ पर
शरारतन धौल जमाते

अगले नाम से फिर एक बार
दोहराया गया दुष्कर्म
हौले-हौले फूंक-फूंककर
मर्दाना शहर में बढ़ गई अचानक
मांदों की गिनती
पिछले साल पांच सौ छब्बीस
इस साल अगस्त तक
चार सौ इक्कीस

स्कूल में पढ़ने वाली
मालती को क्या पता था
सबक याद कराने वाला मास्टर
उसे क्या रटा रहा है
देर शाम बेहोश मिली मालती
कोचिंग सेंटर के आखिरी कमरे में

चालीस फोंट की बोल्ड हेडिंग
लुट गई मालती दिन-दहाड़े
खुलती आंखों का भरोसा
फिर से सो गया
लोकशाही के चौथे खंभे का
हथकंडा देखकर

रविवार, 17 जून 2012

प्रेम : हमारे दौर का सबसे बड़ा संदेह


- प्रेम प्रकाश  
संबंधों के मनमाफिक निबाह को लेकर विकसित हो रही स्वच्छंद मानसिकता और पैरोकारी के ग्लोबल दौर में जिस एक चीज को लेकर सबसे ज्यादा संदेह और विरोध है, वह है प्रेम। इन दो विरोधाभासी स्थितियों को सामने रखकर ही मौजूदा दौर की देशकाल और रचना को समझा जा सकता है। हाल में अखबारों में ऑनर किलिंग के दो मामले आए। इनमें एक घटना बुलंदशहर और दूसरी मेरठ की है। ये मामले एक ही राज्य उत्तर प्रदेश के हैं पर ऐसी घटनाएं हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार या दिल्ली समेत देश के किसी भी सूबे में हो सकती हैं।
बुलंदशहर वाले मामले में प्रेमिका की आंखों के सामने उसकी ही चुन्नी से प्रेमी का सरेआम गला घोंट दिया गया। जान युवती की भी शायद ही बच पाती पर शुक्र है कि ग्रामीणों ने हत्यारों को घेर लिया। मेरठ में तो युवक की हत्या युवती के घर पर पीट-पीटकर कर दी गई। मामला कहीं न कहीं प्रेम प्रसंग का ही था। अभी 'सत्यमेव जयते' नाम से अभिनेता आमिर खान जो चर्चित टीवी शो पेश कर रहे हैं, उसके पिछले एपिसोड में भी इस मसले को उठाया गया था। कार्यक्रम में लोगों ने एक बार फिर देखा-समझा कि हमारा समय और समाज युवकों की अपनी मर्जी से शादी के फैसले के कितना खिलाफ है। यह विरोध कितना बर्बर हो सकता है, इसके लिए आज किसी आपवादिक मामले को याद करने की जरूरत भी नहीं। आए दिन ऐसा कोई न कोई मामला अखबारों की सुर्खी बनता है।
ऐसे में हमारी समाज रचना और दृष्टि को लेकर कुछ जरूरी सवाल खड़े होते हैं, जिनका सामना किसी और को नहीं बल्कि हमें ही करना है। पहला सवाल तो यही कि जिस पारिवारिक-सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर नौजवान प्रेमियों पर आंखें तरेरी जाती हैं, उस प्रतिष्ठा की रूढ़ अवधारणा को टिकाए रखने वाले लोग कौन हैं? समझना यह भी होगा कि स्वीकार की विनम्रता की जगह विरोध की तालिबानी हिमाकत के पीछे कहीं पहचान का संकट तो नहीं है? क्योंकि यह संकट उकसावे की कार्रवाई से लेकर हिंसक वारदात तक को अंजाम देने की आपराधिक मानसिकता को गढ़ने वाला आज एक बड़ा कारण है।
मेनस्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक; हर रोज ऐसी करतूतें सामने आती हैं, जब लोगों की दिमागी शैतानी लोकप्रियता की भूख में शालीनता और सभ्यता की हर हद को तोड़ने के तपाकीपन दिखाने पर उतारू हो जा रही है। समाज वैज्ञानिक बताते हैं कि समाज का समरस और समन्वयी चरित्र जब से व्यक्तिवादी आग्रहों से विघटित होना शुरू हुआ है, परिवार और परंपरा की रूढ़ पैरोकारी का प्रतिक्रियावादी जोर भी बढ़ा है। इसका प्रकटीकरण पढ़े-लिखे समाज में जहां ज्यादा चालाक तरीके से होता है, वहीं अपढ़ और निचले सामाजिक तबकों में ज्यादा नंगेपन में दिखाई दे जाता है। वैसे प्रेम को लेकर तेजाबी नफरत दिखाने के पीछे यह अकेला कारण नहीं है। हां, एक विलक्षण और सामयिक केंद्रीय कारण जरूर है।  
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सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

राजीनामा फिर शादीनामा

                                                                                                    -प्रेम प्रकाश
बाजार की सीध में चले दौर ने परिवार संस्था को नई वैचारिक तमीज के साथ समझने की दरकार बार-बार रखी है। इस दरकार ने इस संस्था के मिथ और मिथक पर नई रौशनी डाली भी है। अलबत्ता, अब तक अब तक विवाह और परिवार के रूप में विकसित हुई संस्था की पारंपरिकता पर खीझ उतारने वाली सनक तो कई बार जाहिर हो चुकी है पर इसके विकल्प की जमीन अब भी वीरान ही है। साफ है कि मनुष्य की सामाजिकता का तर्क आज भी अकाट्य  है और इस पर लाख विवाद और वितंडा के बावजूद इसे खारिज कर पाना आसान नहीं है।
ऐसा ही एक सवाल संबंधों की रचना प्रक्रिया को लेकर बार-बार उठता है। विवाह की एक कानूनी व्याख्या भी है। इस व्याख्या और मान्यता की जरूरत भी है। पर यह भी उतना ही सही है कि कानूनी धाराओं से वैवाहिक संबंध को न तो गढ़ा जा सकता है और न ही इसके निर्वाह का गाढ़ापन इससे तय होता है। इसके लिए तो लोक और परंपरा की लीक ही पीढ़ियों की सीख रही है। दिलचस्प है कि इस सीख को ताक पर रखकर कानूनी ओट में विवाह संस्था को मन माफिक आकार देने की कोशिश हाल के सालों में काफी बढ़ी है। परिवार और समाज को दरकिनार कर जीवनसाथी के चुनाव का युवा तर्क आजकल सुनने में खूब आता है। स्वतंत्रता के रकबे को अगर स्वच्छंदता तक फैला दें तो यह तर्क आपको प्रभावशाली भी लग सकता है। पर यह आवेगी उत्साह कई खामियाजाओं का कारण बन सकता है।
अच्छी बात है कि अपने एक नए फैसले में अदालत ने भी तकरीबन ऐसी ही बात कही है। जो लोग सीधे कोर्ट और वकील के चक्कर से बचते हुए मंदिरों में विवाह रचाने का रास्ता चुनते रहे हैं, उनके लिए अदालत का नया फैसला महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट ने आर्य समाजी विवाह के एक मामले में साफ कहा है कि मंदिर में शादी करने का यह कतई मतलब नहीं कि दो व्यस्कों की सहमति भर को सात फेरे लेने का न्यूनतम आधार मान लिया जाए। इस फैसले में कहा गया है कि किसी भी विवाह के लिए दोनों पक्षों के माता-पिता या अभिभावक की सहमति जरूरी है। और अगर शादी मां-पिता की बगैर मर्जी के की जा रही है तो इस असहमति की वजह लिखित रूप में रिकार्ड पर होनी चाहिए। साथ ही ऐसी स्थिति में गवाह के तौर पर दोनों पक्षों की तरफ से अभिभावक के रूप में नजदीकी रिश्तेदार की मौजूदगी जरूरी है। यही नहीं मंदिर में विवाह संपन्न होने से पूर्व माता-पिता और संबंधित इलाके के थाने और सरकारी कार्यालयों को सूचित करना होगा।
साफ है कि अदालत ने विवाह को परिवारिकता और सामाजिकता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना है। उसकी नजर में विवाह संस्था के महत्व का आधार और सरोकार दोनों व्यापक है। इस व्यापकता में सबसे महत्वपूर्ण रोल उन सहमतियों का है जो पारंपरिक शादियों में खासतौर पर महत्व रखती हैं। बच्चों को जन्म देने का विवेकपूर्ण फैसला करने वाले मां-बाप को एकबारगी अपने बच्चों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले से बाहर नहीं किया जा सकता है। आज तक यह सीख परंपरा की गोद में दूध पीती रही है अब इसे कानूनी अनुमोदन भी हासिल हो गया है। 
                                                                          (http://puravia.blogspot.com/2011/10/blog-post_31.html)

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

जनाना न्याय का उध्बोधन गीत


                                                                                    -प्रेम प्रकाश
(1)
याद आता है
अभिनेता महान का हिट संवाद
मर्द को दर्द नहीं होता जनाब
गूंजती है आवाज
सनसनाहट से भरी एमएमएस क्लिप में
बांग्ला की कुलीन अभिनय परंपरा की बेटी की
आई वांट ए परफेक्ट गाइ  
और फिर उतरने लगते हैं पर्दे पर
एक के बाद एक दृश्य
शालिनी ने लकवाग्रस्त पति को
दिया त्याग रातोंरात
अधेड़ मंत्री के यहां पड़े छापे में मिली
पौरुष शास्त्र की मोटी किताब
वियाग्रे की गोलियां
मुस्टंड मर्दानगी के लिए ख्यात
हकीम लुकमान के लिखे अचूक नुस्खे
मिस वाडिया ने अपनी आत्मकथा में
उड़ाया इंच दर इंच मजाक
अपने सहकर्मी की गोपनीय अंगुली का

(2)
नामर्दों के लिए कोई जगह नहीं
उन्हें नहीं मिलेगी तोशक न मिलेगी रजाई
न वे झूल सकेंगे झूला न बना सकेंगे रंगोली
और न खेल सकेंगे होली
अवैध मोहल्लों के किसी गली-कूचे या मैदान में
 ऊंची एड़ी पर खड़ी दुनिया
 नहीं देखना चाहती किसी नामर्द की शक्ल
अपनी किसी संतान में

(3)
मर्द न होना किसी मर्द के लिए 
बिल्कुल वैसा ही नहीं है
जैसा किसी औरत का न होना औरत
स्त्री-पुरुष का लिंग भेद मेडिकल रिपोर्ट नहीं
बीसमबीस क्रिकेट का स्कोर बोर्ड
करता है जाहिर
पुरुष इस खेल को सबसे तेज और
जोरदार खेलकर ही साबित हो सकते हैं जवां मर्द
और तभी मछली की तरह उतरेगी
उसके कमरे में कैद तलाब में कोई औरत

(4)
मर्दाना पगड़ी की कलगी खिलती रहे
अब ये चाहत नहीं चुनौती है पुरुषों के आगे
उसे हर समय दिखना होगा
सख्त और मुस्तैद
नहीं तो सुनना पड़ सकता है ताना
वंशी बजाते हुए नाभी में उतर जाने वाले कन्हाई
कहीं पीछे छूट गए
औरतों ने देना शुरू कर दिया है
पुरुष को पौरुष से भरपूर होने की सजा
जिस औजार से गढ़ी जाती थीं  
अब तक मन माफिक मूर्तियां
अब उनका इस्तेमाल मिस्त्री नहीं
बल्कि करने लगे हैं बुत
मैदान वही
बस  योद्धाओं के बदल गए हैं पाले
मर्दाना तर्क जनाना हाथों में
ज्यादा कारगर और उत्तेजक रणनीति है
जैसे को तैसा...
जनाना न्याय का उध्बोधन गीत है             
( http://angikaa.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html)

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

सीटियों की विदाई : महिला सुरक्षा का शोकगीत

                                                                                                                                 
                                -प्रेम प्रकाश
सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ी है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिंचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीजिंग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है। इस ग्रे कलर का परसेंटेज जरूर काल-पात्र-स्थान के मुताबिक बदलता रहा है।

बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल' कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे। इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों   से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधर्ता आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं। लिहाजा संबंधों की हरियाली को कायम रखने और इसके रकबे के बढ़ाने में सीटियों ने भी कोई कम योगदान नहीं किया है। यह अलग बात है कि इस तरह की कोशिशें कई बार सिरे नहीं चढ़ने पर बेहूदगी की भी अव्वल मिसालें बनी हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।' 1951 आयी फिल्म 'अलबेला' में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज़ में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' तो आज भी सुनने को मिल जाता है  
साफ है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को सीटी से ज्यादा परेशानी कभी नहीं रही और अगर रही भी तो यह परेशानी कभी सांघातिक या आतंकी नहीं मानी गई। मॉरल पुलिसिंग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिंग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिंग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिंगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।
मोबाइल, फेसबुक और आर्कुट के दौर में सीटियों की विदाई स्वाभाविक तो है पर यह खतरनाक भी है। इस खतरे का 'टेक्स्ट' आधी दुनिया के पल्ले पड़ना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि वह इसकी शिकार होने लगी। सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है। बेतार खतरों के जंजाल में फंसी स्त्री अस्मिता और सुरक्षा के लिए यह बड़ा सवाल है।

रविवार, 16 अक्टूबर 2011

इराक युद्ध और गर्भपात


-प्रेम प्रकाश
समय से जुड़े संदर्भ कभी खारिज नहीं होते। आप भले इन्हें भूलना चाहें या बुहारकर हाशिए पर डाल दें पर ये फिर-फिर लौट आते हैं हमारे समय की व्याख्या के लिए जरूरी औजारों से लैश होकर। इसे ही सरलीकृत तरीके से इतिहास का दोहराव भी कहते हैं। 21वीं सदी की दस्तक के साथ विश्व इतिहास ने वह घटनाक्रम भी देखा जिसने हमारे दौर की हिंसा का सबसे नग्न चेहरा सामने आया। खबरों पर बारीक नजर रखने वालों को 2003 के इराक युद्ध का रातोंरात बदलता और गहराता घटनाक्रम आज भी याद है। ऐसे लोग तब के अखबारों में आई इस रिपोर्ट को भूले नहीं होंगे कि जंग के आगाज से पहले सबसे ज्यादा चहल-पहल वहां प्रसूति गृहों में देखी गई थी। सैकड़ों-हजारों की संख्या में गर्भवती महिलाएं अपने बच्चों को समय पूर्व जन्म देने के लिए वहां जुटने लगी थीं। यही नहीं ये माताएं जन्म देने के बाद अपने बच्चे को अस्पताल में ही छोड़कर घर जाने की जिद्द करती थीं। पूरी दुनिया से जो पत्रकार युद्ध और युद्धपूर्व की इराकी हालात की रिपोर्टिंग करने वहां गए थे, उनके लिए यह एक विचलित कर देने वाला अनुभव था।
पहली नजर में यही समझ में आ रहा था कि युद्ध की विभिषिका ने ममता की गोद को भी पत्थरा दिया है। पर ऐसा था नहीं। सामान्य तौर पर युद्ध के दौरान स्कूलों-अस्पतालों पर किसी तरह का आक्रमण नहीं किया जाता। और इराक की माताएं नहीं चाहती थीं कि उनका नौनिहाल युद्ध की भेंट चढ़ें। इसलिए उसके समय पूर्व जन्म से लेकर उनकी जीवन सुरक्षा को लेकर वे प्राणपन से तत्पर थीं। करीब आठ साल पहले इराक में मां और ममता का जो आंखों को नम कर देने वाला आख्यान लिखा गया, उसका दूसरा खंड इन दिनों अपने देश में लिखा जा रहा है। हाल की एक खबर में यह आया कि उत्तर प्रदेश में करीब 40 हजार सिपाहियों की भर्ती होनी है। भर्ती का यह मौका वहां के लोगों के लिए इसलिए भी बड़ा है कि इनमें महिला-पुरुष दोनों के लिए बराबर का मौका  है।
प्रदेश में बेराजगारी का आलम यह है कि गर्भवती युवतियां अपनी कोख के साथ खिलवाड़ कर नौकरी की इस होड़ में शामिल होना चाहती हैं। धन्य हैं वे डॉक्टर भी जो अपने पेशागत धर्म को भूलकर एक अमानवीय और बर्बर ठहराए जाने वाले कृत्य को मदद पहुंचा रहे हैं। महज नौकरी की लालच में बड़े पैमाने पर गर्भपात कराने का ऐसा मामला देश-दुनिया में शायद ही इससे पहले कभी सुना गया हो। मायावती सरकार के कानों तक भी यह शिकायत पहुंची है। अच्छी बात यह है कि सरकार ने इस शिकायत को दरकिनार या खारिज नहीं किया है और वह इस मामले में निजी चिकित्सकों से निपटने की बात कह रही है।
पर असल मुद्दा इस मामले में कार्रवाई से ज्यादा उस नौबत को समझना है, जिसने ममता की सजलता को निर्जल बना दिया। क्या इस घटना से सिर्फ यह साबित होता है कि रोटी की भूख और बेरोजगारी के दंश के आगे हर मानवीय सरोकार बेमानी हैं या यह घटना इस बात की गवाही है कि संवेदना के सबसे सुरक्षित दायरे भी आज सुरक्षित नहीं रहे। यौन हिंसा से लेकर संबंधों की तोड़-जोड़ की खबरों की गिनती और आमद अब इतनी बढ़ गई है कि इन्हें अब लोग रुटीन खबरों की तरह लेने लगे हैं। इन्हें पढ़कर न अब कोई चौंकता है और न ही कोई हाय-तौबा मचती है।
बहरहाल, यह बात भी अपनी जगह नकारी नहीं जा सकती कि अपने देश में महिला सम्मान और उसके अधिकार और महत्व को लेकर बहस किसी अन्य देश या संस्कृति से पुरानी है। दिलचस्प है कि लोक और परंपरा के साथ सिंची जाती हरियाली आज समय की सबसे तेज तपिश की झुलस से बचने के लिए हाथ-पैर मार रही है। रोटी का तर्क मातृत्व के संवेदनशील तकाजे पर भी भारी पड़ सकता है, यह जानना अपने देशकाल को उसके सबसे बुरे हश्र के साथ जानने जैसा है। भारत और भारतीय परंपरा के हिमायतियों को भी सोचना होगा कि वह इस क्रूर सच का चेहरा कैसे बदलेंगे। क्योंकि अगर परंपरा का बहाव जहरीला हो जाए तो उसका आगे का सफर और गंतव्य भी सुरक्षित तो नहीं ही रहेगा।