मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

स्त्री बनाम स्त्री !


स्त्री  बनाम  स्त्री !
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[google से साभार ]


आज तक जितनी भी 
जली-कटी उसने सुनी  थी ;
सारी  की  सारी  
बहू को ज्यों की 
त्यों  कही  थी 
क्योंकि  ..
सास  भी कभी  
बहू  थी !


बहू  बनकर  आई   
सास  को माँ  न मान पाई ;
माँ को होता  था  दर्द 
खूब  सेवा  करती  थी 
पर  सास के  तड़पने  पर भी 
अपने कमरे  में  
आराम  से  लेटी थी ;
यकीन  नहीं  होता 
ये  बहू भी कभी  
बेटी  थी !




अपनी  भाभी की 
चुगली माँ से करती थी ;
उन  दोनों  में मतभेद  कर  
मज़े  लेती थी ;
खुद ब्याह कर जब  
ससुराल  आई ;
अपने जैसी ही  ननद पाई ;
ये सबक  था ...या सजा थी 
उस  बहू के लिए  
जो   खुद  एक  
ननद  थी !


                               shikha kaushik 
                                         [vikhyat ]

5 टिप्‍पणियां:

Shalini kaushik ने कहा…

very true.फांसी और वैधानिक स्थिति

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना,सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन पोस्ट,....

MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: मै तेरा घर बसाने आई हूँ...

डा श्याम गुप्त ने कहा…

sundar..

"ये सबक था ...या सजा थी "
---दोनों...

S.N SHUKLA ने कहा…

सार्थक सृजन, आभार.

Shikha Kaushik ने कहा…

SHALINI JI ,DHEERENDRA JI ,SHAYAM GUPT JI ,DINESH JI V S.N. SHUKLA JI -HARDIK AABHAR .