बुधवार, 4 अप्रैल 2012

’ इन्द्रधनुष’अंक नौ ...डा श्याम गुप्त का उपन्यास.....

        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास...पिछले अंक आठ   से क्रमश:......
                                                                 अंक नौ  

                                 सोचते सोचते न जाने कब नींद लग गयी । सुबह किसी के झिंझोड़ने पर मैं जागा ।
             '  क्या है सुभद्रे ! सोने दो न ।'
               ' उठो, मैं सुमि हूँ, केजी ! तुम ट्रेन मैं हो घर में नहीं ।'
               'ओह, मैं हडबडाकर उठा । सुमि फ्रेश होकर दोनों हाथों में कप पकडे खड़ी हुई थी ।'
               ' गुड मार्निंग '   मैंने कहा|
                वेरी वेरी गुड है ये मार्निंग, तुम्हारे साथ कृष्ण, चलो काफी होजाय ।  
                हम दोनों ही हंस पड़े ।
               'तुम तो एक दम घोड़े बेचकर सोरहीं थी, बेफिक्र । मैडम, ये ट्रेन है बैडरूम नहीं । सुना नहीं है--
  "तेरी गठरी में लागा चोर , मुसाफिर जाग ज़रा ।"
                'प्रथम क्लास  ऐसी है, कौन चोर आता है । और गठरी में तो चोर जाने कब से लगा हुआ है ।' , वह मुस्कुराई ।
               ' फिर भी यात्रा में इतना बेफिक्र नहीं सोना चाहिए ।' मैंने सहज भाव में ही कहा ।
                'तुम थे न तभी तो......।'
                'इतना विश्वास है मुझ पर ?'
               ' क्या हुआ है तुम्हें ? पता भी है क्या कह रहे हो । चलो काफी ख़त्म करो ।'
                ' अच्छा, स्त्री-पुरुष मित्रता पर अब तुम्हारे क्या विचार हैं ?'
               ' आगये न अपनी पर ।'  उसने बाल संवारते हुए कहा , ' वही, स्वस्थ मित्रता होनी चाहिए। जब तक एक दूसरे के बारे में पूर्ण ज्ञान न हो, नहीं होनी चाहिए । एक दम ख़ास विश्वासी मित्र के अलावा किसी के साथ एकांत में न जाना चाहिए न घूमना । एकांत में तो ख़ास मित्र के साथ भी नहीं । टाइम-टैस्टेड मित्र के साथ अकेले जा सकते हैं, तुम्हारे जैसे ।' उसने मुस्कुराते हुए कहा ।
                ' और मेरे जैसा विश्वासी  मित्र धोका दे तो ?'
                ' हरि इच्छा ! मेरा दुर्भाग्य, ईश्वरेच्छा पर किसका वश । हमें तो अपना व्यवहार उचित प्रकार से करते रहना चाहिए, न कि  "आ बैल मुझे मार । "   दुनिया के कार्य तो चलते ही रहेंगे । वैसे तुम्हारे अपने मस्तिष्क  में तो यह बात कभी आई ही नहीं होगी ।', वह खुलकर हंसी ।
                  ' आं....ss  आई नहीं होती तो  बात निकलती ही कैसे ?  और  तुम्हारे अपने मस्तिष्क  में .....क्या मस्तिष्क  भी दो तरह के होते हैं मनुष्य के पास...एक अपना एक पराया ?'
                  ' हाँ, आई होगी पर दूसरों के लिए, अन्य के सन्दर्भ में । जब हम अपने लिए सोचें तो अपना स्वयं का मस्तिष्क  और अन्य लोगों के सन्दर्भ में सोचें तो सामाजिक मस्तिष्क  कार्य कर रहा होता है ।  तुम्हारे पास तो अवश्य ही दो हैं ।'  वह हास्य स्मित अधरों से बोलती गयी ।
                   ' वाह ! क्या नयी रिसर्च की है ।' मैंने हंसते हुए सर हिलाकर कहा ।'
                   'कब तक दूसरों के लिए ही सोचते रहोगे, जीते रहोगे ?'   
                  ' हम सदा अपने लिए ही तो जीते हैं। मैं सदा ही तो यह कहता हूँ । अच्छे बनने के लिए ही तो, कि लोग हमें अच्छा कहें, प्रशंसा करें , हम दूसरों के कार्य करते हैं । ' 
                   'वस्तुतः व्यक्ति की स्वयं अकेले की क्या स्थिति होती है ? हम वह होते हैं जो अन्य हमें कहते हैं, समझते हैं । हम चाहे लाख तीसमार खां हों,यदि अन्य नहीं  समझते तो हम कुछ भी नहीं हैं । यह व्यवहारगत मूल संसारी तथ्य है । वीतरागी की बात पृथक है । परन्तु वीतरागी भी तो वही बन सकता है जिसने पहले राग को जाना हो तब त्यागा हो ।'
                   ' इसी प्रकार जैसे नारी की पिता, पुत्र, भाई , पति या मित्र के बिना कोई पहचान नहीं होती।  उसका नारीत्व कैसे सफल होगा ? उसी प्रकार पुरुष की भी स्थिति है। नारी, पत्नी, भगिनी, मां, पुत्री, मित्र के बिना कौन उसके पुरुषत्व को सराहेगा और क्यों । अतः स्वयं को अच्छा साबित करने के लिए ही हम दूसरों पर कृपा व उनके कार्य करते हैं ।'
                   ' मैं तुमसे ही तो नहीं जीत पायी, कृष्ण ।'
                   ' तो वैसे  तुमने विश्व-विजय कर लिया है, क्या !'
                  ' वह हंसकर रह गयी।  फिर बोली, ' अपने आस पास का संसार तो मैंने विजय किया ही है ।' 
                  ' बड़ी  संसारी होगई हो । तो सांसारिक समता समानता पर अब क्या विचार बने हैं तुम्हारे ?'
                   वह हँसने लगी, फिर बोली, ' सभी एक समान कैसे हो सकते हैं ? मैं प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रही हूँ, मेरे पास किराया देने को धन है ।क्योंकि मैंने परिश्रम व साधना की है । वह सड़क पर खड़ी भिखारिन मेरे बराबर कैसे हो सकती है । वह अपने कर्मों के कारण वहां है, मेरे कारण नहीं ।  मनुष्य के कर्म ही यह फैसला करते हैं कि उसे कहाँ होना चाहिए ।  बस उसे परमार्थ-हित , स्वार्थ रहित कर्म करते जाना चाहिए ।'
                   ' क्या यह गर्व नहीं है ?'
                   ' यह आत्मविश्वास है, गर्व नहीं, कृष्ण !  मुझे पता है तुम जानते हो ।  और गर्व करूंगी, वो भी केजी के सामने ?'  वह जोर से हंसी,  ' इसका यह अर्थ भी नहीं कि हम उस भिखारिन से घृणा करें या प्रताड़ित करें ।  यह ईश्वर का काम है,  हमारा नहीं । हम चाहें तो उसकी सहायता कर सकते हैं ।'
                  ' और जो लोग अपनी साधना-सिद्धि का दुरुपयोग करके, या  अवैध और अनधिकृत ढंग से कमाई करते हैं उनका क्या इस स्थिति से कोई सम्बन्ध है ?'
                  ' हाँ, अवश्य ही वे उसकी व देश समाज के इस स्थिति के लिए दोषी हैं । तभी तो भिखारी को एक पैसा दे देना या गरीब की सहायता कर देने वाला भारतीय स्वभाव यह दर्शाता है कि ऐसे व्यक्तियों के पाप-पूर्ण कार्यों का हम कुछ निराकरण करके अपने दायित्व की कुछ पूर्ति कर  रहे हैं । और यदि जाने अनजाने उस स्थिति के लिए कहीं हम भी थोड़ा सा जिम्मेदार हों तो उसका प्रायश्चित ।'
                 ' और यदि स्वयं तुमको भी ऐसी परिस्थिति से दो-चार होना पड़े तो ?'
                 'वह भी मेरे कर्मफल के कारण होगा, कोई गिला-शिकवा नहीं। झेलना चाहिए ।'
                ' कहना बहुत आसान है', मैंने कहा । 
                ' हाँ, सचमुच, पर कठिन कार्य आने पर ही तो इंसान निखरता है । वैसे कौन सा अच्छा कार्य सरल होता है ?'
               ओह, सुमि !  'यू आर स्टिल जीनियस ।'
               ' स्टिल !...'तो क्या मुझे उम्र के साथ कम अक्ल होते जाना चाहिए ? या तुम्हारा मतलब है तुमसे दूर रहकर ..'
                                " वह दूर भी  है पास भी है,
                                दिल के करीब रहता है ।
                                जोशो जुनूँ को मेरे ,
                               कोई तो हवा देता है ।।"    
                                            मैंने उसे ध्यान से देखा । पच्चीस वर्ष बाद  की  सुमि;  वही तेज तर्रार आत्मविश्वास से युक्त गहरी आँखें , मर्यादित पहनावा, गरिमामय सौन्दर्य । कनपटी पर झांकते समय की कहानी कहने को आतुर रुपहले बाल । 
                    ' क्या देख रहे हो ?'
                          " दिल ढूँढता है फिर वही सुमि वो रात दिन ।
                          बैठे है तसब्बुर में जवाँ यादें लिए हुए ।।" 
                    ' तुम तो वैसे के वैसे हो, योगीराज !'
                                       
            **                              **                           **
                                               निर्धारित कार्यक्रमानुसार हम लोग चौपाटी, मैरीन ड्राइव आदि घूमते रहे । भेलपूरी चाट आदि के वर्किंग लंच के बीच पुरानी यादें ताजा करते रहे ।  केरीयर,  परिवार सभी के बारे में बातें होती रहीं । काव्य-संग्रह के अंश सुनकर पुरानी सुमि लौट आई थी ।  जम कर प्रशंसा व समीक्षा करती रही । बोली -
                    'कुछ मुझे भी समर्पण करो ।'
                    ' सब तुम्हीं को अर्पण है, अब समर्पण की बात कहाँ ?'
                     हूँ, सुमि कहने लगी,  'सच कृष्ण, जब भी मैं उदास या डिप्रेस्सेड  होती हूँ  तो चुपचाप झूले पर बैठकर कालिज व तुमसे जुडी यादों में खो जाती हूँ, जो  मुझमें पुनः जीवन व नवीनता का संचार करती हैं ।  सच है, सुखद, सुहानी यादें बड़े सशक्त टानिक होती हैं ।  क्या मैं विभक्त व्यक्तित्व हूँ ।  तुम तो अपने बारे में कहते ही नहीं ।'
                     ' नहीं, सुमि ! तुम अभक्त, अनंत, परमसुखी व्यक्तित्व हो, और मैं भी ।' 
                    ' हर बात का उत्तर है तुम्हारे पास और तुरंत ?' चलो अब कुछ सुना दो ।
                     हूँ, मैंने कहा, सुनो ----
                                             
                                                 " प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन ,
                                                  साँसों का चलना है जीवन ।
                                                  मिलना और बिछुड़ना जीवन ,
                                                  जीवन हार भी जीत भी जीवन ।।"       
                       सुमि सुनाने लगी ---
                                                   "प्यार है शाश्वत कब मरता है,                                            
                                                    रोम  रोम में  रहता  है ।
                                                    अज़र अमर है वह अविनाशी,
                                                    मन में रच बस रहता है ।।"   
                        ' ये कहाँ से याद किया ?', मैंने पूछा ।
                        ' मैंने तुम्हारी हर पुस्तक खरीदी है ।'
                        ' ओह ! शायद एक अकेली तुम ही खरीदती हो मेरेी पुस्तकें ?’  हम दोनों हंसने लगे ।
                        ’ ये क्या  होगया है हमें केजी ?  वह सेीरियस होकर बोली, ’  साहित्य में हमें कोई रूचि ही नहीं रह गयी है । न संस्कृति में न अध्यात्म में  । सत्साहित्य आज कल पढ़ा ही नहीं जाता । स्कूल व कालिज के बच्चे जादू की, चोर-उचक्कों की, फंतासी वाले अंग्रेज़ी  उपन्यास व पुस्तकें पढ़ने में व्यस्त है । सामान्य जनता कामर्शियल पेपर, चटपटे नाविल पढ़कर फैंक देने में लगी है । अंग्रेज़ी नावेल हम लोग भी  पढ़ते थे, फ़िल्में भी देखते थे । पर साहित्यिक रचनाएँ -शर्त, प्रसाद, टेगोर, प्रेमचंद, गोर्की, निराला,महादेवी, पन्त , वर्ड्स वर्थ , शेली, कीट्स आदि को भी कितना पढ़ते थे । सिर्फ एकेडेमिक क्लासेज़ में ही नहीं, मेडीकल के कठिन अध्ययन के साथ भी ।'
                        ' आज चारों और सभी वर्गों में अंतर्द्वंद्व व असंतुष्टि का यही तो कारण है कि उत्तम साहित्य के पठन -पाठन  का मार्ग अवरुद्ध होगया है।  साहित्य ही तो इतिहास, धर्म व संस्कृति का प्रतिपादन करता है । साहित्य क्या है ? यों ही नहीं होता काव्य में कोई कथा, कथ्य व तथ्य । मानव जीवन की कथाओं, ज्ञान-विज्ञान के समन्वित अनुभवों का निचोड़ होता है साहित्य, उनका इतिहास होता है साहित्य ।  इतिहास जाने बिना हमें अनुभवजन्य ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है ?  इसी ज्ञान के न होने से आज का युवा व प्रौढ़ वर्ग सामाजिक व मानवीय ज्ञान से अछूता रहता है और केवल कार्यात्मक, प्रोफेशनल व दैनिक व्यवहारिक ज्ञान को ही ज्ञान मानकर  सब कुछ ज्ञाता   होने का भ्रम  पाले   रहता है ।  जीवन का मूल उद्देश्य व दिशा न पाकर अंतर्द्वंद्वों में घिरा रहता है या पलायनवादी, अति-भौतिकवादी बन जाता है ।'  मैंने विस्तार से कहा ।  'परन्तु त्रुटि व भूल कहाँ हुई ?'  क्या  सारा दोष  आज की पीढी का ही है ?' मैंने शायद स्वयं से ही प्रश्न किया ।'
                          'भूल हमारी ही है केजी शायद । उन्नति, विकास, भौतिकता की चकाचौंध व शीघ्रातिशीघ्र फल प्राप्ति की दौड़ में एवं अंधाधुंध पाश्चात्य नक़ल करके बराबरी की होड़ में, सदियों की दासता के फलस्वरूप अपना गौरव, अपनी संस्कृति व् इतिहास भूले हुए हम लोग - अपनी स्वयं की अस्मिता, भारतीय भाव, भाषा व संस्कारों को संभल कर नहीं  रख पाए तथा आगे आने वाली पीढी के अनुकरण व अनुसरण के लिए  एक उदाहरण प्रस्तुत करने में असफल रहे । जो राष्ट्र व देश एक लम्बी राजनैतिक  गुलामी में भी सिद्धांततः अपनी संस्कृति व धर्म बचाए हुए था ; राजनैतिक स्वतन्त्रता मिलने पर  पाश्चात्य रंग-ढंग व विश्व-राजनीति का शिकार होकर सांस्कृतिक रूप से गुलाम होगया ।  सरकार, समाज व बौद्धिक संसार में सभी में वही भारतवासी हैं तो वही स्थिति है ।', सुमि ने अपना विचार व्याख्यायित किया ।' 
                              ' और यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो दर्पण में झांके बिना समाज कैसे दिखाई देगा । उत्तरोत्तर विकास केी से सीढी कैसे बनेगी ? बिना इतिहास व शास्त्र, सत्साहित्य के कोई भेी  समाज व राष्ट्र कब उन्नत हुआ है ?’ सुमि ने पुनःकहा ।
                              -----क्रमशः अन्क नौ का शेष....अगलेी पोस्ट में.....
       

   

5 टिप्‍पणियां:

dasarath ने कहा…

बहुत बेहतरीन उपन्यास है.

Ramakant Singh ने कहा…

message representing novel.
my newand next post DEDICATED TO
YOU ALL NARI INCLUDI MY MOTHER
SISTER AND ALL RELATIVIES.
RAJMATA KAIKAIYI

डा श्याम गुप्त ने कहा…

Thanks--दशरथ जी...

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद रमाशन्कर जी...
----YOU ALL NARI...write either.. you or all... not both...

Shikha Kaushik ने कहा…

rochak v sargarbhit ...aabhar
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