’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास...पिछले अंक आठ से क्रमश:......
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अंक नौ
सोचते सोचते न जाने कब नींद लग गयी । सुबह किसी के झिंझोड़ने पर मैं जागा ।
' क्या है सुभद्रे ! सोने दो न ।'
' उठो, मैं सुमि हूँ, केजी ! तुम ट्रेन मैं हो घर में नहीं ।'
'ओह, मैं हडबडाकर उठा । सुमि फ्रेश होकर दोनों हाथों में कप पकडे खड़ी हुई थी ।'
' गुड मार्निंग ' मैंने कहा|
वेरी वेरी गुड है ये मार्निंग, तुम्हारे साथ कृष्ण, चलो काफी होजाय ।
हम दोनों ही हंस पड़े ।
'तुम तो एक दम घोड़े बेचकर सोरहीं थी, बेफिक्र । मैडम, ये ट्रेन है बैडरूम नहीं । सुना नहीं है--
"तेरी गठरी में लागा चोर , मुसाफिर जाग ज़रा ।"
'प्रथम क्लास ऐसी है, कौन चोर आता है । और गठरी में तो चोर जाने कब से लगा हुआ है ।' , वह मुस्कुराई ।
' फिर भी यात्रा में इतना बेफिक्र नहीं सोना चाहिए ।' मैंने सहज भाव में ही कहा ।
'तुम थे न तभी तो......।'
'इतना विश्वास है मुझ पर ?'
' क्या हुआ है तुम्हें ? पता भी है क्या कह रहे हो । चलो काफी ख़त्म करो ।'
' अच्छा, स्त्री-पुरुष मित्रता पर अब तुम्हारे क्या विचार हैं ?'
' आगये न अपनी पर ।' उसने बाल संवारते हुए कहा , ' वही,
स्वस्थ मित्रता होनी चाहिए। जब तक एक दूसरे के बारे में पूर्ण ज्ञान न हो,
नहीं होनी चाहिए । एक दम ख़ास विश्वासी मित्र के अलावा किसी के साथ एकांत
में न जाना चाहिए न घूमना । एकांत में तो ख़ास मित्र के साथ भी नहीं ।
टाइम-टैस्टेड मित्र के साथ अकेले जा सकते हैं, तुम्हारे जैसे ।' उसने
मुस्कुराते हुए कहा ।
' और मेरे जैसा विश्वासी मित्र धोका दे तो ?'
' हरि इच्छा ! मेरा दुर्भाग्य, ईश्वरेच्छा पर किसका वश । हमें तो अपना
व्यवहार उचित प्रकार से करते रहना चाहिए, न कि "आ बैल मुझे मार । "
दुनिया के कार्य तो चलते ही रहेंगे । वैसे तुम्हारे अपने मस्तिष्क में तो
यह बात कभी आई ही नहीं होगी ।', वह खुलकर हंसी ।
' आं....ss आई नहीं होती तो बात निकलती ही कैसे ? और तुम्हारे अपने
मस्तिष्क में .....क्या मस्तिष्क भी दो तरह के होते हैं मनुष्य के
पास...एक अपना एक पराया ?'
' हाँ, आई होगी पर दूसरों के लिए, अन्य के सन्दर्भ में ।
जब हम अपने लिए सोचें तो अपना स्वयं का मस्तिष्क और अन्य लोगों के सन्दर्भ
में सोचें तो सामाजिक मस्तिष्क कार्य कर रहा होता है । तुम्हारे पास तो
अवश्य ही दो हैं ।' वह हास्य स्मित अधरों से बोलती गयी ।
' वाह ! क्या नयी रिसर्च की है ।' मैंने हंसते हुए सर हिलाकर कहा ।'
'कब तक दूसरों के लिए ही सोचते रहोगे, जीते रहोगे ?'
' हम सदा अपने लिए ही तो जीते हैं। मैं सदा ही तो यह कहता हूँ । अच्छे
बनने के लिए ही तो, कि लोग हमें अच्छा कहें, प्रशंसा करें , हम दूसरों के
कार्य करते हैं । '
'वस्तुतः व्यक्ति की स्वयं अकेले की क्या स्थिति होती है ? हम वह होते हैं
जो अन्य हमें कहते हैं, समझते हैं । हम चाहे लाख तीसमार खां हों,यदि अन्य
नहीं समझते तो हम कुछ भी नहीं हैं । यह व्यवहारगत मूल संसारी तथ्य है ।
वीतरागी की बात पृथक है । परन्तु वीतरागी भी तो वही बन सकता है जिसने पहले
राग को जाना हो तब त्यागा हो ।'
' इसी प्रकार जैसे नारी की पिता, पुत्र, भाई , पति या मित्र के बिना कोई
पहचान नहीं होती। उसका नारीत्व कैसे सफल होगा ? उसी प्रकार पुरुष की भी
स्थिति है। नारी, पत्नी, भगिनी, मां, पुत्री, मित्र के बिना कौन उसके
पुरुषत्व को सराहेगा और क्यों । अतः स्वयं को अच्छा साबित करने के लिए ही
हम दूसरों पर कृपा व उनके कार्य करते हैं ।'
' मैं तुमसे ही तो नहीं जीत पायी, कृष्ण ।'
' तो वैसे तुमने विश्व-विजय कर लिया है, क्या !'
' वह हंसकर रह गयी। फिर बोली, ' अपने आस पास का संसार तो मैंने विजय किया ही है ।'
' बड़ी संसारी होगई हो । तो सांसारिक समता समानता पर अब क्या विचार बने हैं तुम्हारे ?'
वह हँसने लगी, फिर बोली, ' सभी एक समान कैसे हो सकते हैं ? मैं प्रथम
श्रेणी में यात्रा कर रही हूँ, मेरे पास किराया देने को धन है ।क्योंकि
मैंने परिश्रम व साधना की है । वह सड़क पर खड़ी भिखारिन मेरे बराबर कैसे हो
सकती है । वह अपने कर्मों के कारण वहां है, मेरे कारण नहीं । मनुष्य के
कर्म ही यह फैसला करते हैं कि उसे कहाँ होना चाहिए । बस उसे परमार्थ-हित ,
स्वार्थ रहित कर्म करते जाना चाहिए ।'
' क्या यह गर्व नहीं है ?'
' यह आत्मविश्वास है, गर्व नहीं, कृष्ण ! मुझे पता है
तुम जानते हो । और गर्व करूंगी, वो भी केजी के सामने ?' वह जोर से हंसी, '
इसका यह अर्थ भी नहीं कि हम उस भिखारिन से घृणा करें या प्रताड़ित करें ।
यह ईश्वर का काम है, हमारा नहीं । हम चाहें तो उसकी सहायता कर सकते हैं ।'
' और जो लोग अपनी साधना-सिद्धि का दुरुपयोग करके, या अवैध और अनधिकृत ढंग
से कमाई करते हैं उनका क्या इस स्थिति से कोई सम्बन्ध है ?'
' हाँ, अवश्य ही वे उसकी व देश समाज के इस स्थिति के लिए दोषी हैं । तभी
तो भिखारी को एक पैसा दे देना या गरीब की सहायता कर देने वाला भारतीय स्वभाव
यह दर्शाता है कि ऐसे व्यक्तियों के पाप-पूर्ण कार्यों का हम कुछ निराकरण
करके अपने दायित्व की कुछ पूर्ति कर रहे हैं । और यदि जाने अनजाने उस
स्थिति के लिए कहीं हम भी थोड़ा सा जिम्मेदार हों तो उसका प्रायश्चित ।'
' और यदि स्वयं तुमको भी ऐसी परिस्थिति से दो-चार होना पड़े तो ?'
'वह भी मेरे कर्मफल के कारण होगा, कोई गिला-शिकवा नहीं। झेलना चाहिए ।'
' कहना बहुत आसान है', मैंने कहा ।
' हाँ, सचमुच, पर कठिन कार्य आने पर ही तो इंसान निखरता है । वैसे कौन सा अच्छा कार्य सरल होता है ?'
ओह, सुमि ! 'यू आर स्टिल जीनियस ।'
' स्टिल !...'तो क्या मुझे उम्र के साथ कम अक्ल होते जाना चाहिए ? या तुम्हारा मतलब है तुमसे दूर रहकर ..'
" वह दूर भी है पास भी है,
दिल के करीब रहता है ।
जोशो जुनूँ को मेरे ,
कोई तो हवा देता है ।।"
मैंने उसे ध्यान से देखा ।
पच्चीस वर्ष बाद की सुमि; वही तेज तर्रार आत्मविश्वास से युक्त गहरी
आँखें , मर्यादित पहनावा, गरिमामय सौन्दर्य । कनपटी पर झांकते समय की कहानी
कहने को आतुर रुपहले बाल ।
' क्या देख रहे हो ?'
" दिल ढूँढता है फिर वही सुमि वो रात दिन ।
बैठे है तसब्बुर में जवाँ यादें लिए हुए ।।"
' तुम तो वैसे के वैसे हो, योगीराज !'
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निर्धारित कार्यक्रमानुसार
हम लोग चौपाटी, मैरीन ड्राइव आदि घूमते रहे । भेलपूरी चाट आदि के वर्किंग
लंच के बीच पुरानी यादें ताजा करते रहे । केरीयर, परिवार सभी के बारे
में बातें होती रहीं । काव्य-संग्रह के अंश सुनकर पुरानी सुमि लौट आई थी ।
जम कर प्रशंसा व समीक्षा करती रही । बोली -
'कुछ मुझे भी समर्पण करो ।'
' सब तुम्हीं को अर्पण है, अब समर्पण की बात कहाँ ?'
हूँ, सुमि कहने लगी, 'सच कृष्ण, जब भी मैं उदास या
डिप्रेस्सेड होती हूँ तो चुपचाप झूले पर बैठकर कालिज व तुमसे जुडी यादों
में खो जाती हूँ, जो मुझमें पुनः जीवन व नवीनता का संचार करती हैं । सच
है, सुखद, सुहानी यादें बड़े सशक्त टानिक होती हैं । क्या मैं विभक्त
व्यक्तित्व हूँ । तुम तो अपने बारे में कहते ही नहीं ।'
' नहीं, सुमि ! तुम अभक्त, अनंत, परमसुखी व्यक्तित्व हो, और मैं भी ।'
' हर बात का उत्तर है तुम्हारे पास और तुरंत ?' चलो अब कुछ सुना दो ।
हूँ, मैंने कहा, सुनो ----
" प्रियतम प्रिय का मिलना जीवन ,
साँसों का चलना है जीवन ।
मिलना और बिछुड़ना जीवन ,
जीवन हार भी जीत भी जीवन ।।"
सुमि सुनाने लगी ---
"प्यार है शाश्वत कब मरता है,
रोम रोम में रहता है ।
रोम रोम में रहता है ।
अज़र अमर है वह अविनाशी,
मन में रच बस रहता है ।।"
' ये कहाँ से याद किया ?', मैंने पूछा ।
' मैंने तुम्हारी हर पुस्तक खरीदी है ।'
' ओह ! शायद एक अकेली तुम ही खरीदती हो मेरेी पुस्तकें ?’ हम दोनों हंसने लगे ।
’ ये क्या होगया है हमें केजी ? वह सेीरियस होकर बोली, ’ साहित्य में हमें
कोई रूचि ही नहीं रह गयी है । न संस्कृति में न अध्यात्म में ।
सत्साहित्य आज कल पढ़ा ही नहीं जाता । स्कूल व कालिज के बच्चे जादू की,
चोर-उचक्कों की, फंतासी वाले अंग्रेज़ी उपन्यास व पुस्तकें पढ़ने में
व्यस्त है । सामान्य जनता कामर्शियल पेपर, चटपटे नाविल पढ़कर फैंक देने
में लगी है । अंग्रेज़ी नावेल हम लोग भी पढ़ते थे, फ़िल्में भी देखते थे ।
पर साहित्यिक रचनाएँ -शर्त, प्रसाद, टेगोर, प्रेमचंद, गोर्की,
निराला,महादेवी, पन्त , वर्ड्स वर्थ , शेली, कीट्स आदि को भी कितना पढ़ते
थे । सिर्फ एकेडेमिक क्लासेज़ में ही नहीं, मेडीकल के कठिन अध्ययन के साथ
भी ।'
' आज चारों और सभी वर्गों में अंतर्द्वंद्व व असंतुष्टि का यही
तो कारण है कि उत्तम साहित्य के पठन -पाठन का मार्ग अवरुद्ध होगया है।
साहित्य ही तो इतिहास, धर्म व संस्कृति का प्रतिपादन करता है । साहित्य
क्या है ? यों ही नहीं होता काव्य में कोई कथा, कथ्य व तथ्य । मानव जीवन की
कथाओं, ज्ञान-विज्ञान के समन्वित अनुभवों का निचोड़ होता है साहित्य,
उनका इतिहास होता है साहित्य । इतिहास जाने बिना हमें अनुभवजन्य ज्ञान कैसे
प्राप्त हो सकता है ? इसी ज्ञान के न होने से आज का युवा व प्रौढ़ वर्ग
सामाजिक व मानवीय ज्ञान से अछूता रहता है और केवल कार्यात्मक, प्रोफेशनल व
दैनिक व्यवहारिक ज्ञान को ही ज्ञान मानकर सब कुछ ज्ञाता होने का भ्रम पाले रहता है । जीवन का मूल उद्देश्य व दिशा न पाकर अंतर्द्वंद्वों में
घिरा रहता है या पलायनवादी, अति-भौतिकवादी बन जाता है ।' मैंने विस्तार से
कहा । 'परन्तु त्रुटि व भूल कहाँ हुई ?' क्या सारा दोष आज की पीढी
का ही है ?' मैंने शायद स्वयं से ही प्रश्न किया ।'
'भूल हमारी ही है केजी शायद । उन्नति, विकास,
भौतिकता की चकाचौंध व शीघ्रातिशीघ्र फल प्राप्ति की दौड़ में एवं अंधाधुंध
पाश्चात्य नक़ल करके बराबरी की होड़ में, सदियों की दासता के फलस्वरूप अपना
गौरव, अपनी संस्कृति व् इतिहास भूले हुए हम लोग - अपनी स्वयं की अस्मिता,
भारतीय भाव, भाषा व संस्कारों को संभल कर नहीं रख पाए तथा आगे आने वाली
पीढी के अनुकरण व अनुसरण के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करने में असफल रहे ।
जो राष्ट्र व देश एक लम्बी राजनैतिक गुलामी में भी सिद्धांततः अपनी
संस्कृति व धर्म बचाए हुए था ; राजनैतिक स्वतन्त्रता मिलने पर पाश्चात्य
रंग-ढंग व विश्व-राजनीति का शिकार होकर सांस्कृतिक रूप से गुलाम होगया ।
सरकार, समाज व बौद्धिक संसार में सभी में वही भारतवासी हैं तो वही स्थिति
है ।', सुमि ने अपना विचार व्याख्यायित किया ।'
' और यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो दर्पण
में झांके बिना समाज कैसे दिखाई देगा । उत्तरोत्तर विकास केी से सीढी कैसे
बनेगी ? बिना इतिहास व शास्त्र, सत्साहित्य के कोई भेी समाज व राष्ट्र कब
उन्नत हुआ है ?’ सुमि ने पुनःकहा ।
-----क्रमशः अन्क नौ का शेष....अगलेी पोस्ट में.....
5 टिप्पणियां:
बहुत बेहतरीन उपन्यास है.
message representing novel.
my newand next post DEDICATED TO
YOU ALL NARI INCLUDI MY MOTHER
SISTER AND ALL RELATIVIES.
RAJMATA KAIKAIYI
Thanks--दशरथ जी...
धन्यवाद रमाशन्कर जी...
----YOU ALL NARI...write either.. you or all... not both...
rochak v sargarbhit ...aabhar
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