एक बेटी का परम्परा के मुंह पर करारा तमाचा
हमारे समाज में सदियों से वंश चलाने व् अंत्येष्टि संस्कार के नाम पर पुत्रों के जन्म पर हर्ष व् उत्साह प्रदर्शित करने की परम्परा रही है .पुत्र -उत्पत्ति की इच्छा के पीछे हमारे मान्य ग्रंथों में पुत्रों को ही मुक्ति दिलाने वाला ,वंश चलाने वाला के रूप में वर्णित किया जाना एक बड़ा कारण रहा है .''श्रीमदवाल्मीकीय रामायण '' में इस सन्दर्भ में उल्लेख आता है -
''''पुत्र्नाम्नों नरकाद यस्मात पितरं त्रायते सुत
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्त: पितरं म: पाति सर्वतः ''
[श्री मद वाल्मीकीय रामायण ,अयोध्या काण्ड ,सप्ताधिक् शततम: सर्ग:,पृष्ठ -४४७,गीता प्रेस गोरखपुर ]
स्मृतिकारों द्वारा उल्लिखित सोलह संस्कारों में भी ''अंत्येष्टि क्रिया ' पुत्रादि के द्वारा किया जाना विधानित किये जाने से भी कन्या जन्म की तुलना में पुत्र जन्म हर्ष का कारण बन गया .इस एक कारण ने भारतीय समाज की मानसिकता कन्या जन्म विरोधी बना डाली .पिण्ड दान ,मोक्ष,स्वर्ग की भ्रांत धारणाओं ने कन्या -जन्म को एक अभिशाप बना डाला किन्तु 18 अक्टूबर 2011 को एक बेटी ने इस परम्परा के मुंह पर करारा तमाचा लगा डाला .मेरठ के प्रभातनगर निवासी श्री खेमराज की मृत्यु ने जहाँ उसकी दो पुत्रियों व् पत्नी को अन्दर तक तोड़ डाला होगा वहीँ उसकी १५ वर्षीय बेटी 'पूजा 'ने पचास आदमियों के समूह के आगे सिर पर सफ़ेद कपडा बांधकर - आगे-आगे चलकर सारे समाज का ध्यान अपनी और खीचा कि '' देखो एक बेटी भी अपने पिता की अंतिम क्रिया हेतु शमशान घाट तक जा सकती है वहीँ सूरजकुंड शमशान घाट पर अपने पिता को मुखाग्नि देकर ''पुत्री'' शब्द को सार्थक कर दिया '' यदि पुत्र नरक से मुक्ति दिला सकता है तो 'पुत्री' क्यों नहीं ?
इस सब में 'पूजा' का साथ उसके पूरे मोहल्ले ने दिया जो इस और सकारात्मक संकेत है की हमारे पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता में परिवर्तन आ रहा है .पुरुष प्रधान समाज की मजबूत दीवारों को हिला कर रख देने वाली ''पूजा '' जैसी बेटी को मेरा सलाम है .
शिखा कौशिक [विचारों का चबूतरा ]
5 टिप्पणियां:
पिछले ५ सालों में बेटियों ने बहुत परंपरा को तोडा है..सुन्दर पोस्ट.
हाँ अब ऐसा होने लगा है।
सुन्दर प्रस्तुति |
शुभ-दीपावली ||
इस घटना का यही अर्थ निकलता है कि ..बृहद रूप- भाव में समाज इस परम्परा के विरुद्ध नहीं है ( शायद नहीं था भी) कुछ स्वार्थी प्रवृत्ति के लोगों , दबंग- माफिया टाइप के लोगों ने ही कु-परम्पराएं बनालीं थीं |
मैंने भी कुछ मामले देखे हैं जिसमें बेटी अपने पिता को या फिर कोई बहन अपने भाई की चिता को अग्नि देती है।
पुरूष प्रधान समाज में महिलाएं ऐसा कर पाती हैं... पुरानी परंपरा को तोडती हैं तो उन महिलाओं के प्रति मन में सम्मान आ जाता है।
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