दुश्मन न बनो अपने ,ये बात जान लो ,
कुदरत को खेल खुद से ,न बर्दाश्त जान लो .
चादर से बाहर अपने ,न पैर पसारो,
बिगड़ी जो इसकी सूरत ,देगी घात जान लो .
निशदिन ये पेड़ काट ,बनाते इमारते ,
सीमा सहन की तोड़ ,रौंदेगी गात जान लो .
शहंशाह बन पा रहे ,जो आज चांदनी ,
करके ख़तम हवस को ,देगी रात जान लो .
जो बोओगे काटोगे वही कहती ''शालिनी ''
कुदरत अगर ये बिगड़ी ,मिले मौत जान लो .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
5 टिप्पणियां:
अच्छी रचना, बहुत सुंदर
पर्यावरण के संदर्भ में
रचना के माध्यम से सार्थक बात कही है
बहुत खूब
आग्रह है
गुलमोहर------
सराहनीय -सुन्दर पोस्ट हेतु आभार . हम हिंदी चिट्ठाकार हैं.
BHARTIY NARI .
आप इतना सुंदर रचनाकार हैं , पता ही न था !
:(
बधाई और मंगल कामनाएं आपको !
सामयिक रचना बधाई जी
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