शनिवार, 6 सितंबर 2025

जिठानी-देवरानी अलग परिवार -इलाहाबाद हाई कोर्ट

  


इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा हाल ही में बरेली के जिला कार्यक्रम अधिकारी द्वारा आंगनवाड़ी कार्यकर्ता की नियुक्ति को रद्द किये जाने को रद्द कर दिया गया, जिसमें कहा गया था कि 

"एक भाभी (जेठानी) को सरकारी आदेश के तहत 'एक ही परिवार' का हिस्सा तब माना जाता है, ज़ब दोनों भाई एक ही घर और रसोई में साथ रहते हैं।"

जस्टिस अजीत कुमार की पीठ ने कुमारी सोनम की याचिका को स्वीकार करते हुए यह फैसला सुनाया, जिनकी नियुक्ति 13 जून, 2025 को बरेली के जिला कार्यक्रम अधिकारी ने रद्द कर दी थी। रद्द करने का आधार यह था कि उसकी जेठानी पहले से ही उसी केंद्र में आंगनवाड़ी सहायक के रूप में सेवा कर रही थी।

जबकि याचिकाकर्ता का तर्क यह था कि उसकी जेठानी (भाभी) एक अलग घर नंबर के साथ एक अलग घर में रहती है और इसलिए, वह उसके पति के परिवार की परिभाषा में नहीं आती है, भले ही वह उसके ससुर के परिवार से संबंधित हो। याचिकाकर्ता के वकील ने संबंधित परिवार रजिस्टर दस्तावेज को भी इंगित किया, जिससे पता चलता था कि उसकी जेठानी वास्तव में अलग रहती थी। संदर्भ के लिए, 21 मई, 2023 को सरकारी आदेश के तहत खंड 12 (iv) के तहत बनाए गए बार के संबंध में तर्क दिया गया था, यह प्रावधान है कि एक ही परिवार की दो महिलाओं को एक ही केंद्र में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और आंगनबाड़ी सहायक के रूप में नियुक्त नहीं किया जाएगा.

इसके अलावा, याचिकाकर्ता के वकील ने सरकारी विभाग में परिवार के आश्रितों को चिकित्सा सहायता के उद्देश्य से चिकित्सा विभाग में सरकारी कर्मचारी के लिए प्रदान किए गए परिवार की परिभाषा के साथ-साथ आदेश XXXII-A, नियम 6 के तहत दी गई परिवार की परिभाषा का उल्लेख किया कि कल्पना के किसी भी खिंचाव से भाभी (जेठानी) को चयन के प्रयोजनों के लिए परिवार की परिभाषा के भीतर नहीं माना जा सकता है और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के पद पर नियुक्ति।

इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, शुरुआत में, न्यायालय ने आदेश को इस आधार पर अस्थिर पाया कि यह याचिकाकर्ता को कोई नोटिस या सुनवाई का अवसर दिए बिना पारित किया गया था, इसके बावजूद प्रतिकूल नागरिक परिणाम हुए। इसके अलावा, जीओ के खंड 12 (iv) की ओर मुड़ते हुए, न्यायालय ने इस प्रकार धारण करने के लिए 'एक ही परिवार' के अर्थ की जांच की: 

"बहू (जेठानी) परिवार की सदस्य नहीं बनेगी और बहू (जेठानी) को परिवार का सदस्य माना जा सकता है, बशर्ते दोनों भाई एक साथ रसोई और घर में रह रहे हों।"

➡️ भारतीय परम्परा के अनुसार "परिवार"-

परिवार वह व्यक्तियों का समूह है जो जन्म, विवाह या गोद लेने से आपस में जुड़े होते हैं और जो एक ही घर में रहते हैं। इसमें पति, पत्नी, बच्चे, और कई बार दादा-दादी, चाचा-चाची जैसे करीबी रक्त संबंधी शामिल हो सकते हैं। परिवार समाज की सबसे बुनियादी इकाई है जो भावनात्मक संबंध और एक आर्थिक इकाई के रूप में काम करती है, जिससे सदस्यों को सामाजिक, भावनात्मक और आर्थिक सहारा मिलता है। 

🌑 परिवार के प्रकार:

✒️ एकल परिवार (Nuclear Family):

इसमें माता-पिता और उनके अविवाहित बच्चे शामिल होते हैं। 

✒️ संयुक्त परिवार (Joint Family):

इस बड़े परिवार में पति-पत्नी, बच्चे, दादा-दादी, चाचा-चाची, और उनके बच्चे, जैसे कई पीढ़ी के सदस्य एक साथ रहते हैं। 

✒️ उदाहरण:

एकल परिवार: एक पति, पत्नी और उनके बच्चे। 

संयुक्त परिवार: दादा-दादी, माता-पिता, उनके बच्चे और उनके भाई-बहन सभी एक ही घर में रहते हैं।,

अब क्योंकि वर्तमान पारिवारिक व्यवस्था और कानूनी दृष्टिकोण के अनुसार परिवार में पति पत्नी और बच्चे ही आते हैँ, ऐसे में उपरोक्त मामले में अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि यह नहीं कहा जा सकता है कि 

"भाभी (जेठानी) और याचिकाकर्ता दोनों एक ही परिवार की महिलाएं थीं। इसलिए, आक्षेपित आदेश को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन के आधार पर और मेरिट के आधार पर भी अस्थिर कर दिया गया था। नतीजतन, रिट याचिका की अनुमति दी गई, और आक्षेपित आदेश को रद्द कर दिया गया। जिला कार्यक्रम अधिकारी को निर्देश दिया गया कि याचिकाकर्ता को उसके कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप में बहाल किया जाए।"

    इस प्रकार यहाँ इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पति पत्नी और बच्चे को ही एक परिवार मानते हुए जेठानी को देवरानी के परिवार से अलग माना और देवरानी को आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के पद पर वापस बहाल करने के आदेश जारी किये.

आभार 🙏👇



द्वारा 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

बुधवार, 3 सितंबर 2025

महिला आयोग गंभीर महिला सुरक्षा को लेकर

  


( ई रिक्शाओं पर महिला आयोग गंभीर )

उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग महिलाओं के साथ ई-रिक्शा में हो रही छेड़छाड़ की घटनाओं को लेकर गंभीर है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पूर्व में जारी किये गए निर्देशों को अमल में लाने की कार्यवाही करते हुए महिला आयोग ने भी निर्देश दिया है कि अब हर ई-रिक्शा पर चालक का नाम और मोबाइल नंबर स्पष्ट रूप से लिखा होना चाहिए.

➡️ उत्तर प्रदेश महिला आयोग की अध्यक्ष-

उत्तर प्रदेश राज्य महिला आयोग की वर्तमान अध्यक्षा डॉ. बबीता सिंह चौहान हैं, जिनकी नियुक्ति सितंबर 2024 में की गई थी. उन्होंने इस पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद से प्रदेश में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर काम किया है और कई जिलों का दौरा भी किया है, जिसमें उन्होंने जेलों का निरीक्षण किया और अस्पतालों में बेबी किट बांटी.

➡️ महिला आयोग की महत्वपूर्ण बैठक-

महिला आयोग की अध्यक्ष डॉ बबीता सिंह चौहान ने बाराबंकी में अफसरों के साथ एक महत्वपूर्ण बैठक की और यह निर्णय लिया. उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी महिलाओं की सुरक्षा को लेकर गंभीर हैं. बैठक में आयोग ने महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कई अहम बिंदुओं पर चर्चा की.इसके साथ ही आयोग ने हेल्पलाइन 1090 और 181 की कार्यप्रणाली की समीक्षा कराने का आश्वासन दिया, ताकि पीड़ित महिलाओं को तुरंत सहायता मिल सके.

➡️ हेल्पलाइन नंबर 1090 --

विमेन पावर लाइन ( Women Power Line) उत्तर प्रदेश पुलिस का एक अभियान है जो यौन उत्पीड़न, और इसकी जड़ों में समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता की गलतफहमी के विरोध पर केंद्रित है। यह महिलाओं की सुरक्षा के लिए काम करने वाला सरकारी कॉल सेंटर है । यह 24x7 काम करता है। महिलाओं की सुरक्षा हेतु वीमेन पावर लाइन 1090 की स्थापना की गयी है । इस काल सेण्टर में 1090 नम्बर पर प्रदेश के किसी भी कोने से महिलायें / लड़कियां किसी भी वक्त काल करके अपने साथ होने वाली छेड़खानी की घटनाओं की शिकायत कर सकती हैं। जहां पीड़िता की पहचान गोपनीय रखी जाती है ।

➡️ हेल्पलाइन नम्बर 181--

 181 महिला हेल्पलाइन का उद्देश्य हिंसा से प्रभावित महिलाओं को 24 घंटे सहायता और आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रदान करना है। यह हेल्पलाइन एक ही नंबर के माध्यम से देश भर में महिलाओं से संबंधित सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की जानकारी भी प्रदान करती है। 181 हेल्प लाइन नंबर 24 घंटे चालू रहेगा। आपात स्थिति में इस नंबर पर डायल कर महिलाएं कानूनी मदद ले सकेंगी। 181 हेल्पलाइन नंबर की खासियत यह होगी कि शिकायत दर्ज कराने वाले का नाम गोपनीय रखा जाएगा।

➡️ महिला आयोग की अध्यक्ष के निर्देश--

महिला आयोग की अध्यक्ष द्वारा उत्तर प्रदेश के सभी थानों में महिला डेस्क को और मजबूत करने के निर्देश भी जारी किये गए हैं. महिलाओं की सुरक्षा के दृढ निश्चय के साथ महिला आयोग के इन कदमों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि महिलाएं बिना किसी डर के अपनी शिकायत दर्ज करा सकें और उन्हें त्वरित न्याय मिले.

➡️ ई रिक्शा पर पूर्व अभियान- 

 पूर्व में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी के निर्देश पर उत्तर प्रदेश ट्रैफिक पुलिस ने ऑटो टेंपो और ई रिक्शा में ड्राइवर का नाम उसका मोबाइल नंबर मालिक का नाम समेत अन्य जानकारियां शीशे पर आगे लिखने का एक अभियान चलाया था. जिसमें शुरू शुरू में कई गाड़ियों पर इसका पालन भी हुआ, हालांकि बीच में फिर शिथिलता बरती गई है जिससे बाद में ई रिक्शाओं पर इस निर्देश का कहीं कोई असर नहीं दिखाई दिया.

➡️ अब ई रिक्शाओं को मानना होगा निर्देश- 

अब महिला आयोग की अध्यक्ष का इस मुद्दे को लेकर गंभीर होने पर इस मामले में तेजी देखने को मिल सकती है जिससे आने वाले दिनों में तमाम ई रिक्शा और ऑटो रिक्शा के शीशे पर उनके ड्राइवर का नाम मोबाइल नंबर समेत अन्य जानकारियां सार्वजनिक तौर पर लिखी जाने की आशा की जा सकती है.

      उत्तर प्रदेश महिला आयोग द्वारा महिला सुरक्षा के लिए ई रिक्शाओं पर इस नियम का कड़ाई से लागू किये जाने का यह फैसला अति सराहनीय कहा जायेगा क्योंकि ई रिक्शाएं आज परिवहन का मुख्य साधन बन चुकी हैं और महिलाओं के द्वारा यातायात-परिवहन का सुगम साधन होने के कारण बहुतायत में इस्तेमाल की जा रही हैँ और जहाँ तक इनके चालक की या वाहन की पहचान की बात है उसका कोई साधन ई रिक्शा में नजर नहीं आता और क्योंकि योगी सरकार के निर्देश ई रिक्शाओं पर नाकाफी दिखाई दिए हैँ ऐसे में महिला सुरक्षा के लिए महिला आयोग की गंभीरता अनिवार्य और सराहनीय कदम है.

द्वारा

शालिनी कौशिक

एडवोकेट

कैराना ( शामली )


बुधवार, 20 अगस्त 2025

16 साल की मुस्लिम लड़की को वैध विवाह का अधिकार -सुप्रीम कोर्ट

 


(Shalini kaushik law classes)

सुप्रीम कोर्ट जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने मंगलवार (19 अगस्त) को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका को ख़ारिज कर दिया गया। याचिका द्वारा पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के 2022 के उस फैसले को चुनौती दी गई थी जिसमें कहा गया था कि 16 साल की मुस्लिम लड़की किसी मुस्लिम पुरुष से वैध विवाह कर सकती है और दंपति को धमकियों से सुरक्षा प्रदान की गई थी। 

     जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने निर्णय में कहा कि 

 "राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) इस मुकदमे से अनजान है और उसे हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है।"

खंडपीठ ने पूछा कि-

"राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को धमकियों का सामना कर रहे दंपति के जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करने वाले हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती क्यों देनी चाहिए?" 

खंडपीठ ने कहा,

 "NCPCR के पास ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है... अगर दो नाबालिग बच्चों को हाईकोर्ट द्वारा संरक्षण प्राप्त है तो NCPCR ऐसे आदेश को कैसे चुनौती दे सकता है... यह अजीब है कि NCPCR, जो बच्चों की सुरक्षा के लिए है, उसने ऐसे आदेश को चुनौती दी।"

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के वकील ने दलील दी कि

 "वे कानून का सवाल उठा रहे थे कि क्या 18 साल से कम उम्र की लड़की को सिर्फ़ पर्सनल लॉ के आधार पर कानूनी तौर पर शादी करने की योग्यता रखने वाला माना जा सकता है?"

जिस पर सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ की जस्टिस नागरत्ना ने कहा,

 "कानून का कोई सवाल ही नहीं उठता, कृपया आप किसी उचित मामले में चुनौती दें।" 

याचिका खारिज करते हुए खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा: 

"हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि NCPCR ऐसे आदेश से कैसे व्यथित हो सकता है। अगर हाईकोर्ट, अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए दो व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करना चाहता है तो NCPCR के पास ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है। याचिका खारिज की जाती है।"

खंडपीठ ने कहा-

"ऐसे मामलों को आपराधिक मामलों की तरह न देखें। हमें आपराधिक मामलों और इस मामले में अंतर करना होगा।"

 जस्टिस नागरत्ना ने आगे कहा, 

"देखिए, अगर लड़की किसी लड़के से प्यार करती है और उसे जेल भेज दिया जाता है तो उस लड़की को कितनी पीड़ा होती है, क्योंकि उसके माता-पिता भागने को छिपाने के लिए POCSO का मामला दर्ज करा देते हैं।" 

Case Details : 

NATIONAL COMMISSION FOR PROTECTION OF CHILD RIGHTS (NCPCR) Versus GULAAM DEEN AND ORS.| SLP(Crl) No. 10036/2022, NCPCR vs JAVED AND ORS Diary No. 35376-2022, NCPCR vs FIJA AND ORS SLP(Crl) No. 1934/2023

आभार 🙏👇


प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

सोमवार, 11 अगस्त 2025

पत्नी की परिभाषा दस्तावेज से बड़ी -इलाहाबाद हाईकोर्ट

 

shalini kaushik law classes)

इलाहाबाद हाई कोर्ट का मानना है कि जो पुरुष और महिला एक लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे हैं तो पत्नी का भरण-पोषण का हक बनता है। इसलिए भरण-पोषण के लिए विवाह को साबित करना जरूरी नहीं है।

भरण पोषण के एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि 

" भरण-पोषण के मामले में पत्नी की परिभाषा दस्तावेज से बड़ी है। पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे हैं तो भरण-पोषण का हक बनता है। लिहाजा, भरण-पोषण के लिए विवाह को साबित करना जरूरी नहीं है। कानून का मकसद न्याय है न कि ऐसे रिश्तों को नकारना जो समाज में पति-पत्नी की तरह माने जाते है।"

इस टिप्पणी के साथ न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की अदालत ने देवरिया निवासी याची की पुनरीक्षण याचिका स्वीकार कर ली। कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय का आदेश रद्द कर नए सिरे से मामले की सुनवाई करने के लिए वापस भेज दिया। साथ ही कांस्टेबल पति को मामले के निस्तारण होने तक याची को 8,000 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण देने का आदेश दिया है।

मामले में याची ने 2017 में पति के निधन के बाद कांस्टेबल देवर संग शादी होने का दावा किया । देवरिया के पारिवारिक न्यायालय में याची ने आरोप लगाया कि हिंदू रीति से विवाह होने के बाद देवर (पति ) दहेज की मांग करने लगा और दहेज़ न मिलने पर दूसरी शादी रचाकर याची व याची के बच्चों को घर से निकाल दिया। वहीं, विपक्षी ने शादी होने से इन्कार कर दिया। 

इस पर पारिवारिक न्यायालय ने याची की भरण-पाेषण की मांग यह कहते हुए खारिज कर दी कि वह वैध शादी के प्रमाण नहीं दे सकी। लिहाजा, वह विपक्षी की पत्नी नहीं है। इसके खिलाफ याची ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 

      याची के अधिवक्ता ने आधार कार्ड, बैंक रिकॉर्ड और गवाहों के बयान पेश कर दलील दी कि दोनों लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह रहे हैं और पहले पति की मृत्यु के बाद दूसरी शादी वैध है। याची का दूसरा पति यूपी पुलिस में कांस्टेबल है, वेतन के अलावा खेती से भी उसकी आमदनी है जबकि याची बेसहारा है। लिहाजा, वह भरण-पोषण की हकदार है। 

     विपक्षी के अधिवक्ता ने दलील दी कि विपक्षी कभी शादीशुदा नहीं था, बच्चे भाई की संतान हैं और याची पैतृक संपत्ति से पहले ही लाभ ले रही है। 

इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की एकल पीठ ने पारिवारिक न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और निर्णय देते हुए कहा कि अदालत ने विवाह का प्रमाण न होने के तकनीकी आधार पर अर्जी खारिज कर कानूनी व तथ्यात्मक गलती की है।

आभार 🙏👇


प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

सोमवार, 21 जुलाई 2025

पिता की मृत्यु के बाद मां ही बच्चे की प्राकृतिक अभिभावक-बॉम्बे हाई कोर्ट

  


एक मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा-

" हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के तहत वैधानिक योजना, यह प्रदान करती है कि मां पिता के बाद प्राकृतिक अभिभावक बन जाती है, और कानून उसे प्राथमिकता देता है जब तक कि यह साबित न हो जाए कि वह अयोग्य है"

न्यायालय ने आगे कहा-

 "धारा 6 (a) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अविवाहित लड़की के मामले में, पिता और उसके बाद, मां नाबालिग की प्राकृतिक अभिभावक है , कानूनी रूप से बोलते हुए, नाबालिग लड़की को मां की हिरासत में दिया जाना चाहिए जब तक कि यह स्थापित न हो जाए कि उसके पास नाबालिग के कल्याण को सुरक्षित करने के लिए प्रतिकूल हित या अक्षमता है।"

न्यायालय ने कहा कि 

" नाबालिग का कल्याण सर्वोच्च विचार है, हालांकि विशेष विधियों के प्रावधान माता-पिता या अभिभावकों के अधिकारों को नियंत्रित करते हैं। "

 न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि

" केवल इसलिए कि दादा-दादी ने कुछ वर्षों तक बच्चे का पालन-पोषण किया था, उन्हें प्राकृतिक अभिभावक पर बेहतर अधिकार नहीं देता है। यह देखा गया है कि केवल इसलिए कि दादा-दादी या अन्य रिश्तेदारों ने कुछ अवधि के लिए बच्चे का पालन-पोषण किया था, प्राकृतिक अभिभावक को बच्चे की कस्टडी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता है कि नाबालिग का कल्याण खतरे में पड़ जाएगा।"

अदालत ने कहा कि

" मां अब व्यवसाय में लगी हुई है और उसके पास अपना और अपने बच्चे का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त कमाई है। "

   किन्तु बच्ची और उसके दादा-दादी के बीच भावनात्मक बंधन को पहचानते हुए, अदालत ने याचिकाकर्ता को जिला न्यायाधीश के समक्ष सप्ताहांत और त्योहारों और छुट्टियों के दौरान नियमित पहुंच की अनुमति देने के लिए एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया। तदनुसार, याचिका की अनुमति दी गई, और मां को बेटी की अंतरिम कस्टडी दी गई।

आभार 🙏👇



प्रस्तुति

शालिनी कौशिक

एडवोकेट

कैराना (शामली)


शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के समान दिया उत्तराधिकार का अधिकार,

 


 अपने हाल ही के एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के समान उत्तराधिकार के अधिकार प्रदान करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य के उत्तराधिकार से संबंधित विवाद में आदिवासी परिवार की महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा -

"कि महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासी महिलाएं स्वतः ही उत्तराधिकार से वंचित हो जाती हैं। न्यायालय ने आगे कहा कि यह देखा जाना चाहिए कि क्या कोई प्रचलित प्रथा मौजूद है, जो पैतृक संपत्ति में महिला आदिवासी हिस्सेदारी के अधिकार को प्रतिबंधित करती है।"

       प्रस्तुत मामले में पक्षकार ऐसी किसी प्रथा का अस्तित्व स्थापित नहीं कर सके, जिसमें महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित किया गया हो। न्यायालय ने कहा,

 " रीति-रिवाज भी समय के बंधन में नहीं रह सकते। दूसरों को रीति-रिवाजों की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।" न्यायालय ने कहा कि लिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। केवल पुरुष उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार देने का कोई औचित्य नहीं है।"

न्यायालय ने आगे कहा 

" कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी विशिष्ट आदिवासी रीति-रिवाज या संहिताबद्ध कानून के अभाव में न्यायालयों को "न्याय, समता और सद्विवेक" का प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा "महिला (या उसके) उत्तराधिकारी को संपत्ति में अधिकार से वंचित करना केवल लैंगिक विभाजन और भेदभाव को बढ़ाता है, जिसे कानून को समाप्त करना चाहिए।" 

➡️ मौजूदा मामले में विवाद-

      प्रस्तुत मामले में अपीलकर्ता धैया एक अनुसूचित जनजाति की महिला थी जिसके कानूनी उत्तराधिकारी होने के नाते उसके परिजन धैय्या के नाना की संपत्ति में हिस्सा मांग रहे हैं। जिस दावे का परिवार के पुरुष उत्तराधिकारियों द्वारा विरोध किया गया और कहा गया कि आदिवासी रीति-रिवाजों के तहत महिलाओं को उत्तराधिकार से बाहर रखा गया है.अधीनस्थ अदालत, प्रथम अपीलीय जिला अदालत और हाईकोर्ट तीनों ने अपीलकर्ताओं के दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि चूंकि अपीलकर्ता महिला उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने में विफल रहे, इसलिए आदिवासी महिला हिस्से की हकदार नहीं है। 

➡️ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई-

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई की,समवर्ती निष्कर्षों को दरकिनार करते हुए जस्टिस करोल द्वारा लिखित निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि 

" किसी भी निषेधात्मक प्रथा के अभाव में समानता कायम रहनी चाहिए। किसी आदिवासी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को केवल लिंग के आधार पर संपत्ति में हिस्सेदारी से वंचित करना असंवैधानिक है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि निचली अदालत ने अपीलकर्ताओं से महिलाओं द्वारा उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने की अपेक्षा करने में गलती की, बजाय इसके कि विरोधी पक्ष को ऐसी उत्तराधिकार पर रोक साबित करने की आवश्यकता हो।"

न्यायालय ने कहा,

 “वर्तमान मामले में यदि निचली अदालत के विचार मान्य होते हैं तो किसी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को इस प्रथा में ऐसी विरासत के सकारात्मक दावे के अभाव के आधार पर संपत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। हालांकि, प्रथाएं भी कानून की तरह समय के बंधन में नहीं रह सकतीं। दूसरों को प्रथाओं की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।” 

न्यायालय ने आगे टिप्पणी की,

यह सच है कि अपीलकर्ता-वादी द्वारा महिला उत्तराधिकार की ऐसी कोई प्रथा स्थापित नहीं की जा सकी, लेकिन फिर भी यह भी उतना ही सत्य है कि इसके विपरीत कोई प्रथा भी ज़रा भी सिद्ध नहीं की जा सकी, और न ही उसे सिद्ध किया जा सका। ऐसी स्थिति में धैया (आदिवासी महिला) को उसके पिता की संपत्ति में उसके हिस्से से वंचित करना, जब प्रथा मौन हो, उसके अपने भाइयों या उसके कानूनी उत्तराधिकारियों के अपने चचेरे भाई के साथ समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा।” निषेधात्मक प्रथा के अभाव में महिला आदिवासी को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है। 

अदालत ने कहा, 

"ऐसा प्रतीत होता है कि केवल पुरुषों को ही अपने पूर्वजों की संपत्ति पर उत्तराधिकार प्रदान किया गया है और महिलाओं को नहीं किया गया है, उसके लिए कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं है, खासकर उस स्थिति में जब कानून के अनुसार इस तरह का कोई निषेध प्रचलित नहीं दिखाया जा सकता। अनुच्छेद 15(1) में कहा गया कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। यह अनुच्छेद 38 और 46 के साथ संविधान के सामूहिक लोकाचार की ओर इशारा करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं के साथ कोई भेदभाव न हो।" 

 इस प्रकार अदालत ने अपील को स्वीकार करते हुए धैया के कानूनी उत्तराधिकारी अपीलकर्ताओं को संपत्ति में समान हिस्सा प्रदान किया। 

Case Title: 

RAM CHARAN & ORS. VERSUS SUKHRAM & ORS.

आभार 🙏👇



प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

खेती की जमीन और बेटी

 


बेटियों के अधिकारों लिए आरम्भ से लेकर आज तक बहुत से संघर्ष किये गए और बहुत से फैसले लिए गए. उन सभी को देखते हुए 2005 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में जो बदलाव का निर्णय देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया उसे मील का पत्थर, यदि कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

     माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया गया। जिसके अंतर्गत बेटियों को पिता की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा देने का प्रावधान किया गया। इससे पहले बेटियों को शादी के बाद पिता की सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं होता था. किन्तु अब बेटी को विवाह के बाद भी बेटे जितना हक सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रदान कर दिया गया है.

➡️ अब खेती पर भी बेटियों का अधिकार-

 खेती की जमीन पर बेटियों का कोई अधिकार नहीं होता था. भारत के कई राज्यों में खेती की जमीन में बेटियों को अधिकार नहीं दिया जाता था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2020 और फिर 2024 में बेटियों को खेती की जमीन में भी बेटों के बराबर हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार दे दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को भी इस भेदभाव को खत्म करने का निर्देश जारी किया है.

➡️ विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2020) केस में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला-

विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के तहत बेटियों के सहदायिक अधिकारों से संबंधित एक ऐतिहासिक मामला था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संशोधन से पहले या बाद में जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक (coparcener) होंगी. 

यह मामला 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम की व्याख्या से संबंधित था, जो बेटियों को बेटों के समान सहदायिक अधिकार देता है. विशेष रूप से, यह सवाल था कि क्या संशोधन से पहले जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक अधिकार प्राप्त कर सकती हैं. 

सर्वोच्च न्यायालय ने 11 अगस्त, 2020 को फैसला सुनाया कि संशोधन पूर्वव्यापी रूप से लागू होगा, जिसका अर्थ है कि यह 1956 में अधिनियम के लागू होने की तारीख से लागू होगा. इसका मतलब है कि संशोधन से पहले या बाद में जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक अधिकार प्राप्त करेंगी. 

इस फैसले का हिंदू परिवारों में लैंगिक समानता और संपत्ति के अधिकारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है. 

✒️ विनीता शर्मा केस का पूर्वव्यापी प्रभाव:-

🌑 2005 का संशोधन पूर्वव्यापी रूप से लागू होगा. 

🌑 बेटियों को सहदायिक अधिकार:

🌑 संशोधन के बाद, बेटियां बेटों के समान सहदायिक होंगी. 

🌑 समान अधिकार:

बेटियों को बेटों के समान संपत्ति पर अधिकार प्राप्त होंगे. 

इस फैसले ने हिंदू कानून में लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है. 2020 में विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि बेटियों को पैतृक संपत्ति में जन्म से ही बराबर का हक मिलेगा, भले ही पिता की मृत्यु 2005 से पहले हुई हो या बाद में। इस फैसले ने बेटियों के अधिकार को और मजबूत किया.यह मामला भारत के कानूनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, क्योंकि इसने हिंदू कानून में लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है. 

( बेटियों को अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए कानूनी रूप से क्या कदम उठाने होंगे, ये जानने के लिए जुड़े रहिये कानूनी ज्ञान ब्लॉग से और यदि और कोई भी कोई समस्या या जिज्ञासा हो तो ब्लॉग के कमेंट सेक्शन में जाकर टिप्पणी करें ) 

धन्यवाद 🙏🙏

द्वारा 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )