दिन रविवार,
सब कुछ शांत, सन्नाटे सांय सांय कर रहे हैं,
घर के किसी कोने में हवा रुकी हुई है,
लम्बी लम्बी सांसे भरती हुई,
किताबें बिखरी पड़ी हैं,
कॉफ़ी का मग बिस्तर के एक कोने पे पड़ा,
न जाने क्या बडबडा रहा है,
और तुम्हारी तस्वीर दीवार पर लटकी हुई,
तुम्हारे होने का अनगढ़ सा एहसास जगाती हुई,
कुछ कहना चाहती है, और मैं अधमुंदी आँखों से टालता हूँ,
जानता हूँ तुम नहीं हो,
कुछ नहीं होने वाला मेरा,
मैं आज़ाद हूँ,
तुम्हारी यादों के बंद पिंजरे में।
- नीरज
1 टिप्पणी:
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