गुरुवार, 15 नवंबर 2012

अन्त्याक्षरी --लघु कथा ...डा श्याम गुप्त ..


                                      ईशान कोण से चली हवा,
                                      निकला सूरज का गोला |
                                      छिपा चाँद और गयी रात्रि,
                                      वन में इक पांखी बोला|               
                                   

               "यह तो कोई कविता नहीं है !"   अन्त्याक्षरी के दौर में मैंने जब यह कवितांश सुनाया तो मकान मालिक का पुत्र सतीश बोला | 
              क्यों ? यह द्विवेदी जी द्वारा किया गया प्रात: वर्णन है | तुम्हें याद नहीं तो हम क्या करें, मैंने कहा |...  'ल'  पर हुआ, 'ल' पर बोलो, जल्दी; चालाकी से अधिक समय मत लो |  मेरी तरफ  के  सदस्य चिल्लाए |
              स्मृतियों का खाता खुलने लगता है |  बचपन में छत पर समय मिलते ही बच्चों  की मंडली जुड़ने पर, अन्त्याक्षरी का खेल तो एक आवश्यक पास्ट-टाइम था किशोरों का |  मोहल्ले के आसपास के बच्चों की छत पर एकत्रित होकर दो टोलियाँ बनाकर, कविता, छंद, दोहा, गीत आदि के गायन की प्रतियोगिता होती थी यह |  कड़ी शर्त यह होती थी की कविता, दोहा या कोई भी छंद-गीत आदि का कम से कम एक पूरा बंद होना चाहिए, आधा-अधूरा नहीं; जो मूलतः  रामायण या प्रसिद्द कवियों की कृतियों से होते थे |  यह वास्तव में काव्य, साहित्य द्वारा सदाचरण-संस्कृति के पुरा मौखिक ज्ञान के सहज रूप को जीवित रखने का ही एक उपक्रम था जो खेल-खेल में ही तमाम आचार-व्यवहार-सत्संग, सदाचरण  सम्प्रेषण के पाठ भी हुआ करते थे | आज की तरह फ़िल्मी गानों के टुकड़ों का भोंडा प्रदर्शन नहीं |
                      अगला पन्ना खुलता है ....सामने की छत से अचानक मीरा की आवाज आई,"  मुझे पता है, किस कवि की कविता  है| सुन्दर है|"...फिर मेरी तरफ देखकर अपनी तर्जनी उंगली चक्र-सुदर्शन की मुद्रा में उठाकर सर हिलाते हुए चुपचाप बोली, " चालाकी, इतनी सफाई से ! "... मैंने उसे आँख तरेर कर उंगली मुंह पर रखकर चुप रहने का इशारा किया |
                मीरा मेरी बहन की क्लास-फेलो थी |   मेरी कवितायें मेरे छोटे भाई-बहनों की स्कूल-पत्रिकाओं में उनके नाम से छपा करती थीं | एक बार उसके कहने पर उसके ऊपर भी तत्काल कविता बनाई थी--
                            " दरवाज़े के पार पहुंचकर ,
                                  पीछे मुड़कर मुस्काती हो |
                                       सचमुच की मीरा लगती हो,
                                            वीणा पर जब तुम गाती हो |"   

                 अतः उसे मेरे इस  काव्य व आशु-कविता हुनर का ज्ञान था |  वह सामने वाले गली के पार वाले मकान में रहती थी |  गली  इस स्थान पर अत्यंत संकरी होजाने के कारण दोनों घरों की छतों की मुंडेरें काफी समीप थीं |  घने बसे शहरों में प्रायः घरों की छतें, बालकनियाँ आदि आमने-सामने व काफी नज़दीक होती हैं  और सुबह, शाम, दोपहर महिलाओं, बच्चों, किशोर-किशोरियों, सहेलियों, दोस्तों की आर-पार बातें व चर्चाएँ खूब चलतीं हैं | साथ ही में किशोरों-युवाओं की कनखियों से नयन-वार्ताएं, संकेत व कभी कभी प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान की  भी सुविधा मिल जाती है |
             स्मृति-पत्र आगे खुलता है......अच्छा चलो ठीक है .....सामने की टोली हथियार डाल देती है | सतीश की टोली की तेज-तर्रार सदस्या सरोज 'ल' पर सुनाने लगती है---
                         " लाल देह,  लाली लसे और धर  लाल लंगूर |
                           बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि शूर |"      

शूर ...'र' पर ख़त्म हुआ...'र ' से....|  
                         यह तो होचुका है |  मेरी तरफ की टोली के जगदीश ने तुरंत फरमान जारी किया |....जगदीश की स्मृति बहुत  तीव्र थी और याददास्त के मामले में वह कालोनी में अब्वल था |  सरोज के झेंप जाने पर हम सब हँसने लगे | ..... नया बोलो...नया बोलो ...या हारो.... के शोर के बीच  रमेश ने नया कवितांश सुनाया |
                               मैं सोचता हूँ आजकल भी अंग्रेज़ी का ज्ञान बढाने के लिए ..शब्द-काव्य  रूपी अन्त्याक्षरी  होती है, जिसका अभिप्राय: सिर्फ अंग्रेज़ी का तकनीकी ज्ञान बढ़ाना, शब्द-सामर्थ्य बढाने की एक्सरसाइज ही हो पाता है ; आचरण, शुचिता, आचार-व्यवहार , संस्कृति, ज्ञान का सहज सम्प्रेषण नहीं |  वस्तुतः  स्व-साहित्य, स्व-भाषा-साहित्य, स्व-संस्कृति-साहित्य- इतिहास,  अपने सामाजिक व पारिवारिक उठने-बैठने के, खेलने के तौर-तरीके निश्चय ही भावी- पीढी के मन में,  सोच में, एक सांस्कृतिक व वैचारिक तारतम्यता, एक निश्चित दिशाबोध प्रदत्त मानसिक दृढ़ता एवं ज्ञान, अनुभव  व पुरा पीढी के प्रति श्रृद्धा, सम्मान, आदर का दृष्टिकोण विकसित करती है |  आजकल पाश्चात्य दिखावे की प्रतियोगी  संस्कृति के अन्धानुकरण व सुविधापूर्ण जीवन दृष्टिकोण  में यह स्व-भाव व स्वीकृति ही लुप्त होती जारही है |

1 टिप्पणी:

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद इंडिया दर्पण