सोमवार, 26 नवंबर 2012

बस मूक हूँ .............पीड़ा का दिग्दर्शन करके-ज़िन्दगी…एक खामोश सफ़रपर

बस मूक हूँ .............पीड़ा का दिग्दर्शन करके

मुझमे उबल रहा है एक तेज़ाब झुलसाना चाह रही हूँ खुद को खंड- खंड करना चाहा खुद को मगर नहीं हो पायी नहीं ....नहीं छू पायी एक कण भी तेजाबी जलन की क्योंकि आत्मा को उद्वेलित करती तस्वीर शायद बयां हो भी जाए मगर जब आत्मा भी झुलस जाए तब कोई कैसे बयां कर पाए देखा था कल तुम्हें नज़र भर भी नहीं देख पायी तुम्हें नहीं देख पायी हकीकत नहीं मिला पायी आँख उससे और तुमने झेला है वो सब कुछ हैवानियत की चरम सीमा शायद और नहीं होती ये कल जाना जब तुम्हें देखा महसूसने की कोशिश में हूँ नहीं महसूस पा रही जानती हो क्यों क्योंकि गुजरी नहीं हूँ उस भयावहता से नहीं जान सकती उस टीस को उस दर्द की चरम ... अधिक »

3 टिप्‍पणियां:

Shalini kaushik ने कहा…

marmik prastuti .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

ओह..!
बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं ऐसे प्रायोजित हादसे!
मगर हमारा कानून अन्धा भी है और बहरा भी!
बदलाव होना जरूरी है कानून की धाराओं में!

डा श्याम गुप्त ने कहा…

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