क्या बात है , आज बड़ी
सुस्त-सुस्त सी बोल रही हो मुक्ता !, फोन पर बात करते हुए शालिनी पूछने लगी |
‘कुछ नहीं, क्या बताऊँ शालिनी,
आज न जाने किस बात पर राज ने चांटा मार दिया मुझे‘, मुक्ता कहने लगी, ’आजकल हर बात
पर मूर्ख कहना, बात बात पर तुममें अक्ल नहीं है इत्यादि कहने लगा है राज | कितनी
बार हर प्रकार से समझाया है | हर बार सौरी यार ! कहकर माफी मांग लेता है, मनाता भी
है और फिर वही | पता नहीं क्या होगया है
राज को, पहले तो ऐसा नहीं था | इतना पढ़े-लिखे होने के बावजूद भी हम क्या कर पाती
हैं | सिवाय इसके कि तलाक लेलो.... क्या और कोई मार्ग नहीं है शालिनी हम लोगों के
पास ?
‘क्या किया जाय मुक्ता, घर-घर
यही हाल है | यही कहानी है स्त्री की अब भी | जाने क्यों एक नारी के उदर से ही
जन्मा पुरुष क्यों उसे ही ठीक से समझ नहीं पाता और ऐसा व्यवहार करने पर आमादा
होजाता है | लोग कहते हैं कि नारी को ब्रह्मा भी नहीं समझ पाया | पर पुरुष का यह
व्यवहार सदा से ही समझ से परे है |’ शालिनी कहने लगी |
मुक्ता सोचने लगी, ‘उसने प्रेम-विवाह किया, घर वालों से लड़-झगड कर
| यद्यपि उचित कारण था | पुराने विचारों वाले रूढ़िवादी परिवार में जन्म लेना और
अपनी दो बड़ी बहनों की इसे ही परिवारों वाले ससुराल में दशा देखकर भाग जाना चाहती
थी वह उस माहौल से | आधुनिक परिवार, आधुनिक विचारधारा के साथ जीवनयापन हेतु | मिला
भी सब कुछ ठीक-ठाक | पति, परिवार, सास-ससुर, खानदान | परन्तु आज इस मोड़ पर..... क्यों सोचना पड रहा है |’
उसे काम बाली बाई की याद आने लगती
है | कुछ महीने पहले ही जब उसे पता चला था कि उसका पति उसे रोजाना मारता -पीटता है
तो स्वयं उसने कहा था कि छोड़ क्यों नहीं देती | कितना आसान है दूसरों को परामर्श
देदेना | उसे याद आया बाई का उत्तर ,’ क्या करें मेमसाहिब, कहाँ जायं | मारता है
तो प्यार भी करता है | दो ही रास्ते हैं, या तो ऐसे ही चलने दिया जाय या छोडकर
अलग होजायं और दूसरा करलें | दूसरा भी कैसा होगा क्या भरोसा | तीसरा रास्ता है
...अकेले ही रहना का | सब जानते हैं बीबीजी कि अकेली औरत का कोई नहीं होता, न
रिश्ते-नातेदार, न परिवार, न पडौसी, न समाज | सरकार चाहे जितने क़ानून बनाले, पर
सरकार है कौन ? वही पडौसी, समाज के लोग | वे ही पुलिस वाले, वकील व जज हैं | और
जब तक आपको स्वयं को और सरकार–पुलिस को पता चलता है, होश आता है, सरकारी मशीन कार्यरत होती है
ज़िंदगी खराब हो चुकी होती है | फिल्मों की
हीरोइनों एवं तमाम पढ़ी लिखी ऊंची अफसर औरतों की अलग बात है | पर हीरोइनों की भी
जिंदगी भी कोई ज़िंदगी है मेमसाहिब, और अंत तो खराब ही होता है अक्सर | और अकेले पुरुष को भी कौन पूछता है यहाँ | जिस आदमी के साथ कोई नहीं होता क्या नहीं करता
ये समाज- संसार, ये लोग उसके साथ | इससे तो अच्छा है कि लड़ते-झगडते, पिटते-पीटते,
कभी दबकर, कभी दबाकर यूंही चलने दिया जाय | पुरुष को प्यार से जीतो या
सेवा..तप..त्याग से, चालाकी से या ट्रिक से | स्त्री को पुरुष को जीतना ही होता है
यही एक रास्ता है | बाहर तमाम पुरुषों की गुलामी की जलालत भरी ज़िंदगी से तो एक
पुरुष की गुलामी अधिक बेहतर है | कितना अच्छा होता बीबीजी मर्द लोग भी हमारे बारे में ऐसा ही अच्छा
सोचते |’
‘ परिवार वालों के साथ कोइ प्रोब्लम है क्या ?’ फोन पर
शालिनी पूछ रही थी | मुक्ता अपने आप में लौट आई, बोली,’ नहीं , मम्मी–पापा बहुत
अच्छे हैं | वे स्वयं कभी-कभी परेशान होजाते हैं राज के इस व्यवहार से |’
‘तो मेरे विचार से यह व्यक्तिगत
मामला है, शालिनी कहने लगी, ’ जो प्रायः चाहतों का ऊंचा आसमान न मिल पाने पर इस
प्रकार व्यक्त होने लगता है | हो सकता है तुम उसकी चाहत व आकांक्षा के अनुरूप न कर
पाती हो या किन्हीं बातों से उसका अहं टकराता हो | या दफ्तर की कोई प्रोब्लम हो |
हालांकि इसका अर्थ यह नहीं कि पुरुष को, पति को ऐसे व्यवहार करने की छूट है |
दौनों मिलकर सुलझाओ, खुलकर बात करो इससे पहले कि बात और आगे बढे | दूसरे शायद ही
इसमें कुछ कर पायें | बड़े अनुभवी लोगों का परामर्श भी राह दिखा सकता है पर कितनी
दूर तक | चलना तो स्वयं को ही पडता है |
यह भी है कि कुछ पुरुष, बच्चे ही
होते हैं, मन से ..पर मानने को तैयार नहीं होते| वे विशेष रूप से अटेंशन चाहते
हैं हर दम | कई बार संतान के आने पर भी ऐसा होता है |’, शालिनी पुनः कहने लगी,
’प्यार से आदमी को काबू में करना ही औरत की तपस्या है, साधना है, त्याग है | जो
पुरुष की तपस्या भंग भी कर सकती है मेनका-विश्वामित्र की भांति, वैराग्य भी भंग कर
सकती है शिव-पार्वती की भांति और उसे तपस्या-वैराग्य में रत भी कर सकती है तुलसी—रत्ना
की भांति | काश सभी पुरुष नारी की इस भाषा
को समझ पाते | इस भावना व क्षमता की कदर कर पाते |
‘पर पुरुष यह सब कहाँ समझता है अपने
अहं-अकड में |’ मुक्ता बोली |
सचमुच, शालिनी कहने लगी, मैं सोचती
हूँ कि एक ही आशापूर्ण रास्ता बचता है कि हम स्त्रियाँ जब अपने त्याग, तपस्या से
अपनी संतान को विशेषकर पुत्र को संस्कार देंगीं तभी पुरुषों में संस्कार
आयेंगे..बदलाव आएगा | इस बदलाव से ही स्त्री का जीवन सफल, सहज व सुन्दर होगा |
“ यहि आशा अटक्यो रहे अलि गुलाव के मूल
|”