तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव -
हिमनद भैया मौज में, सोवे चादर तान |
सरिता बहना झेलती, पग पग पर व्यवधान |
सरिता बहना झेलती, पग पग पर व्यवधान |
काटे कंटक पथ कई, करे पार चट्टान ।
गिरे पड़े आगे बढे, किस्मत से अनजान ।
सुन्दर सरिता सँवरती, रहे सरोवर घूर ।
चौड़ा हो हिमनद पड़ा, सरिता बहना दूर ।
समतल पर मद्धिम हुई, खटका मन में होय ।
दुष्ट बाँध व्यवधान से, दे सम्मान डुबोय ।
दुर्गंधी कलुषित हृदय, नरदे करते भेंट ।
आपस में फुस-फुस करें, करना मटियामेट ।
इंद्र-देवता ने किया, निर्मल मन विस्तार ।
तीक्ष्ण धार-धी से सबल, समझी धी संसार ।
तन-मन निर्मल कर गए, ब्रह्म-पुत्र उदगार।
लेकिन लेकर बह गया, गुमी समंदर धार ।
भूल गई पहचान वो, खोयी सरस स्वभाव।
तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव ।
छूट जनक का घर बही, झेली क्रूर निगाह ।
स्वाहा परहित हो गई, पूर्ण हुई न चाह ।।
5 टिप्पणियां:
भूल गई पहचान वो, खोयी सरस स्वभाव।
तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव ।
vaah bahut achche dohe ye doha to sabse uttam hai.
vicharniy post.aabhar..mere jile ke neta ko C.M.bana do and 498-a
छूट जनक का घर बही, झेली क्रूर निगाह ।
स्वाहा परहित हो गई, पूर्ण हुई न चाह ।।
sateek kaha hai ....aabhar
--- सकारात्मक नदिया भाव---
सागर से मिलने चली, जग हित छोडा गेह ।
तन-मन प्रियतम से मिले,तब वह हुई विदेह॥
प्रियतम, प्रभु से मिलन में, कंटक मिलें अनेक।
जग-हित भाव रहे जहां, सहिये सहित विवेक ॥
AABHAAR AAPKA
एक टिप्पणी भेजें