रविकर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रविकर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

कहीं चाल अश्लील, कहीं कह छोटे कपड़े-

पड़े हुवे हैं जन्म से, मेरे पीछे लोग । 
मरने भी देते नहीं, देह रहे नित भोग । 

देह रहे नित भोग, सुता भगिनी माँ नानी । 
कामुकता का रोग, हमेशा गलत बयानी । 

कोई देता टोक, कैद कर कोई अकड़े । 
कहीं चाल अश्लील, कहीं कह छोटे कपड़े ॥

(2)

पड़े हुवे हैं जन्म से मेरे पीछे मर्द |
मरने भी देते नहीं, ये जालिम बेदर्द |

ये जालिम बेदर्द, हुआ हर घर बेगाना । 
हैं नाना प्रतिबन्ध, पिता पति मामा नाना । 

मिला नहीं स्वातंत्र्य, रूढ़िवादी हैं जकड़े । 
 पुरुषवाद धिक्कार, देखते रविकर कपड़े ॥ 

मंगलवार, 17 जून 2014

गूँथ स्वयं को रोज, बनाती माता रोटी


रोटी सा बेला बदन, अलबेला उत्साह |
हर बेला सिकती रही, कभी न करती आह |

कभी न करती आह, हमेशा भूख मिटाती |
रहती बेपरवाह, आंच से नहिं अकुलाती । 

 कह रविकर कविराय, बात करता नहिं छोटी |
 गूँथ स्वयं को रोज,  बनाती माता रोटी |

मंगलवार, 19 मार्च 2013

हे नीरजा भनोट, तुम्हारी जय हो जय जय

आधुनिक भारत की एक वीरांगना जिसने इस्लामिक आतंकियों से लगभग 400 यात्रियों की जान बचाते हुए अपना जीवन बलिदान कर दिया।

भारत योगी 
जय जय जय जय नीरजा, चंडीगढ़ की शान |
गन प्वाइंट पे ले चुके, आतंकी इक यान  |


आतंकी इक यान, सभी की जान बचाती |
डाक टिकट सम्मान, शहादत देकर पाती |


यह सच्ची आदर्श, कर्म कर जाती निर्भय |
हे नीरजा भनोट, तुम्हारी जय हो  जय जय ||

रविवार, 18 नवंबर 2012

दे बेटी को मान, तुझे धिक्कारूं वरना -रविकर

 बेटे की चाहत रखें, ऐ नादाँ इंसान ।
अधिक जरुरी है कहीं, स्वस्थ रहे संतान ।
 
स्वस्थ रहे संतान, छोड़ यह अंतर करना ।
दे बेटी को मान, तुझे धिक्कारूं वरना ।
 
बेटा बेटी भेद, घूमता कहाँ लपेटे ।
स्वस्थ विवेकी सभ्य , चाहिए बेटी बेटे ।।

रविवार, 9 सितंबर 2012

करते वे तफरीह, ढूँढती माँ को मोटर-रविकर

करते वे तफरीह, ढूँढती माँ को मोटर-

 मोटर में लिख घूमते, माँ का आशिर्वाद ।
जय माता दी बोलते, नित पावन अरदास ।

नित पावन अरदास, निकल माँ बाहर घर से ।
रोटी को मुहताज, कफ़न की खातिर तरसे ।

कह रविकर पगलाय, कहीं खाती माँ ठोकर ।
करते वे तफरीह, ढूँढती माँ को मोटर ।।

शुक्रवार, 22 जून 2012

आश्रित कुल परिवार, चलाती कुशल स्त्रियाँ-

त्याग प्रेम बलिदान की, नारी सच प्रतिमूर्ति ।
दफनाती सारे सपन, सरल समस्या-पूर्ति ।


सरल समस्या-पूर्ति
, पाल पति-पुत्र-पुत्रियाँ ।
आश्रित कुल परिवार, चलाती कुशल स्त्रियाँ ।

 
निभा रही दायित्व, किन्तु अधिकार घटे हैं ।
  हरते जो अधिकार, पुरुष वे बड़े लटे हैं ।।

शुक्रवार, 4 मई 2012

छोट छोट शहरों में पैदा, बड़े बड़े शैतान

भ्रूण भ्रान्तवश भंगकर, भटके भट भकुवान । 
पुत्र-मोहवश पापधी,  बूढ़ भये अकुलान ।

घर से मार-भगाए  बेटे  ।
बहना आगे आय समेटे  ।

छोट छोट शहरों में पैदा,  बड़े बड़े शैतान ।। 

रविवार, 25 मार्च 2012

तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव --

तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव -

Gangotrihttp://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/5/5c/Perito_Moreno_Glacier_Patagonia_Argentina_Luca_Galuzzi_2005.JPG



 

हिमनद भैया मौज में, सोवे चादर तान | 
सरिता बहना झेलती, पग पग पर व्यवधान  |


काटे कंटक पथ कई, करे पार चट्टान ।
गिरे पड़े आगे बढे, किस्मत से अनजान ।

सुन्दर सरिता सँवरती, रहे सरोवर घूर ।
चौड़ा हो हिमनद पड़ा, सरिता बहना दूर ।

समतल पर मद्धिम हुई, खटका मन में होय  ।
दुष्ट बाँध व्यवधान से, दे सम्मान डुबोय ।

Muhuri  river Dam,Irrigation Project by worldbank


दुर्गंधी कलुषित हृदय, नरदे करते भेंट ।
 आपस में फुस-फुस करें, करना मटियामेट

http://www.myinterestingfacts.com/wp-content/uploads/2011/06/pollution-facts-river-pollution.jpgDrainage in Ganga at VaranasiThis drainage outlet delivering polluted runoff into the Ohio River is a point source of pollution because the pollution originates from a single, identifiable source.

इंद्र-देवता ने किया, निर्मल मन विस्तार ।
 तीक्ष्ण धार-धी से सबल, समझी धी संसार ।  

तन-मन निर्मल कर गए, ब्रह्म-पुत्र उदगार
लेकिन लेकर बह गया, गुमी समंदर धार ।

Image:WWDRBangladesh.png


भूल गई पहचान वो, खोयी सरस स्वभाव।
  तड़पन बढती ही गई, नमक नमक हर घाव  ।
 
 छूट जनक का घर बही, झेली क्रूर निगाह ।
 स्वाहा परहित हो गई, पूर्ण हुई न चाह ।।

रविवार, 18 मार्च 2012

जियो जील के जाल, टिप्पणी फिर से खोलो-

हुवे समर्थक पाँच सौ, दिव्या दिव्य कमाल ।

My Photo
हुवे समर्थक पाँच सौ, दिव्या दिव्य कमाल । 
बढे चढ़े उत्साह नित, जियो जील के जाल ।

जियो जील के जाल, टिप्पणी फिर से खोलो ।
रहा सभी को साल, साल में सम्मुख बोलो ।

होय ईर्ष्या मोय, बताओ औषधि डाक्टर ।
शतक समर्थक पूर,  करे कैसे यह रविकर ।।

शनिवार, 3 मार्च 2012

मौज करे दिन रात, सहे बस नारी पीड़ा -

पटना से सुशील मोदी

प्रसव करे पीड़ा सहे, रक्त दूध से पाल ।
नसबंदी की बात पर, होती रही हलाल ।

होती रही हलाल, पुरुष पौरुष दिखलाओ  ।
पांच मिनट का काल, चलो अब आगे आओ ।

मोदी की यह बात, करे खारिज नर-कीड़ा ।
मौज करे दिन रात,  सहे बस नारी पीड़ा ।।

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

रविकर आशीर्वाद, नए जोड़े को देता ।

रविकर आशीर्वाद, नए जोड़े को देता ।

कुंडली
अच्छे अच्छे लाल से, सीखे सकल समाज ।
सामूहिक दुष्कर्म से, मरे मनुजता लाज ।

मरे मनुजता लाज, दोष क्या उसका भैया ?
चला बराती साज,  वरे दुल्हन को  सैंया ।

रविकर आशीर्वाद, नए जोड़े को देता ।
रहे सदा आबाद, बलैयाँ बम-बम लेता । 

दोहा
   मरे मीडिया मुहुर्मुह, तड़क-भड़क पर रोज ।
 पहल अनोखी को भला, कैसे लेवे खोज ??

सोमवार, 23 जनवरी 2012

नार्वे सरकार ने भारतीय माँ बाप से बच्चे छीने !!

नारी मन इन नार्वे--


नारी मन इन नार्वे,  तन है एक मशीन ।
नर-नारी तन भारती, दीन हीन गमगीन ।

दीन हीन गमगीन, दूर से ताको बच्चा।
 छीनेगी सरकार, करे गर करतब कच्चा  ।

साथ सुलाए बाप, खिला दे गर महतारी ।
गलत परवरिश भांप, रोय नर हारे नारी ।।


भारत की नारी करे, पल-पल अद्भुत त्याग ।
थपकी देकर दे सुला, दुग्ध अमिय अनुराग।

दुग्ध अमिय अनुराग, नार्वे की महतारी ।
पुत्र सोय गर साथ, नींद बिन रात गुजारी ।

कह रविकर परवरिश, सदा ही श्रेष्ठ हमारी।
ममता से भरपूर, पूज भारत की नारी ।।

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

समापन

भगवती शांता परम सर्ग-8

पूरी कथा के लिए 
पर आयें |
-- रविकर

आश्रम की रौनक बढ़ी, सास-ससुर खुश होंय |
सृंगी अपने शोध में, रहते  हरदम खोय ||

शांता सेवा में जुटी, परम्परा निर्वाह |
करे रसोईं चौकसी, भोजन की परवाह ||

शिष्य सभी भोजन करें, पावें नित मिष्ठान |
करें परिश्रम वर्ग में, नित-प्रति बाढ़े ज्ञान ||

वर्षा-ऋतु में पूजती, कोसी को धर ध्यान |
सृन्गेश्वर की कृपा से, उपजे बढ़िया धान ||

शांता की बदली इधर, पहले वाली चाल |
धीरे धीरे पग धरे, चलती बड़ा संभाल ||

खान-पान में हो रहा, थोडा सा बदलाव |
खट्टी चीजें भा रहीं,  बदल गए अब चाव ||

सासू माँ रखने लगीं, अपनी दृष्टी तेज |
प्रफुल्लित माता रखे,  चीजें सभी सहेज ||

पुत्री सुन्दर जन्मती, बाजे आश्रम थाल |
सेवा सुश्रुषा करे, पोसे बहुत संभाल ||

तीन वर्ष पूरे हुए, शिक्षा पूरी होय |
दीदी से मिलकर चले, बटुक अंग फिर रोय || 

फिर पूरे परिवार से, करके नेक सलाह |
माँ दादी को साथ ले, पकड़ें घर की राह || 

आश्रम इक सुन्दर बना, करते हैं उपचार |
साधुवाद है वैद्य जी, बहुत बहुत आभार ||

तीन वर्ष बीते इधर, मिला राज सन्देश |
वैद्यराज का रिक्त पद, तेरे लिए विशेष ||
 
क्षमा-प्रार्थना कर बचे, नहीं छोड़ते ग्राम |
आश्रम फिर चलता रहा, प्रेम सहित अविराम ||

रक्षाबंधन पर मिली, शांता घर पर आय |
भागिनेय दो गोद में, दीदी रही खेलाय ||

पुत्तुल के संग वो रखी, पाणिग्रहण प्रस्ताव |
मेरी सहमति है सदा, पुत्तुल की बतलाव ||

शांता लेकर बटुक को, चम्पानगरी जाय |
पुत्तुल के इनकार पर, रही उसे समझाय ||
 
नश्वर जीवन कर दिया, इस शाळा के नाम |
बस नारी उत्थान हित, करना मुझको काम ||

पुष्पा से एकांत में, मिलती शांता जाय |
वैद्य बटुक से व्याह हित, मांगी उसकी राय ||

शरमाई बाहर भगी, मिला मूल संकेत |
मंदिर में शादी हुई, घरवाला अनिकेत ||

रूपा से मिलकर हुई दीदी बड़ी प्रसन्न |
गोदी में इक खेलता, दूजा है आसन्न ||

पञ्च रत्न की सब कथा, पूछी फिर चितलाय |
डरकर नकली असुर से, भाग चार जन जाँय ||

पञ्च-रतन को एक दिन, दे अभिमंत्रित धान | 
खेती करने को कहा, देकर पञ्च-स्थान ||

बढ़िया उत्पादन हुआ, मन सा निर्मल भात |
खाने में स्वादिष्टतम, हुआ न कोई घात ||


राज काज मिल देखते, पंचरत्न सह सोम |
महासचिव का साथ है, कुछ भी ना प्रतिलोम ||


पिताश्री ने एक दिन, सबको लिया बुलाय |
पंचरत्न में चाहिए, स्वामिभक्त अधिकाय ||


चाटुकारिता से बचो, इंगित करिए भूल |
राजधर्म का है यही, सबसे बड़ा उसूल ||


लेकर सेवा भावना, देखो भाग विभाग |
पैदा करने में लगो, जनमन में अनुराग ||

मात-पिता से पूछ के, कुशल क्षेम हालात |
संतुष्टि पाती वहां, शांता वापस जात ||


कुशल व्यवस्थापक बनी, हुई भगवती माय |
पाली नौ - नौ  पुत्रियाँ,  आठो  पुत्र पढाय ||


एक से बढ़कर एक थे, संतति सब गुणवान |
शोध भाष्य करते रहे, पढ़ते वेद - पुरान ||

वैज्ञानिक वे श्रेष्ठ सब, मन्त्रों पर अधिकार |
अपने अपने ढंग से, सुखी करें संसार ||


सास-ससुर सब सौंप के, गए देव अस्थान |
राजकाज सब साध के, देकर के वरदान ||

वन खंडेश्वर को गए, बिबंडक महराज |
भिंड आश्रम को सजा, करे वहां प्रभु-काज ||

आठ पौत्रों से मिले, सब है बेद-प्रवीन |
बड़े भिंड के हो गए, आश्रम में आसीन ||
 
सौंपें सारे ज्ञान को, बाबा बड़े महान |
स्वर्ग-लोक जाकर बसे, छोड़ा यह अस्थान ||

भिन्डी ऋषि के रूप में, हुए विश्व विख्यात |
सात राज्य में जा बसे, पौत्र बचे जो सात ||

एक अवध में जा बसे, सरयू तट के पास |
बरुआ सागर आ गया, एक पुत्र को रास ||

विदिशा जाकर बस गए, सबसे छोटे पूत |
पुष्कर की शोभा बढ़ी, बाढ़ा वंश अकूत ||


आगे जाकर यह हुए, छत्तीस कुल सिंगार |
छ-न्याती भाई यहाँ, अतुलनीय विस्तार ||


बसे हिमालय तलहटी, चौरासी सद्ग्राम |
वंशज सृंगी के यहाँ, रहते हैं अविराम ||

सृंगी दक्षिण में गए, पर्वत बना निवास |
ज्ञान बाँट करते रहे, रही शांता पास ||

वंश-बेल बढती रही, तरह तरह के रूप |
कहीं मनीषी बन रमे, हुए कहीं के भूप ||


मंत्रो की शक्ती प्रबल, तंत्रों पर अधिकार |
कलियुग के प्रारब्ध तक, करे वंश व्यवहार ||


हुए परीक्षित जब भ्रमित, कलियुग का संत्रास |
स्वर्ण-मुकुट में जा घुसा, करता बुद्धी नाश  ||


सरिता तट पर एक दिन, लौटे कर आखेट |
लोमस ऋषि से हो गई, भूपति की जब भेंट ||


बैठ समाधि में रहे, राजा समझा धूर्त |
मरा सर्प डाला गले, जैसे शंकर मूर्त ||

वंशज देखें सृंग के, भर अँजुरी में नीर |
मन्त्रों से लिखते भये, सात दिनों की पीर ||


यही सर्प काटे तुम्हें, दिन गिनिये अब सात |
गिरे राजसी कर्म से, सहो मृत्यु आघात ||


मन्त्रों की इस शक्ति का, था राजा को भान |
लोमस के पैरों पड़ा, वह राजा नादान ||


लेकिन भगवत-पाठ सुन, त्यागा राजा प्रान |
यह पावन चर्चित कथा, जाने सकल जहान ||


जय जय भगवती शांता परम

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-7 भाग-4

भगवती शांता परम सर्ग-7 भाग-4

चंपा-सोम
कई दिनों का सफ़र था, आये चंपा द्वार |
नाविक के विश्राम का, बटुक उठाये भार ||

राज महल शांता गई, माता ली लिपटाय |
मस्तक चूमी प्यार से, लेती रही बलाय ||

गई पिता के पास फिर, पिता रहे हरसाय |
स्वस्थ पिता को देखकर,फूली नहीं समाय ||

क्षण भर फिर विश्राम कर, गई सोम के कक्ष |
रूपा पर मिलती वहाँ, धक्-धक् करता वक्ष ||

गले सहेली मिल रही, पर आँखों में चोर |
सोम हमारे हैं कहाँ, अचरज होता  घोर ||

किन्तु सोम आये नहीं, की परतीक्षा खूब |
शांता शाळा को चलीं, सह रूपा के ऊब ||

शाला में स्वागत हुआ, मन प्रफुल्लित होय |
अपनी कृति को देखकर, जैसे साधक सोय ||

आत्रेयी आचार्या, गले लगाती आय |
बाला सब संकोच से, खुद को रहीं छुपाय ||

नव कन्याएं देखतीं, कौतूहल वश खूब |
सन्यासिन के वेश में, पूरी जाती ड़ूब ||

आनन्-फानन में जमे, सब उपवन में आय |
होती संध्या वंदना, रूपा कह समझाय ||

परिचय देवी का दिया, दिया ज्ञान का बार |
महाविकट दुर्भिक्ष से,  सबको  गई उबार || 

यह है अपनी शांता,  इनका  आशीर्वाद |
कन्या शाला चल पड़ी, गूंजा शुभ अनुनाद ||

पुत्तुल-पुष्पा थीं बनी, तीन वर्ष में मित्र |
मात-पिता के शोक में, स्थिति बड़ी विचित्र ||

कौला-सौजा राखती, कन्याओं का ध्यान |
पाक-कला सिखला रहीं, भाँति-भाँति पकवान ||

दोनों बालाएं मिलीं, शांता ले लिपटाय |
आंसू पोंछे प्रेम से, रही शीश सहलाय ||

क्रीडा कक्षा का समय, बाला खेलें खेल |
घोड़ा आया सोम का, रूपा मिले अकेल ||

शांता को देखा वहां, आया झट से सोम |
छूता दीदी के चरण , दिल से कहता ॐ ||

चेहरे की गंभीरता,  देती इक सन्देश |
हलके में मत लीजिये, हैं ये चीज विशेष ||

दीदी अब घर को चलो, माता रही बुलाय |
कई लोग बैठे वहाँ,  काका  काकी आय ||

सौजा कौला मिल रहीं, रमणी है बेचैन |
दालिम काका भी मिले, आधी बीती रैन ||

नाव गाँव का कह रही, वो सारा वृतांत |
सौजा पूंछी बहुत कुछ, दालिम दीखे शांत ||
 
पर मन में हलचल मची, जन्मभूमि का प्यार |
 शाबाशी पाता बटुक, किया ग्राम उद्धार ||

रमणी से मिलकर करे, शांता बातें गूढ़ |
रूपा तो हुशियार है, बना सके के मूढ़ ||

अगले दिन रूपा करे, बैठी साज सिंगार |
जाने को उद्दत दिखे, बाहर राजकुमार ||

शांता आकर बैठती, करे ठिठोली लाग |
सखी हमारी जा रही, कहाँ लगाने आग ||

सुन्दरता को न लगे, बहना कोई दाग |
अपनी रक्षा खुद करे, रखे नियंत्रित राग ||

रूपा को न सोहता, असमय यह उपदेश |
आया अंग नरेश का, इतने में सन्देश ||

रूपा को वो छोड़कर, गई पिता के पास |
चिंतित थोडा दीखते, चेहरा तनिक उदास ||

करें शिकायत सोम की, चंचलता इक दोष |
राज काज हित चाहिए, सदा सर्वदा होश ||

आयु मेरी बढ़ रही, शिथिल हो रहे अंग |
किन्तु सोम न सीखता, राज काज के ढंग ||

उडती-उडती इक खबर, करती है हैरान |
रूपा का सौन्दर्य ही, खड़े करे व्यवधान ||

हुआ राजमद सोम को, करना चाहे द्रोह |
रूपा मम पुत्री सरिस, रोकूँ कस अवरोह ||

तानाशाही सोम की, चलती अब तो खूब |
राजपुरुष जब निरंकुश, देश जाय तब डूब ||

मंत्री-परिषद् में अगर, रहें गुणी विद्वान |
राजा पर अंकुश रहे,  नहीं बने शैतान ||

पञ्च रतन का हो गठन, वही उठाये भार | 
करें सोम की वे मदद, करके उचित विचार ||

शांता कहती पिता से, दीजे उत्तर तात |
दे सकते क्या सोम को, रूपा का सौगात ||

करिए इनके व्याह फिर, चुनिए मंत्री पाँच |
महासचिव की आन पे, ना आवे पर आँच ||

सहमति में जैसे हिला, महाराज का शीश |
शांता की कम हो गयी, रूपा के प्रति रीस ||

तुरत बुलाया भूप ने,  आया जल्दी सोम |
दीदी पर पढ़ते नजर, रोमांचित से रोम ||

डुग्गी सारे देश में, एक बार बज जाय |
पांच रत्न चुनने हमें, कसके ठोक बजाय ||

राज कुंवर लेने लगे, जैसे लम्बी सांस |
दीदी की आई नहीं, अगली बातें रास ||

एक पाख में कर रहे, हम सब तेरा व्याह |
कह सकते हो है अगर, कोई अपनी चाह ||

पिता श्री क्यों कर रहे, इतनी जल्दी लग्न |
फिर रूपा के ख्याल में, हुआ अकेला मग्न ||

शुरू हुई तैयारियां, दालिम खुब हरसाय |
नेह निमंत्रण भेजते, सबको रहे बुलाय ||

रूपा तो घर में रहे, सोम उधर घबरात |
नींद गई चैना गया, रह रहकर अकुलात ||

शादी के दो  दिन बचे, आये अवध-भुवाल |
कौशल्या के साथ में, राम लखन दोउ लाल ||

सृंगी तो आये नहीं, पहुंचे पर ऋषिराज |
पूर्ण कुशलता से हुआ, शादी का आगाज ||

जब हद से करने लगा, दर्द सोम का पार |
दीदी से जाकर मिला, विनती करे हजार ||
 
दीदी कहती सोम से, सुन ले मेरी बात |
शर्त दूसरी पूर कर, करे व्यर्थ संताप ||

कौशल्या के पास फिर, गया सोम उस रात |
माता देखे  व्यग्रता, मन ही मन मुस्कात ||

जो मुश्किल में रख सके, मन में अपने धीर |
वही सोच सकता तनय, इक सच्ची तदवीर ||

कौला के जाकर छुओ, सादर दोनों पैर |
ध्यान रहे पर बात यह, जाओ मुकुट बगैर ||
 
उद्दत जैसे ही हुआ, झुका सामने सोम |
कौला पीछे हट गई, जैसे गिरता व्योम ||

अवधपुरी की रीत है, पूजुंगी कल पांव |
छूकर मेरे पैर को,  काहे पाप चढ़ाव ||

कन्याएं देवी सरिस, और जमाता मान |
पैर पूंज दे व्याह में, माता कन्यादान ||

हर्षित होकर के भगा, सीधे दीदी पास |
जैसे खोकर आ रहा, अपने होश-हवाश ||
 
दीदी के छूकर चरण, घुसता अपने कक्ष |
हर्षित होकर नाचता, जाना कन्या पक्ष || 
 
बहन-नारि-गुरु-सखी बन, करे पूर्ण सद्कर्म |
भाव समर्पण का सदा, बनता जीवन-धर्म ||

रानी सन्यासिन बने, दासी राजकुमारि |
जीती हर किरदार खुश, नारी विगत बिसारि ||

नारी सबल समर्थ है, कितने बदले रूप |
सामन्जस बैठाय ले, लगे छांह या धूप ||
 
शारीरिक शक्ति तनिक, नारी नर से क्षीन |
अंतर-मन मजबूत तन, सहनशक्ति परवीन ||

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-6

भगवती शांता परम सर्ग-6

भाग-3
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीयी ज्ञान से, रही शांता देख ||

ध्यान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||

नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||

मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||

व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||

सावन में पूरे  हुए,  पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||

कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||

ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||

करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव  |
दिन बीते कुल तीन सौ, बापू वापस आव ||

आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||

मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना,  राखी का त्योहार ||

स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||

दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे देत विसार ||


पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||


शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||


अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||

बारह बाला घर गईं, थी जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के आभार ||

नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||

दस की बाला को सिखा,  निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||


वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||


बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||

सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||

इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||

जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||

बर्बादी खाद्यान  की, लो इकदम से रोक  | 
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||
गुरुकुल के आचार्य का, प्रस्तुत है उदबोध ||
नारी शिक्षा पर रखें, अपने शाश्वत शोध ||
दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||

और हजारों गुनी है, इक माता की शान |
उनकी शिक्षा सर्वदा, उत्तम और महान ||

गार्गी मैत्रेयी सरिस, आचार्या कहलांय |
गुरु पत्नी आचार्यिनी, कही सदा ही जाँय ||


कात्यायन  की वर्तिका,  में सीधा उल्लेख |
महिला लिखती व्याकरण, अति प्रभावी लेख ||


महिला शिक्षा पर करे, जो भी खड़े सवाल |
पतंजलि को देखिये, आग्रह-पूर्व निकाल ||

शांता जी ने है किया, बड़ा अनोखा कार्य |
देता खुब आशीष हूँ, मै उनका आचार्य ||

भेजूंगा कल पाठ्यक्रम, पांच साल का ज्ञान |
तीन वर्ष में ये करें, कन्या गुण की खान ||

अब राजा अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||

शाळा की चिंता लिए, दुरानुभूती साध |
सृंगी से करने लगी, चर्चा परम अगाध ||

विस्तृत चर्चा हो गई, एक पाख ही हाथ |
छूटेगा सचमुच सकल, कन्याओं का साथ ||

 करे व्यवस्था रोज ही, सुदृढ़ अति मजबूत |
सृन्गेश्वर की शिक्षिका, पाती शक्ति अकूत ||

आचार्या प्रधान बन, लेत व्यवस्था हाथ |
सौजा कौला साथ में, रूपा का भी साथ ||

ब्रह्मावादिन आत्रेयी, करती अग्निहोत्र |
बालाओं की बन रही, संस्कार की स्रोत्र ||

साध्यवधू शांता करे, सृगेश्वर का ध्यान |
सखियों के सहयोग से, कार्य हुए आसान ||

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-6

भगवती शांता परम सर्ग-6

भाग-2
अंग-देश में अकाल 
एवं 
शाळा का हाल  
भादों की बरसात भी, ठेंगा रही दिखाय |
बूंद बूंद को तरसती, धरती फट फट जाय ||

झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||

खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||

जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रिशुच सहे, त्रायमाण दे त्राण ||

अंगदेश की अति-कठिन, कड़ी परीक्षा होय |
 नगर सेठ मंत्री सभी, रहे काम में खोय ||

शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, और अधिक तैयार ||

शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सन्यासिन सी बन रहे, कन्या रही पढ़ाय ||

भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
वैद्य-राज की औषधी, माँ का देत दुलार ||

कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, सबका मन बहलाय ||

कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||

अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||

धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||

कैकय का गेंहूँ वणिक,  बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज पर बांटते, सबको धान तमाम ||

अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ||

लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||

किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||

लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||

शाला आये सोम्पद, रूपा से टकरात |
सुन्दरता ऐसी लगी, जैसे हो अभिजात ||

कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, वे दोनों बतलाय ||

सावन में भी न हुई, अब तक इक बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||

भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
मुझको न एतराज है, मिटे विकट संताप ||

शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन कर रहें, हो सबका कल्याण ||

तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||

रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||

शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, हो जाये बरसात ||

शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
 मित्रों ने सच ही कहा, रूपा है उत्कृष्ट ||

कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||

जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||

बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||

गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||

हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ | 
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||


संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||

परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||

लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||

परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||


दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||

लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय  |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||

स्त्री-शिक्षा पर लिखा,  सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीयी ज्ञान से, रही शांता देख ||

धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
   अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||

नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||

मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||

व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||

सावन में पूरे  हुए,  पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||

कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||

ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||

करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव  |
दिन बीते कुल तीन सौ, बापू वापस आव ||

आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||

मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना,  राखी का त्योहार ||

स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||

बारह बालाएं गईं, हुईं जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के आभार ||

नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||

सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||

इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||

जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||

बर्बादी खाद्यान  की, लो इकदम से रोक  | 
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||

राजा अब अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||