लड़कियों और महिलाओं के लिए नेचुरोपैथी में करिअर बनाना बहुत आसान भी है और बहुत लाभदायक भी. इसके ज़रिये वे खुद को और अपने परिवार को तंदरुस्त भी रख सकती हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी बन सकती हैं.
नेचुरोपैथी सीखने के लिए हमने भी औपचारिक रूप से D.N.Y.S. किया है। आजकल धनी लोग इस पैथी की तरफ़ रूख़ भी कर रहे हैं। रूपया काफ़ी है इसमें। फ़ाइव स्टारनुमा अस्पताल तक खुल चुके हैं नेचुरोपैथी के और इस तरह एक सादा चीज़ फिर व्यवसायिकता की भेंट चढ़ गई।
यह ऐसा है जैसे कि भारत में जिस संत ने भी एक ईश्वर की उपासना पर बल दिया, उसे ही जानबूझ कर उपासनीय बना दिया गया।
शिरडी के साईं बाबा इस की ताज़ा मिसाल हैं। उनसे पहले कबीर थे। यह उन लोगों ने किया जिन लोगों ने धर्म को व्यवसाय बना रखा है और एकेश्वरवाद से उनके धंधा चौपट होता है तो वे ऐसा करते हैं कि उनका धंधा चौपट करने वाले को भी वह देवता घोषित कर देते हैं।
जिन लोगों ने दवा को सेवा के बजाय बिज़नैस बना लिया है वे कभी नहीं चाह सकते कि उनका धंधा चौपट हो जाए और लोग जान लें कि वे मौसम, खान पान और व्यायाम करके निरोग रह भी सकते हैं और निरोग हो भी सकते हैं।
ईश्वर ने सेहतमंद रहने का वरदान दिया था लेकिन हमने क़ुदरत के नियमों की अवहेलना की और हम बीमारियों में जकड़ते गए। हमें तौबा की ज़रूरत है। ‘तौबा‘ का अर्थ है ‘पलटना‘ अर्थात हमें पलटकर वहीं आना है जहां हमारे पूर्वज थे जो कि क़ुदरत के नियमों का पालन करते थे। उनकी सेहत अच्छी थी और उनकी उम्र भी हमसे ज़्यादा थी। उनमें इंसानियत और शराफ़त हमसे ज़्यादा थी। हमारे पास बस साधन उनसे ज़्यादा हैं और इन साधनों को पाने के चक्कर में हमने अपनी सेहत भी खो दी है और अपनी ज़मीन की आबो हवा में भी ज़हर घोल दिया है। हमारे कर्म हमारे सामने आ रहे हैं।
अब तौबा और प्रायश्चित करके ही हम बच सकते हैं।
यह बात भी हमारे पूर्वज ही हमें सिखा गए हैं।
हमारे पूर्वज हमें योग भी सिखाकर गए थे लेकिन आज योग को भी व्यापार बना दिया गया है। जो व्यापार कर रहा है लोग उसे बाबा समझ रहे हैं।
हमारे पूर्वज हमें ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग‘ मुफ़्त में सिखाकर गए थे लेकिन अब यह कला सिखाने की बाक़ायदा फ़ीस वसूल की जाती है।
कोई भगवा पहनकर धंधा कर रहा है और सफ़ेद कपड़े पहनकर। इनकी आलीशान अट्टालिकाएं ही आपको बता देंगी कि ये ऋषि मुनियों के मार्ग पर हैं या उनसे हटकर चल रहे हैं ?
कुमार राधा रमण जी की यह पोस्ट भी आपके लिए मुफ़ीद है, देखिए:
प्राकृतिक जीवन पद्धति है नेचुरोपैथी Naturopathy in India
नेचुरोपैथी सीखने के लिए हमने भी औपचारिक रूप से D.N.Y.S. किया है। आजकल धनी लोग इस पैथी की तरफ़ रूख़ भी कर रहे हैं। रूपया काफ़ी है इसमें। फ़ाइव स्टारनुमा अस्पताल तक खुल चुके हैं नेचुरोपैथी के और इस तरह एक सादा चीज़ फिर व्यवसायिकता की भेंट चढ़ गई।
यह ऐसा है जैसे कि भारत में जिस संत ने भी एक ईश्वर की उपासना पर बल दिया, उसे ही जानबूझ कर उपासनीय बना दिया गया।
शिरडी के साईं बाबा इस की ताज़ा मिसाल हैं। उनसे पहले कबीर थे। यह उन लोगों ने किया जिन लोगों ने धर्म को व्यवसाय बना रखा है और एकेश्वरवाद से उनके धंधा चौपट होता है तो वे ऐसा करते हैं कि उनका धंधा चौपट करने वाले को भी वह देवता घोषित कर देते हैं।
जिन लोगों ने दवा को सेवा के बजाय बिज़नैस बना लिया है वे कभी नहीं चाह सकते कि उनका धंधा चौपट हो जाए और लोग जान लें कि वे मौसम, खान पान और व्यायाम करके निरोग रह भी सकते हैं और निरोग हो भी सकते हैं।
ईश्वर ने सेहतमंद रहने का वरदान दिया था लेकिन हमने क़ुदरत के नियमों की अवहेलना की और हम बीमारियों में जकड़ते गए। हमें तौबा की ज़रूरत है। ‘तौबा‘ का अर्थ है ‘पलटना‘ अर्थात हमें पलटकर वहीं आना है जहां हमारे पूर्वज थे जो कि क़ुदरत के नियमों का पालन करते थे। उनकी सेहत अच्छी थी और उनकी उम्र भी हमसे ज़्यादा थी। उनमें इंसानियत और शराफ़त हमसे ज़्यादा थी। हमारे पास बस साधन उनसे ज़्यादा हैं और इन साधनों को पाने के चक्कर में हमने अपनी सेहत भी खो दी है और अपनी ज़मीन की आबो हवा में भी ज़हर घोल दिया है। हमारे कर्म हमारे सामने आ रहे हैं।
अब तौबा और प्रायश्चित करके ही हम बच सकते हैं।
यह बात भी हमारे पूर्वज ही हमें सिखा गए हैं।
हमारे पूर्वज हमें योग भी सिखाकर गए थे लेकिन आज योग को भी व्यापार बना दिया गया है। जो व्यापार कर रहा है लोग उसे बाबा समझ रहे हैं।
हमारे पूर्वज हमें ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग‘ मुफ़्त में सिखाकर गए थे लेकिन अब यह कला सिखाने की बाक़ायदा फ़ीस वसूल की जाती है।
कोई भगवा पहनकर धंधा कर रहा है और सफ़ेद कपड़े पहनकर। इनकी आलीशान अट्टालिकाएं ही आपको बता देंगी कि ये ऋषि मुनियों के मार्ग पर हैं या उनसे हटकर चल रहे हैं ?
कुमार राधा रमण जी की यह पोस्ट भी आपके लिए मुफ़ीद है, देखिए:
नेचुरोपैथी में करिअर
नेचुरोपैथी उपचार का न केवल सरल और व्यवहारिक तरीका प्रदान करता है , बल्कि यह तरीका स्वास्थ्य की नींव पर ध्यान देने का किफायती ढांचा भी प्रदान करता है। स्वास्थ्य और खुशहाली वापस लाने के कुदरती तरीकों के कारण यह काफी पॉप्युलर हो रहा है।
नेचुरोपैथी शरीर को ठीक - ठाक रखने के विज्ञान की प्रणाली है , जो शरीर में मौजूद शक्ति को प्रकृति के पांच महान तत्वों की सहायता से फिर से स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए उत्तेजित करती है। अन्य शब्दों में कहा जाए तो नेचुरोपथी स्वयं , समाज और पर्यावरण के साथ सामंजस्य करके जीने का सरल तरीका अपनाना है।
नेचुरोपैथी रोग प्रबंधन का न केवल सरल और व्यवहारिक तरीका प्रदान करता है , बल्कि एक मजबूत सैद्धांतिक आधार भी प्रदान करता है। यह तरीका स्वास्थ्य की नींव पर ध्यान देने का किफायती ढांचा भी प्रदान करता है। नेचुरोपथी पश्चिमी दुनिया के बाद दुनिया के अन्य हिस्सों में भी जीवन में खुशहाली वापस लाने के कुदरती तरीकों के कारण लोकप्रिय हो रहा है।
कुछ लोग इस पद्धति की शुरुआत करने वाले के रूप में फादर ऑफ मेडिसिन हिपोक्रेट्स को मानते हैं। कहा जाता है कि हिपोक्रेट्स ने नेचुरोपथी की वकालत करना तब शुरू कर दिया था , जब यह शब्द भी वजूद में नहीं था। आधुनिक नेचुरोपैथी की शुरुआत यूरोप के नेचर केयर आंदोलन से जुड़ी मानी जाती है। 1880 में स्कॉटलैंड में थॉमस एलिंसन ने हायजेनिक मेडिसिन की वकालत की थी। उनके तरीके में कुदरती खानपान और व्यायाम जैसी चीजें शामिल थीं और वह तंबाकू के इस्तेमाल और ज्यादा काम करने से मना करते थे।
नेचुरोपैथी शब्द ग्रीक और लैटिन भाषा से लिया गया है। नेचुरोपथी शब्द जॉन स्टील (1895) की देन है। इसे बाद में बेनडिक्ट लस्ट ( फादर ऑफ अमेरिकन नेचुरोपथी ) ने लोकप्रिय बनाया। आज इस शब्द और पद्धति की इतनी लोकप्रियता है कि कुछ लोग तो इसे समय की मांग तक कहने लगे हैं। लस्ट का नेचुरोपैथी के क्षेत्र में काफी योगदान रहा। उनका तरीका भी थॉमस एलिंसन की तरह ही था। उन्होंने इसे महज एक तरीके की जगह इसे बड़ा विषय करार दिया और नेचुरोपथी में हर्बल मेडिसिन और हाइड्रोथेरेपी जैसी चीजों को भी शामिल किया।
क्या है नेचुरोपैथी
यह कुदरती तरीके से स्वस्थ जिंदगी जीने की कला है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि इस पद्धति के जरिये व्यक्ति का उपचार बिना दवाइयों के किया जाता है। इसमें स्वास्थ्य और रोग के अपने अलग सिद्धांत हैं और उपचार की अवधारणाएं भी अलग प्रकार की हैं। आधुनिक जमाने में भले इस पद्धति की यूरोप में शुरुआत हुई हो , लेकिन अपने वेदों और प्राचीन शास्त्रों में अनेकों स्थान पर इसका उल्लेख मिलता है। अपने देश में नेचुरोपैथी की एक तरह से फिर से शुरुआत जर्मनी के लुई कुहने की पुस्तक न्यू साइंस ऑफ हीलिंग के अनुवाद के बाद माना जाता है। डी वेंकट चेलापति ने 1894 में इस पुस्तक का अनुवाद तेलुगु में किया था। 20 वीं सदी में इस पुस्तक का अनुवाद हिंदी और उर्दू वगैरह में भी हुआ। इस पद्धति से गांधी जी भी प्रभावित थे। उन पर एडोल्फ जस्ट की पुस्तक रिटर्न टु नेचर का काफी प्रभाव था।
नेचुरोपथी का स्वरूप
मनुष्य की जीवन शैली और उसके स्वास्थ्य का अहम जुड़ाव है। चिकित्सा के इस तरीके में प्रकृति के साथ जीवनशैली का सामंजस्य स्थापित करना मुख्य रूप से सिखाया जाता है। इस पद्धति में खानपान की शैली और हावभाव के आधार पर इलाज किया जाता है। रोगी को जड़ी - बूटी आधारित दवाइयां दी जाती हैं। कहने का अर्थ यह है कि दवाइयों में किसी भी प्रकार के रसायन के इस्तेमाल से बचा जाता है। ज्यादातर दवाइयां भी नेचुरोपथी प्रैक्टिशनर खुद तैयार करते हैं।
कौन - कौन से कोर्स
इस समय देश में एक दर्जन से ज्यादा कॉलेजों में नेचुरोपैथी की पढ़ाई देश में स्नातक स्तर पर मुहैया कराई जा रही है। इसके तहत बीएनवाईएस ( बैचलर ऑफ नेचुरोपथी एंड योगा साइंस ) की डिग्री दी जाती है। कोर्स की अवधि साढ़े पांच साल की रखी गई है।
अवसर
संबंधित कोर्स करने के बाद स्टूडेंट्स के पास नौकरी या अपना प्रैक्टिस शुरू करने जैसे मौके होते हैं। सरकारी और निजी अस्पतालों में भी इस पद्धति को पॉप्युलर किया जा रहा है। खासकर सरकारी अस्पतालों में भारत सरकार का आयुष विभाग इसे लोकप्रिय बनाने में लगा है। ऐसे अस्पतालों में नेचुरोपैथी के अलग से डॉक्टर भी रखे जा रहे हैं। अगर आप निजी व्यवसाय करना चाहते हैं तो क्लीनिक भी खोल सकते हैं। अच्छे जानकारों के पास नेचुरोपैथी शिक्षण केन्द्रों में शिक्षक के रूप में भी काम करने के अवसर उपलब्ध हैं। आप चाहें तो दूसरे देशों में जाकर काम करने के अवसर भी पा सकते हैं।
क्वॉलिफिकेशन
अगर आप इस फील्ड में जाकर अपना करियर बनाना चाहते हैं तो आपके पास न्यूनतम शैक्षिक योग्यता 12 वीं है। 12 वीं फिजिक्स , केमिस्ट्री और बायॉलजी विषयों के साथ होनी चाहिए(निर्भय कुमार,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,1.2.12)।
Source :http://www.commentsgarden.blogspot.in/2012/02/naturopathy-in-india.html
नेचुरोपैथी शरीर को ठीक - ठाक रखने के विज्ञान की प्रणाली है , जो शरीर में मौजूद शक्ति को प्रकृति के पांच महान तत्वों की सहायता से फिर से स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए उत्तेजित करती है। अन्य शब्दों में कहा जाए तो नेचुरोपथी स्वयं , समाज और पर्यावरण के साथ सामंजस्य करके जीने का सरल तरीका अपनाना है।
नेचुरोपैथी रोग प्रबंधन का न केवल सरल और व्यवहारिक तरीका प्रदान करता है , बल्कि एक मजबूत सैद्धांतिक आधार भी प्रदान करता है। यह तरीका स्वास्थ्य की नींव पर ध्यान देने का किफायती ढांचा भी प्रदान करता है। नेचुरोपथी पश्चिमी दुनिया के बाद दुनिया के अन्य हिस्सों में भी जीवन में खुशहाली वापस लाने के कुदरती तरीकों के कारण लोकप्रिय हो रहा है।
कुछ लोग इस पद्धति की शुरुआत करने वाले के रूप में फादर ऑफ मेडिसिन हिपोक्रेट्स को मानते हैं। कहा जाता है कि हिपोक्रेट्स ने नेचुरोपथी की वकालत करना तब शुरू कर दिया था , जब यह शब्द भी वजूद में नहीं था। आधुनिक नेचुरोपैथी की शुरुआत यूरोप के नेचर केयर आंदोलन से जुड़ी मानी जाती है। 1880 में स्कॉटलैंड में थॉमस एलिंसन ने हायजेनिक मेडिसिन की वकालत की थी। उनके तरीके में कुदरती खानपान और व्यायाम जैसी चीजें शामिल थीं और वह तंबाकू के इस्तेमाल और ज्यादा काम करने से मना करते थे।
नेचुरोपैथी शब्द ग्रीक और लैटिन भाषा से लिया गया है। नेचुरोपथी शब्द जॉन स्टील (1895) की देन है। इसे बाद में बेनडिक्ट लस्ट ( फादर ऑफ अमेरिकन नेचुरोपथी ) ने लोकप्रिय बनाया। आज इस शब्द और पद्धति की इतनी लोकप्रियता है कि कुछ लोग तो इसे समय की मांग तक कहने लगे हैं। लस्ट का नेचुरोपैथी के क्षेत्र में काफी योगदान रहा। उनका तरीका भी थॉमस एलिंसन की तरह ही था। उन्होंने इसे महज एक तरीके की जगह इसे बड़ा विषय करार दिया और नेचुरोपथी में हर्बल मेडिसिन और हाइड्रोथेरेपी जैसी चीजों को भी शामिल किया।
क्या है नेचुरोपैथी
यह कुदरती तरीके से स्वस्थ जिंदगी जीने की कला है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि इस पद्धति के जरिये व्यक्ति का उपचार बिना दवाइयों के किया जाता है। इसमें स्वास्थ्य और रोग के अपने अलग सिद्धांत हैं और उपचार की अवधारणाएं भी अलग प्रकार की हैं। आधुनिक जमाने में भले इस पद्धति की यूरोप में शुरुआत हुई हो , लेकिन अपने वेदों और प्राचीन शास्त्रों में अनेकों स्थान पर इसका उल्लेख मिलता है। अपने देश में नेचुरोपैथी की एक तरह से फिर से शुरुआत जर्मनी के लुई कुहने की पुस्तक न्यू साइंस ऑफ हीलिंग के अनुवाद के बाद माना जाता है। डी वेंकट चेलापति ने 1894 में इस पुस्तक का अनुवाद तेलुगु में किया था। 20 वीं सदी में इस पुस्तक का अनुवाद हिंदी और उर्दू वगैरह में भी हुआ। इस पद्धति से गांधी जी भी प्रभावित थे। उन पर एडोल्फ जस्ट की पुस्तक रिटर्न टु नेचर का काफी प्रभाव था।
नेचुरोपथी का स्वरूप
मनुष्य की जीवन शैली और उसके स्वास्थ्य का अहम जुड़ाव है। चिकित्सा के इस तरीके में प्रकृति के साथ जीवनशैली का सामंजस्य स्थापित करना मुख्य रूप से सिखाया जाता है। इस पद्धति में खानपान की शैली और हावभाव के आधार पर इलाज किया जाता है। रोगी को जड़ी - बूटी आधारित दवाइयां दी जाती हैं। कहने का अर्थ यह है कि दवाइयों में किसी भी प्रकार के रसायन के इस्तेमाल से बचा जाता है। ज्यादातर दवाइयां भी नेचुरोपथी प्रैक्टिशनर खुद तैयार करते हैं।
कौन - कौन से कोर्स
इस समय देश में एक दर्जन से ज्यादा कॉलेजों में नेचुरोपैथी की पढ़ाई देश में स्नातक स्तर पर मुहैया कराई जा रही है। इसके तहत बीएनवाईएस ( बैचलर ऑफ नेचुरोपथी एंड योगा साइंस ) की डिग्री दी जाती है। कोर्स की अवधि साढ़े पांच साल की रखी गई है।
अवसर
संबंधित कोर्स करने के बाद स्टूडेंट्स के पास नौकरी या अपना प्रैक्टिस शुरू करने जैसे मौके होते हैं। सरकारी और निजी अस्पतालों में भी इस पद्धति को पॉप्युलर किया जा रहा है। खासकर सरकारी अस्पतालों में भारत सरकार का आयुष विभाग इसे लोकप्रिय बनाने में लगा है। ऐसे अस्पतालों में नेचुरोपैथी के अलग से डॉक्टर भी रखे जा रहे हैं। अगर आप निजी व्यवसाय करना चाहते हैं तो क्लीनिक भी खोल सकते हैं। अच्छे जानकारों के पास नेचुरोपैथी शिक्षण केन्द्रों में शिक्षक के रूप में भी काम करने के अवसर उपलब्ध हैं। आप चाहें तो दूसरे देशों में जाकर काम करने के अवसर भी पा सकते हैं।
क्वॉलिफिकेशन
अगर आप इस फील्ड में जाकर अपना करियर बनाना चाहते हैं तो आपके पास न्यूनतम शैक्षिक योग्यता 12 वीं है। 12 वीं फिजिक्स , केमिस्ट्री और बायॉलजी विषयों के साथ होनी चाहिए(निर्भय कुमार,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,1.2.12)।
Source :http://www.commentsgarden.blogspot.in/2012/02/naturopathy-in-india.html
14 टिप्पणियां:
----आप और कुमार राधारमण भी वही कर रहे हैं जिन अन्य लोगों की आप आलोचना कर रहे हैं......
---- नेचुरोपेथी...का सही भारतीय शब्द ’प्राक्रतिक चिकित्सा ’ है...आप क्यों इस चिकित्सा के लिये विदेशों में, विदेशी पुस्तकों, चिकित्सा शास्त्रों में घूम रहे है, उन्ही का लिखा-लिखाया उगले जा रहे हैं, अपनी पोस्टों-अलेखों में,.. अपने धन्धे को चलाने के लिये?
---- कुछ भारतीय सन्दर्भों को भी टटोलिये...सामने लाइये..
सही कहा आपने!...नैचरोपैथी भारतीयों के लिए नई नहीं है....लेकिन इसे व्यावसायिक तौर पर इस्तेमाल किया जा रहे!...योग या जीवन जीने की कला भी भारत की प्राचीन संपत्ति है..लेकिन इसे भी बाबा और योगगुरु 'बाजार की चीज-वस्तु' बना कर बेच रहे है!
...जरुरत है भारत की इन निजी संपत्तियों को आसानी से जन जन तक पहुंचाने की!
दिव्य प्राचीन भारतीय औषधियां
@ डा. श्याम गुप्ता जी !
1. पोस्ट लिखकर हमने हिंदी ब्लॉगर्स को नेचुरोपैथी की प्रेरणा दी है, जो लोग करेंगे इससे उनकी तक़दीर संवरेगी, हमारा धंधा इस पोस्ट से चमकने वाला नहीं है।
2. आप अपने नाम के साथ अंग्रज़ी का शब्द डॉक्टर लिखते हैं, क्यों ?
क्या डॉक्टर के लिए हिंदी में कोई शब्द नहीं है ?
3. हर बात पर बेवजह ऐतराज़ करना ठीक नहीं होता।
प्राकृतिक चिकित्सा के मुक़ाबले नेचुरोपैथी शब्द सरल है और इसे लोग समझते भी हैं, इसीलिए हमने इसे इस्तेमाल किया है।
4. कृप्या ध्यान दीजिए कि नेचर या प्रकृति के समीप रहना केवल भारतीय ही नहीं जानते थे। हरेक काल में हरेक देश के किसान और ग़रीब मज़दूर हमेशा ही प्रकृति के क़रीब रहे हैं। ये लोग हमेशा से ही मिटटी, पानी और जड़ी बूटियों का इस्तेमाल जानते रहे हैं। यहां तक कि इन चीज़ों का इस्तेमाल करना वे भी सदा से जानते हैं जिन्हें जंगली जानवर कहा जाता है। भारत के लोग भी जानते थे लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल भारत के लोग ही प्रकृति के वरदानों का इस्तेमाल जानते थे और दूसरे सब बिल्कुल कोरे ही थे।
5. आप भारतीय चिकित्सा विज्ञानियों के ज्ञान का उद्धरण देने का आग्रह कर ही रहे हैं तो आपके मानवर्धन हेतु हम यहां कहना चाहेंगे कि प्राचीन भारतीय चिकित्सकों के नुस्ख़े बहुत कारगर हैं, दुख की बात यह है कि इन्हें बताने वाला भी आज कोई बिरला ही है, आप चाहें तो इसका लाभ उठा सकते हैं -
बर्हितित्तरिदक्षाणां हंसानां शूकरोष्ट्रयोः
खरगोमहिषाणां च मांसं मांसकरं परम्.
-चरकसंहिता चिकित्सा स्थानानम् 8,158
अर्थात मोर,तीतर,मुरग़ा,हंस,सुअर,ऊंट,गधा,गाय और भैंस का मांस रोगी के शरीर का मांस बढ़ाने के लिए यक्ष्मा रोगी के लिए उत्तम है.
आप चाहें तो इस पर शोध करके यक्ष्मा की कोई जल्दी असर करने वाली औषधि भी बना सकते हैं।
सारा विश्व आपकी प्रतिभा का लोहा मान जाएगा लेकिन हमें तो यह लगता है कि आप इस नुस्ख़े का ज़िक्र भी कहीं न करेंगे।
भारतीय ऋषि तो बहुत कुछ जानते थे और बहुत कुछ करते थे,
आप कहां उनके ज्ञान का प्रचार प्रसार कर पाएंगे ?
@ डा. अरूणा कपूर जी ! आपने लेख की मंशा को समझा, इसके लिए आपका शुक्रिया !
नेचर के वरदानों की जानकारी आम करके ही हम इस पर किसी व्यक्ति या किसी कंपनी का एकाधिकार होने से रोक सकते हैं।
बड़े काम की पोस्ट |
बहुत ज्ञानवर्धक लेख है , जमाल साहब को तो अक्सर खाने में गधा घोडा ही नजर आता है .
गांधी जी का प्राकृतिक चिकित्सा में काफ़ी विश्वास था। बहुत से असाध्य बीमारियों का उन्होंने निदान ढूंढ़ निकाला।
आज तो इन सब से लोगों का विश्वास ही उठता जा रहा है। आपने ब्लॉग जगत को इस आलेख के माध्यम से एक अनुपम उपहार दिया है।
जमाल साहब,
माँस को किसी भी प्रचीन चिकित्सा शास्त्र में औषध में शुमार नहीं किया गया है न आज का आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इसे दवा मानता है। आजकल तो उंट वेध भी इसका प्रयोग नहीं बताते।
यह सब कहना रोगियों के साथ खिलवाड है। जो डॉक्टर नामधारी को कत्तई शोभा नहीं देता।
चरक के उक्त श्रलोक में 'रोगी' शब्द ही नहीं है। उलट यह कहा गया है कि इन पशु-पक्षियों माँस खाकर मनुष्य अपना माँस मेद बढाता है।
और शूकर के मांस एडवाईज भी आपको शोभा नहीं देता।
एक ब्लॉगर के तौर पर डाक्टर श्याम गुप्त जी का मैं प्रशंसक हूं। किंतु यह देखकर दुख होता है कि जब बात सीधे विषय पर करना बिल्कुल संभव हो,तब भी लोग व्यक्तिगत राग-द्वेष से स्वयं को मुक्त रखना उचित नहीं समझते। वे भी नहीं,जो कवि-हृदय हैं और अच्छे विचारक माने जाते हैं।
मैं किसी वाद को बढ़ावा देने के लिए नहीं हूं। अपनी ओर से कुछ कहता भी नहीं हूं क्योंकि मेरी बुद्धि सीमित है और ब्लॉग जगत में पहले ही से ज्ञानियों की भरमार है। जो विशेषज्ञ कह रहे हैं,उसे ही एक मंच पर लाने का प्रयास कर रहा हूं जो धंधा बिल्कुल नहीं है। इस ब्लॉग पर यथासंभव हर विधा की चिकित्सा को स्थान देने का प्रयास रहता है। यदि मैं फुलटाइम ब्लॉगर होता,तो निश्चय ही अन्य चिकित्सा विधाओं से जुड़ी सामग्री को और अधिक स्थान दे पाना संभव होता,यद्यपि आप यह भी मानेंगे कि हर चिकित्सा विधा स्वयं के पूर्ण होने का दावा करती है किंतु उनमें से अधिकतर की प्रामाणिकता संदिग्ध है। मैं समझता हूं कि इसके बावजूद अनेक पाठक इस ब्लॉग से लाभान्वित हुए हैं। अच्छे स्वास्थ्य के लिए आप भी मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें।
--सही कहा सुग्य जी...जमाल साहब को तो खाने में सिर्फ़ जानवर-पक्षी ही नज़र आते हैं...अपितु वेदों में लिखे हुए भी .....
--- ---- सही कहा राधारमण जी ने ..हां , कुछ भारतीय सन्दर्भों को भी टटोलिये...सामने लाइये..
"हर चिकित्सा विधा स्वयं के पूर्ण होने का दावा करती है किंतु उनमें से अधिकतर की प्रामाणिकता संदिग्ध है।"---प्रामाणिकता विधा की अथवा पूर्ण होने के दावे की??
---निश्चय ही आयुर्वेद आदि विधायें प्रमाणिक ही हैं .....परन्तु पूर्णता की बात है तो वह तो कहीं भी नही है ......
Thanks for the nice information.
It is always good for the humans to remain with the nature.
waah badi acchi jankari.
so should all of us not remain in woods with nature....
nice post ..thanks a lot
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