अभिभूतमुपागता काया या शुभ्रेयम पराग पद्मोपसेविता . महत्चित्रम नव कल्पितम भीरुह षोडशांगी सा भवेत् .
अवलेहादि कृतम सूत्रम दाडिम जम्बू प्रकल्पितम . अर्पितमादि देवो यो गणपति चिर यौवन खलु जायते.
अर्थात कमल के बीज के चूर्ण को सफ़ेद अन्य किसी मिश्रण से रहित मिट्टी में नियंत्रित श्वास क़ी अवधि में जो नियमित एक माला जपने में लाता है, परस्पर बिलों कर हे सुन्दरी षोडशांगी ! लगाओ . महान आश्चर्य क़ी बात है, मैं तुम्हारे योग्य (भर्ता) बन जाउंगा. अनार एवं जामुन के सेवित बीज के चूर्ण उपर्युक्त मिश्रण में मिलाकर अवलेह बनाओ. यह तुम्हें भी आदि देव गणपति क़ी कृपा से चिर यौवन प्रदान करेगा.
यह आख्यान राजा शर्यती के शासन काल का है. जब उनकी पुत्री सुकन्या एक बार अपनी अनुचरी बालाओं के साथ अरण्य विहार के लिये महल से दूर आरक्षित जंगल में गयी हुई थी. अचानक उसे जंगल में एक जगह सफ़ेद मिट्टी का ढेर दिखाई दिया. उसके ऊपरी हिस्से से बहुत ही तेज़ प्रकाश क़ी दो किरणें निकल रही थीं. उसे बहुत ही आश्चर्य हुआ. उसने एक बहुत ही तेज़ एवं नुकीला काँटा उठाया तथा उससे निकलने वाले प्रकाश के छिद्र में घुसा दिया. तत्काल ही उससे रक्त क़ी धाराएं निकल पडीं. सुकन्या बहुत ही भयभीत हो गयी. वह घबराये मन से दुखी होकर महल वापस आ गयी. उधर महाराजा शर्याति के राज्य में बहुत ही अनिष्ट हुआ. सारी प्रजा के मल मूत्र अवरुद्ध हो गये. सब पीड़ा से छातपाताने लगे. कोई भी औषधि उपयोगी साबित नहीं हो रही थी. राज्य के सारे वैद्य थक गये. अंत में राजा ने अपने कुल ज्योतिषी से इसके बारे में विचार विमर्श किया. राज ज्योतिषी ने बताया कि आप के राज्य के किसी व्यक्ति ने महर्षि च्यवन का अपमान कर दिया है. वह आप के ही राज्य के जंगल में तपस्या कर रहे है. उन्हीं के कोप से प्रजा क़ी यह दशा हुई है. आप शीघ्र ही उन्हें प्रसन्न करने का यत्न करें.
महाराज अपने महल में वापस आये. उन्होंने अपनी महारानी से यह बात बतायी. उनकी पुत्री ने भी वह बात सुनी. उसने सब बात सच्चाई के साथ बता दिया. राजा अपनी महारानी, पुत्री, मंत्री एवं अन्य गणमान्य लोगो के साथ जंगल में वहां पहुंचे जहां पर च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे. राजा ने देखा कि वह दर्द से छटपटा रहे है. राजा ने पूरे परिवार के साथ मत्था टेक कर ऋषिवर को दंडवत किया. तथा सारा विवरण बताया. फिर पूछा कि हे ऋषिवर आप स्वस्थ होने का कोई उपाय बताएं. ऋषि च्यवन ने कहा-
“प्रजापतेर्जात चित्रोर्वीम खलु रसेश गंधोपसमुद्र छिश्तः .
गरोर्द्वायाम शीतध्रिंग राजः चक्षुर्निलय मम अवस्थितो यत.”
अर्थात हे राजन ! यदि मेरी पत्नी नील वर्ण के पुष्प से युक्त ब्राह्मी घास को रोहिणी नक्षत्र के चन्द्रमा के रहते उसकी किरणों में समुद्र फेन में पाक कर माजू फल, श्वेत चन्दन एवं हल्दी के आर्द्र अवलेह में मिलाकर मेरी आँखों के गड्ढे में डालें तों मेरी आँखें पुनः रोशनी प्राप्त कर सकती है.
किन्तु ऋषि का तों विवाह ही नहीं हुआ था. उनकी पत्नी कहाँ से आयेगी? राजा ने यह बात ऋषि से ही पूछी. ऋषि ने कहा कि जिस कन्या ने मेरी आँखें फोडी है उसी से मेरी शादी होगी. कुछ देर के लिये राजा मूर्छित हो गये. किन्तु अपनी प्रजा का ध्यान कर तथा अपने कुल को ऋषि के शाप से बचाने के लिये पहले उन्होंने अपनी पुत्री सुकन्या से यह बात पूछा. सुकन्या तैयार हो गयी. राजा ने एक सप्ताह के अन्दर सारी औषधियां एकत्र करवाया. तब तक चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश कर गया. फिर सबका अवलेह बनवाकर ऋषि क़ी आँखों में डाला गया. उनकी आँखें फिर से रोशनी पा गयीं.
सुकन्या ऋषि क़ी सेवा सुश्रुषा में लग गयी. कुछ दिनों बाद वह ऋषि क़ी सेवा में पूरी तरह तन मन धन से रत हो गयी. एक दिन वह बहुत ही उदास बैठी थी. ऋषि ने उसकी उदासी का कारण पूछा. रोते हुए सुकन्या बोली कि हे ऋषिवर ! मैं अपने माता पिता क़ी एकलौती संतान थी. माता पिता ने मुझे लेकर अनेक सपने देखे थे. किन्तु मै अभागी उनके सारे सपने धूल धूसरित कर दिये. अपनी छोटी सी चूक से मा बाप को जीते जी मार डाला. ऋषि बोले “हे वरारोहे ! तुम यदि चाहो तों अपने मा बाप के पास वापस जा सकती हो.” सुकन्या बोली कि हे ऋषिवर ! किसी भी स्त्री के द्वारा पति का वरण एक ही बार किया जाता है. द्विवर या देवर ग्रहण से धर्म का दूसरा पाँव अर्थात मर्यादित आचरण समाप्त हो जाता है. उसके बाद तीसरे व्यक्ति को ग्रहण करने से परासव नामक धर्म का तीसरा पाँव अर्थात संबंधो क़ी महता एवं आवश्यकता यथा मा-बाप, भाई बहन, मामा चाचा आदि का सम्बन्ध दूषित हो जाता है. चौथे व्यक्ति को ग्रहण करने से अपघट्टू नामक धर्म का चौथा पाँव भी समाप्त हो जाता है. अर्थात मनुष्य एवं जन्तु का भेद समाप्त हो जाता है. ऋषि ने पूछा कि धर्म के दूसरे, तीसरे एवं चौथे पाँव के बारे में तों तुमने बताया. किन्तु पहले पाँव का नाश कब होता है.? सुकन्या ने बताया कि विवाह के बंधन में बंधते ही धर्म का प्रथम पाँव बुभुक्षा नष्ट हो जाता है. अर्थात मनुष्य सांसारिक बंधन के जकडन भरे पाश में बंध कर सदा सदा के लिये परतंत्र हो जाता है. तथा वह मोक्ष क़ी राह से दूर हो जाता है. ऋषि ने पूछा कि क्या जो लोग विवाह के बंधन में बंध जाते है उनका मोक्ष नहीं होता? सुकन्या बोली कि उन्हें स्वर्ग भले ही प्राप्त हो किन्तु मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है. फिर ऋषि ने पूछा कि उनके मोक्ष का मार्ग क्या है? सुकन्या बोली कि हे ऋषिवर ! पुनर्जन्म के उपरांत पूर्व क़ी त्रुटियों का परिमार्जन ही एक मात्र विकल्प है. फिर ऋषि ने पूछा कि फिर पुत्र क़ी क्या उपादेयता है? सुकन्या बोली कि जो “पुम” नाम के नरक से “त्राण” या मुक्ति दिलाये वह पुत्र है. ऋषि बोले कि पुत्र तों औरस भी होते है. दत्तक भी ही होते है. तों किस पुत्र से यह लाभ मिल सकता है. सुकन्या बोली कि कोई भी पुत्र हो वह इस नरक से छुटकारा दिला सकता है. ऋषि बोले कि फिर एक ही पति क्यों? पुत्र तों बिना विवाह के किसी भी पुरुष या स्त्री के संयोग से उत्पन्न हो सकता है.? सुकन्या बोली कि हे ऋषिवर ! इसीलिये उसे मात्र पुत्र ही कहते है किन्तु संतान नहीं. क्योकि “सम” अर्थात समान ‘तन” से जो उत्पन्न हो वह संतान कहलाता है. ऋषि ने पूछा कि फिर वह कौन सा सुख या उपलब्धि है जो संतान देता है किन्तु पुत्र नहीं? सुकन्या बोली कि-
“लोकान्तरं सुखं पुण्यं तपो दान समुद्भवं. संततिः शुद्ध वंशया हि परत्रेह च शर्मणे”
अर्थात तप, दान आदि से परलोक में सुख मिलता है. पुत्र से शारीरिक सुख जैसे वासना क़ी पूर्ती, उसके बाद पुत्र से आशा करना कि वह बुढापे में देख रेख करेगा आदि, किन्तु शुद्ध वंश में उत्पन्न संतान लोक एवं परलोक दोनों में सुख शान्ति देती है.
ऋषिवर च्यवन सुकन्या के इस भेद विभेद भरे तार्किक एवं शास्त्रीय कथोपकथन से बहुत ही प्रभावित हुए तथा उन्होंने काहा कि हे सुकन्या आज तुम्हारे सार आख्यान एवं अपने तपोबल से अपने को कुमार एवं तुम्हें चिर यौवना बनाता हूँ. जिससे तुम्हारी मा बाप का संताप दूर हो जाय.
उसके बाद ऋषि ऩे इस लेख के प्रारम्भ में मैंने जो संस्कृत का श्लोक लिखा है उसे सुकन्या को सुनाया. सुकन्या ऩे उसके अनुसार सारी व्यवस्था क़ी. ऋषि च्यवन ऩे अष्टांगिक अवलेह तैयार किया. तथा लेप भी तैयार किया. जिसके सेवन से ऋषि च्यवन युवावस्था को प्राप्त हो गये. तथा लेप लगाने से सुकन्या चिर यौवना बन गयी. वही अवलेह आज भी “च्यवन प्राश” के नाम से विविध कम्पनियां बनाती है.
द्वारा
पण्डित आर. के. राय
प्रयाग
अवलेहादि कृतम सूत्रम दाडिम जम्बू प्रकल्पितम . अर्पितमादि देवो यो गणपति चिर यौवन खलु जायते.
अर्थात कमल के बीज के चूर्ण को सफ़ेद अन्य किसी मिश्रण से रहित मिट्टी में नियंत्रित श्वास क़ी अवधि में जो नियमित एक माला जपने में लाता है, परस्पर बिलों कर हे सुन्दरी षोडशांगी ! लगाओ . महान आश्चर्य क़ी बात है, मैं तुम्हारे योग्य (भर्ता) बन जाउंगा. अनार एवं जामुन के सेवित बीज के चूर्ण उपर्युक्त मिश्रण में मिलाकर अवलेह बनाओ. यह तुम्हें भी आदि देव गणपति क़ी कृपा से चिर यौवन प्रदान करेगा.
यह आख्यान राजा शर्यती के शासन काल का है. जब उनकी पुत्री सुकन्या एक बार अपनी अनुचरी बालाओं के साथ अरण्य विहार के लिये महल से दूर आरक्षित जंगल में गयी हुई थी. अचानक उसे जंगल में एक जगह सफ़ेद मिट्टी का ढेर दिखाई दिया. उसके ऊपरी हिस्से से बहुत ही तेज़ प्रकाश क़ी दो किरणें निकल रही थीं. उसे बहुत ही आश्चर्य हुआ. उसने एक बहुत ही तेज़ एवं नुकीला काँटा उठाया तथा उससे निकलने वाले प्रकाश के छिद्र में घुसा दिया. तत्काल ही उससे रक्त क़ी धाराएं निकल पडीं. सुकन्या बहुत ही भयभीत हो गयी. वह घबराये मन से दुखी होकर महल वापस आ गयी. उधर महाराजा शर्याति के राज्य में बहुत ही अनिष्ट हुआ. सारी प्रजा के मल मूत्र अवरुद्ध हो गये. सब पीड़ा से छातपाताने लगे. कोई भी औषधि उपयोगी साबित नहीं हो रही थी. राज्य के सारे वैद्य थक गये. अंत में राजा ने अपने कुल ज्योतिषी से इसके बारे में विचार विमर्श किया. राज ज्योतिषी ने बताया कि आप के राज्य के किसी व्यक्ति ने महर्षि च्यवन का अपमान कर दिया है. वह आप के ही राज्य के जंगल में तपस्या कर रहे है. उन्हीं के कोप से प्रजा क़ी यह दशा हुई है. आप शीघ्र ही उन्हें प्रसन्न करने का यत्न करें.
महाराज अपने महल में वापस आये. उन्होंने अपनी महारानी से यह बात बतायी. उनकी पुत्री ने भी वह बात सुनी. उसने सब बात सच्चाई के साथ बता दिया. राजा अपनी महारानी, पुत्री, मंत्री एवं अन्य गणमान्य लोगो के साथ जंगल में वहां पहुंचे जहां पर च्यवन ऋषि तपस्या कर रहे थे. राजा ने देखा कि वह दर्द से छटपटा रहे है. राजा ने पूरे परिवार के साथ मत्था टेक कर ऋषिवर को दंडवत किया. तथा सारा विवरण बताया. फिर पूछा कि हे ऋषिवर आप स्वस्थ होने का कोई उपाय बताएं. ऋषि च्यवन ने कहा-
“प्रजापतेर्जात चित्रोर्वीम खलु रसेश गंधोपसमुद्र छिश्तः .
गरोर्द्वायाम शीतध्रिंग राजः चक्षुर्निलय मम अवस्थितो यत.”
अर्थात हे राजन ! यदि मेरी पत्नी नील वर्ण के पुष्प से युक्त ब्राह्मी घास को रोहिणी नक्षत्र के चन्द्रमा के रहते उसकी किरणों में समुद्र फेन में पाक कर माजू फल, श्वेत चन्दन एवं हल्दी के आर्द्र अवलेह में मिलाकर मेरी आँखों के गड्ढे में डालें तों मेरी आँखें पुनः रोशनी प्राप्त कर सकती है.
किन्तु ऋषि का तों विवाह ही नहीं हुआ था. उनकी पत्नी कहाँ से आयेगी? राजा ने यह बात ऋषि से ही पूछी. ऋषि ने कहा कि जिस कन्या ने मेरी आँखें फोडी है उसी से मेरी शादी होगी. कुछ देर के लिये राजा मूर्छित हो गये. किन्तु अपनी प्रजा का ध्यान कर तथा अपने कुल को ऋषि के शाप से बचाने के लिये पहले उन्होंने अपनी पुत्री सुकन्या से यह बात पूछा. सुकन्या तैयार हो गयी. राजा ने एक सप्ताह के अन्दर सारी औषधियां एकत्र करवाया. तब तक चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश कर गया. फिर सबका अवलेह बनवाकर ऋषि क़ी आँखों में डाला गया. उनकी आँखें फिर से रोशनी पा गयीं.
सुकन्या ऋषि क़ी सेवा सुश्रुषा में लग गयी. कुछ दिनों बाद वह ऋषि क़ी सेवा में पूरी तरह तन मन धन से रत हो गयी. एक दिन वह बहुत ही उदास बैठी थी. ऋषि ने उसकी उदासी का कारण पूछा. रोते हुए सुकन्या बोली कि हे ऋषिवर ! मैं अपने माता पिता क़ी एकलौती संतान थी. माता पिता ने मुझे लेकर अनेक सपने देखे थे. किन्तु मै अभागी उनके सारे सपने धूल धूसरित कर दिये. अपनी छोटी सी चूक से मा बाप को जीते जी मार डाला. ऋषि बोले “हे वरारोहे ! तुम यदि चाहो तों अपने मा बाप के पास वापस जा सकती हो.” सुकन्या बोली कि हे ऋषिवर ! किसी भी स्त्री के द्वारा पति का वरण एक ही बार किया जाता है. द्विवर या देवर ग्रहण से धर्म का दूसरा पाँव अर्थात मर्यादित आचरण समाप्त हो जाता है. उसके बाद तीसरे व्यक्ति को ग्रहण करने से परासव नामक धर्म का तीसरा पाँव अर्थात संबंधो क़ी महता एवं आवश्यकता यथा मा-बाप, भाई बहन, मामा चाचा आदि का सम्बन्ध दूषित हो जाता है. चौथे व्यक्ति को ग्रहण करने से अपघट्टू नामक धर्म का चौथा पाँव भी समाप्त हो जाता है. अर्थात मनुष्य एवं जन्तु का भेद समाप्त हो जाता है. ऋषि ने पूछा कि धर्म के दूसरे, तीसरे एवं चौथे पाँव के बारे में तों तुमने बताया. किन्तु पहले पाँव का नाश कब होता है.? सुकन्या ने बताया कि विवाह के बंधन में बंधते ही धर्म का प्रथम पाँव बुभुक्षा नष्ट हो जाता है. अर्थात मनुष्य सांसारिक बंधन के जकडन भरे पाश में बंध कर सदा सदा के लिये परतंत्र हो जाता है. तथा वह मोक्ष क़ी राह से दूर हो जाता है. ऋषि ने पूछा कि क्या जो लोग विवाह के बंधन में बंध जाते है उनका मोक्ष नहीं होता? सुकन्या बोली कि उन्हें स्वर्ग भले ही प्राप्त हो किन्तु मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है. फिर ऋषि ने पूछा कि उनके मोक्ष का मार्ग क्या है? सुकन्या बोली कि हे ऋषिवर ! पुनर्जन्म के उपरांत पूर्व क़ी त्रुटियों का परिमार्जन ही एक मात्र विकल्प है. फिर ऋषि ने पूछा कि फिर पुत्र क़ी क्या उपादेयता है? सुकन्या बोली कि जो “पुम” नाम के नरक से “त्राण” या मुक्ति दिलाये वह पुत्र है. ऋषि बोले कि पुत्र तों औरस भी होते है. दत्तक भी ही होते है. तों किस पुत्र से यह लाभ मिल सकता है. सुकन्या बोली कि कोई भी पुत्र हो वह इस नरक से छुटकारा दिला सकता है. ऋषि बोले कि फिर एक ही पति क्यों? पुत्र तों बिना विवाह के किसी भी पुरुष या स्त्री के संयोग से उत्पन्न हो सकता है.? सुकन्या बोली कि हे ऋषिवर ! इसीलिये उसे मात्र पुत्र ही कहते है किन्तु संतान नहीं. क्योकि “सम” अर्थात समान ‘तन” से जो उत्पन्न हो वह संतान कहलाता है. ऋषि ने पूछा कि फिर वह कौन सा सुख या उपलब्धि है जो संतान देता है किन्तु पुत्र नहीं? सुकन्या बोली कि-
“लोकान्तरं सुखं पुण्यं तपो दान समुद्भवं. संततिः शुद्ध वंशया हि परत्रेह च शर्मणे”
अर्थात तप, दान आदि से परलोक में सुख मिलता है. पुत्र से शारीरिक सुख जैसे वासना क़ी पूर्ती, उसके बाद पुत्र से आशा करना कि वह बुढापे में देख रेख करेगा आदि, किन्तु शुद्ध वंश में उत्पन्न संतान लोक एवं परलोक दोनों में सुख शान्ति देती है.
ऋषिवर च्यवन सुकन्या के इस भेद विभेद भरे तार्किक एवं शास्त्रीय कथोपकथन से बहुत ही प्रभावित हुए तथा उन्होंने काहा कि हे सुकन्या आज तुम्हारे सार आख्यान एवं अपने तपोबल से अपने को कुमार एवं तुम्हें चिर यौवना बनाता हूँ. जिससे तुम्हारी मा बाप का संताप दूर हो जाय.
उसके बाद ऋषि ऩे इस लेख के प्रारम्भ में मैंने जो संस्कृत का श्लोक लिखा है उसे सुकन्या को सुनाया. सुकन्या ऩे उसके अनुसार सारी व्यवस्था क़ी. ऋषि च्यवन ऩे अष्टांगिक अवलेह तैयार किया. तथा लेप भी तैयार किया. जिसके सेवन से ऋषि च्यवन युवावस्था को प्राप्त हो गये. तथा लेप लगाने से सुकन्या चिर यौवना बन गयी. वही अवलेह आज भी “च्यवन प्राश” के नाम से विविध कम्पनियां बनाती है.
द्वारा
पण्डित आर. के. राय
प्रयाग
6 टिप्पणियां:
sarthak post bdhaiyan,
बहुत बेहतरीन....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत सुन्दर पोस्ट...बस्तुतः कुछ लोग अग्यान वश इस आख्यान में रिशि की दुष्टता .. अमर्यादित आचरण आदि ढूंढ्ते हैं..वे भारतीय( अपितु मानवीय) तत्वग्यान से पूर्णतः अन्भिग्य हैं....वास्तव में तो यह आख्यान.. स्त्री..पति-पत्नी..पुत्र-सन्तान व शारीरिक बल की आवश्यकता पर एक विवेचन है....अनावश्यक ..अकर्म करने वाले को ौचित दन्ड मिलना ही चाहिये.....राजा के अनुचित कर्मों का दन्ड प्रज़ा भी भोगती है कि क्यों उसने एसे राजा को स्थापित किया हुआ है ....तभी न्याय की स्थापना होती है.....
औरत का दूसरा विवाह होने के विषय में और पुत्र होने के विषय में सुकन्या के विचार क्या आज भी प्रासंगिक हैं ?
ध्यान रहे कि यह विचार भारतीय संस्कृति में रची बसी हुई एक नारी के विचार बताए जाते हैं।
अगर ये विचार आज प्रासंगिक नहीं हैं तो फिर किस भारतीय नारी के विचारों को और उसके जीवन को आज एक नारी के लिए आदर्श माना जा सकता है ?
इस पर विचार किया जाना आवश्यक है।
http://vedquran.blogspot.in/2012/02/sun-spirit.html
निश्चय ही वे आज भी प्रासन्गिक हैं....
Thanks for the nice and informative post. The ideals must be practically possible, otherwise it is unwise to call them ideal.
Regards
Iqbal Zafar
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