ब्रह्मांड का रहस्य जटिल तो है पर अबूझ नहीं। इस रहस्यमयता का भेदन रोमांटिक तो हो सकता है पर डरावना कतई नहीं। इसलिए यह मानने का भी कतई कोई कारण नहीं है कि इस सृष्टि का स्रष्टा ईश्वर है। स्टीफन विलियम हॉकिंग जब यह कहते हैं तो उनकी वैज्ञानिक दृष्टि की सूक्ष्मता और उपलब्धि देखकर कोई भी कायल हो जाए। ब्राह्मांड की रचना को समझने और इसके रहस्य को आम आदमी की दिलचस्पी का विषय बनाने वाले हॉकिंग जितने बड़े भौतिकविज्ञानी हैं, उतने ही लोकप्रिय विचारक भी। उनकी शारीरिक विवशता उनकी जीवटता से लगातार हारी है। इस लिहाज से वे मानवीय संघर्ष क्षमता के भी जीवंत उदाहरण हैं।
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. नगेंद्र की छायावाद को लेकर प्रसिद्ध उक्ति है कि यह 'स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह' है। दिलचस्प है कि यहां जिस सूक्ष्मता को रेखांकित किया गया है, वह हॉकिंग जैसे वैज्ञानिकों को महान बनाने वाली सूक्ष्मता से सर्वथा भिन्न है, विपरीत है। अपने जीवन के 70 वसंत पूरा करते हुए हॉकिंग ने सूक्ष्मता के अनंत को तलाशते हुए अचानक उस संवेदना और प्रेम के रहस्यवादी जाले में फंस गए, जिसे कलम और कूची थामने वालों ने सबसे ज्यादा धैर्य और दिलचस्पी के साथ समझने की कोशिश की है। रचना और कला क्षेत्र का यह धैर्य कोई समाधानकारी छोर को भले न छू पाए हों पर इसमें सवाल और जवाब के टकराव को ठहराव के चिंतन में बदलने की संवेदनशील कोशित तो दिखती ही है। हां, यह जरूर है कि यह ठहराव यहां भी कुछ दुराग्रहियों और पूर्वाग्रहियों के यहां सिरे से गायब है।
हॉकिंग का यह कहना कि महिलाएं एक ऐसी रहस्य हैं, जिन्हें समझना नामुमकिन है। उनके वैज्ञानिक होने की कसौटी को नए सिरे से परिभाषित कर गया। विज्ञान और कला को प्रतिलोमी देखने की समझदारी नई नहीं है। विरोध के इस पूर्वाग्रह को पूरकता में देखने का समाधान काफी सुकूनदेह है। पर विज्ञान और कला में एक दूसरे की पूरकता तलाशने का समाधान कम से कम हॉकिंग के यहां तो उनके नए विवादास्पद बयान से नहीं दिखता है। आइंस्टीन की सापेक्षता से टकराने और एक हद तक उसे आगे ले जाने वाले हमारे समय की सबसे विलक्षण प्रतिभा हॉकिंग कम से कम मानवीय विमर्श में अपने पूर्वज को पीछे नहीं छोड़ पाए हैं। अपने जीवन के बाद के दिनों में आइंस्टीन की जिज्ञासाएं महात्मा गांधी की प्रार्थना और सत्य, अहिंसा और करुणा के दर्शन में अपना समाधान देखती थी। विज्ञान की सूक्ष्मता उन्हें मानवीय तरलता के आगे स्थूल और अपरिहार्य मालूम पड़ती थी।
कई सफल सिद्धांतों के जनक स्टीफेंस हॉकिंग के सत्तर साला जीवन में दो असफल शादियों के दुखद वृतांत दर्ज हैं। महिलाओं को अबूझ कहने की उनकी दलील उन हिंसक पात्रों की याद दिलाती है, जो शेक्सपियर के नाटकों में ऐसी ही जबान में अपने संवाद बोलते हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि महिलाओं को 'सभ्यता की भुक्तभोगिनी' की नियति देने वाला पुरुष आग्रह आज भी महिलाओं की छवि को कहीं न कहीं नकारात्मक और गैरभरोसेमंद बताने से बाज नहीं आता। कात्यायनी के शब्दों में इस आधुनिक 'पौरुषपूर्ण समय' में स्त्री अस्मिता का संकट ज्यादा जटिल, ज्यादा भयावह है। खतरनाक यह भी कम नहीं कि हमारे समय का सबसे ज्यादा तेज-तर्रार वैज्ञानिक दिमाग भी महिला मुद्दे पर खासा हिला दिखता है।
8 टिप्पणियां:
कोई नयी बात नहीं है ....
-----विश्व के सर्वोच्च ग्यान ( स्थूल या सूक्ष्म, भौतिक या तात्विक) के प्रतीक भारतीय जनमानस में सदैव से कथन है कि...स्त्री को ब्रह्मा भी नहीं समझ पाया....विचारा हाकिन्स किस खेत की मूली है....
----यह माया है जो स्वयं पुरुष( ब्रह्म) द्वारा स्रजित होकर उसी को बन्धन में लपेटकर जीव रूप में नचाती है...
एक ही रास्ता है समझने- जानने का....
" भवानी शंकरौ वन्दे श्रिद्धा-विश्वास रूपिणौ "
बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना......
ये अन्दर की बात है .विज्ञान और हाकिंग के मुताबिक़ सृष्टि जितनी ज्ञेय है नारी उनके लिए उतनी ही अज्ञेय है .
रचना जी आपका आलेख पढ कर अभिभूत हूँ । वैज्ञानिक सूक्ष्मता व मानव-हृदय की सूक्ष्मता में जो अन्तर है वही समझ सत्य के निकट है ।तभी तो आइंस्टीन की जिज्ञासाएं गान्धी जी के सिद्धान्तों में समाधान खोजतीं थीं ।
महिलायें अबूझ नहीं हैं ,उनको बूझे जाने के तरीके अनेक है बस |solution automatically gets changed as per set of co-ordinates of puzzle ( woman).
हां , पज़ल को हर कोई कहां बूझ पाता...तभी तो वह पज़ल है...
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sunder,shodhparak aalekh key liye aabhar,dhanyavaad
dr.bhoopendra
rewa
mp
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