सोमवार, 16 जनवरी 2012

अन्नपूर्णा--- कविता...डा श्याम गुप्त

भोजन ब्रह्म है,
और जीव -
हज़ार मुखों से ग्रहण करने वाला-
वैश्वानर है, जगत है |
और हज़ार हाथों से बांटने वाली,
अन्नपूर्णा-
माया है उसी ब्रह्म की |

हाँ, ऐसा ही लगता है, जब तुम-
तवा चकला चूल्हा,
रोटी कलछा और कुकर पर,
एक ही समय में ध्यान देलेती हो |

और, मुन्ना मुन्नी पापा व अन्य को,
परोस भी देती हो, एक साथ-
गरमा-गर्म, सुस्वादु भोजन |
जैसे  अन्नपूर्णा ,
हज़ार हाथों से .
सारे विश्व को तृप्त कर रही हो |

या कोई ज्ञान - रूपा,
हज़ार भावों से,
वैश्वानर को,
चराचर को,
ब्रह्म का -
रसास्वादन करा रही हो ||

7 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना |
मेरे ब्लॉग में भी आये |
मेरी कविता

RITU BANSAL ने कहा…

वाह !!! सचमुच ...नारी रूप है अन्नपूर्णा का ..पर आजकल कही खो सा रहा है..
आपको नहीं लगता ..
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
kalamdaan.blogspot.com

vidya ने कहा…

वाह बहुत सुन्दर..
नारियों का मान बढ़ गया आपकी रचना से..
सादर.

sangita ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति है नारी के सम्मान की |

डा श्याम गुप्त ने कहा…

ध्न्यवाद प्रदीप जी...
--धन्यवाद रितु जी...सचमुच आज यह रूप खोरहा है ...पुनः स्म्रिति हेतु एक प्रयास ही कहिये...
--धन्यवाद शान्ति जी , शास्त्रीजी ..
--धन्यवाद विध्या जी..इस प्रकार कविता का मान बढाने के लिये ..आभार..
--धन्यवाद सन्गीता जी...अन्नपूर्णा तो सदैव ही सम्माननीय है...

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

अन्नपूर्णा ने रूप तो नहीं बदला है हाँ उसे देखने और महसूस करने वाली आँखें जरूर बदल गई हैं. शब्दों द्वारा विराट चित्र खींचा है,वाह !!!

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद अरुण जी....

"नयनों में नक्श आज हैं क्यों ये नये नये ,
हम भी बदल गये, तुम भी बदल गये ।"