शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

महिला अधिकारों को लेकर फिर एक बहस

प्रदीप  कुमार साहनी जी की कविता  ''चौखट  ''और  अनवर जमाल जी के उस पर  प्रस्तुत विचार  एक बहस छेड़ने   हेतु  पर्याप्त  हैं एक सोच जो भारतीय समाज में सदियों से हावी  हैं वह  है  की लड़कियों की दुनिया घर की चौखट  के भीतर है  जबकि प्रदीप जी की कविता आधुनिक प्रगतिशील  सोच का प्रतिनिधित्व करती है  .प्रदीप जी की सोच वह  सोच है  जो आज के गिने चुने  पिता रखते हैं जबकि अनवर जी की सोच वह  सोच है  जो सदियों से हमारे  भारतीय समाज में रखी   जाती  है  .एक सोच कहती  है  की -''आज महिला   सशक्तिकरण  का दौर    है  .महिलाएं  पुरुषों    के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही हैं आगे    बढ़    रही हैं .पृथ्वी   आकाश आदि का कोई ऐसा क्षेत्र  नहीं है  जहाँ  नारी   शक्ति    ने   अपने  कदम  न  बढ़ाये  हों   हर  क्षेत्र  में महिलाएं  आज अपनी  योग्यता  का लोहा  मनवा  रही हैं .
    वहीँ  दूसरी  सोच  कहती  है महिलाएं घर के कामों को ही बखूबी निभा सकती हैं  यह आदमी का कम  है कि वह घर से बाहर जाये और कमा कर  लाये और औरत का काम ये है कि  वह उन पैसों से घर को चलाये और पति के सुख दुःख में हाथ बटाएँ.
                  डॉ.साहब इस विषय में एक बात और कहते हैं वे इंदिरा गाँधी जी और संजय  गाँधी जी का उदाहरण  देते हैं उनके अनुसार माँ के पास अपने बच्चों के लिए समय न होने पर वे बिगड़ जाते हैं .
   अब यदि हम दोनों सच को एक तरफ रख दें और अपने समाज की ओर देखें तो हम क्या पाते हैं ये भी देखिये कितनी ही माँ हैं जो हर वक़्त घर पर रहती हैं फिर भी उनकी संतान बिगड़ी हुई है और कितनी ही माँ हैं जो घर बाहर दोनों जगह सफलता पूर्वक अपने कार्य को अंजाम दे रही हैं इंदिरा गाँधी जी के ही उदाहरण को यदि लेते हैं  तो उनके एक आदर्श पुत्र राजीव गाँधी जी का उदाहरण भी सामने है जिन्होंने अपनी माँ का साथ देने को न चाहते हुए भी राजनीति में आना स्वीकार किया .
          हमारी खुद की जानकारी में माता पिता दोनों प्रोफ़ेसर हैं ओर उनके बच्चे आई.ए.एस.हैं ओर ऐसे उदाहरण भी हमारी व्यक्तिगत जानकारी  में हैं जहाँ माँ पूर्ण रूप से गृहणी है ओर उनके बच्चे साधारण परीक्षा भी उतरीं करने को जूझते  दिखाई देते हैं .ये सही है कि जब माँ घर से बाहर काम  करने जाती है तो बच्चे माँ की अनुपस्थिति  में बहुत सी बार सहन नहीं कर पाते और कभी बिगड़ जाते हैं तो कभी अंतर्मुखी हो जाते हैं किन्तु ये भी है की बहुत सी बार व्यावहारिक भी कुछ ज्यादा हो जाते हैं और इसमें बच्चों के विकास में माता पिता  दोनों का संभव सहयोग होता है .
  एक बात और ये भी ध्यान देने योग्य  है कि सुल्तान  डाकू जो हमारे इतिहास का प्रसिद्द व्यक्तित्व है उसकी माँ कौनसी घर से बाहर  काम  करने जाती थी और अभी  पिछले दिनों राजनीति के आकाश पर  चमकने वाले एक सितारे स्व.प्रमोद महाजन जी की पत्नी के बारे में भी ऐसा कुछ नहीं आता कि वे कहीं बाहर  कार्य करती हों फिर उनके सुपुत्र मात्र कहने को वास्तव में कुपुत्र  राहुल महाजन जी कैसे बिगड़ गए .और हमारी राष्ट्रपति महोदय समत.प्रतिभा देवी सिंह  पाटिल जी कब से राजनीति  में हैं और कहने को इनके पास अपने परिवार के लिए नाममात्र  का भी समय नहीं है और इनका परिवार एक आदर्श भारतीय परिवार कहा जा सकता है .
    साथ ही एक बात और देखने में आती है कि पुरुषों को तो फिर भी अपने कार्यों में अवकाश का समय मिलता है पर महिलाएं अपने घर के काम में कोई अवकाश नहीं पाती हैं और जिसका परिणाम बहुत सी बार ऐसा होता है कि महिलाएं बिलकुल अक्षम हो पड़ जाती हैं और तब पुरुषों को आटे दाल का भाव मालूम होता है अर्थात घर का काम संभालना उनकी मजबूरी हो जाती है .
     हालाँकि आज पुरुषों की सोच में कुछ  परिवर्तन  आया है     और वे भी घर के काम में कुछ हाथ बटाने लगे हैं और ये भी सत्य है कि जैसे  आज की हर  महिला   घर से  बाहर जाकर काम करने की इच्छा रखती है ये भी ज्यादा आधुनिक होने का परिणाम है हर  महिला  में न तो बाहर जाकर काम करने की योग्यता है न ही उसको इसकी आवश्यकता है कि वह घर से बाहर जाये मात्र अपने को ''पिछड़े''कहने से बचाने के लिए हर  महिला  का अपने को ''working '' कहलवाना परिवार उजाड़ रहा है ,घर बर्बाद कर रहा है .
       मेरे विचार में चौखट को प्रतिबन्ध न  सोचकर घर परिवार की सुरक्षा के रूप में स्वीकार किया जाये और मात्र स्त्रियों के लिए नहीं ये स्त्री पुरुष दोनों के लिए सुरक्षा है और कुछ नहीं. योग्यता और आवश्यकता को ध्यान  में रखते हुए महिलाओं को स्वनिर्णय का अधिकार दिया जाये साथ ही ये महिलाओं के लिए भी जरूरी है कि मात्र आधुनिक कहलवाने  की सोच स्वयं पर हावी न होने दें और अपनी जिम्मेदारी को सही रूप में अपनाएं.
         ये मेरे विचार हैं ज़रूरी  नहीं आप मेरे विचारों से सहमत हों आपके इस विषय  में क्या विचार हैं अवगत कराएँ.  
                      शालिनी कौशिक  
      

6 टिप्‍पणियां:

Shikha Kaushik ने कहा…

शालिनी जी मैं पहले ही कह चुकी हूँ की कब क्या करना है इसके चयन का अधिकार केवल महिला को दिया जाना चाहिए .कोई भी माँ अपनी संतान का अहित कर बाहर रहना पसंद नहीं करेगी .

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

कोई भी शाश्वत सत्य नहीं है, घर में रहने वाली योग्य महिलाएं व्यर्थ नहीं होती. बाहर निकालने वाली भी हमेशा अपने परिवार के प्रति गैरजिम्मेदार नहीं होती. ये हमारे घर के माहौल पर निर्भर करता है. मैं पहली बेटी के बादे से ही कामकाजी हो गयी थी और मेरे काम पर जाने के कारण मेरी बेटियाँ ज्यादा जिम्मेदार हो गयी. इसमें मेरे परिवार का माहौल भी है, मैंने कभी अपने बेटियों को होम वर्क नहीं देखा नहीं करवाया. क्योंकि नौकरी के बाद दस लोगों के परिवार कि जिम्मेदारी भी निभानी होती थी. मैं किचेन में होती और बच्चे मेरे पास खड़े होकर अपने प्रश्न पूछ कर उत्तर लिख रहे होते थे.
आज मेरे संयुक्त परिवार में ५ बेटियाँ हैं और पाँचों में दो सॉफ्टवेर इंजिनियर और ३ मेडिकल के क्षेत्र में है.

Ravi Rajbhar ने कहा…

Sach n sarthak lekh...!
bahut hi gahan chintan kiya hi apki kalam ne.


Abhar

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

रिश्तों की अग्निपरीक्षा
मोहतरमा शालिनी जी ! आपने यह कैसे कह दिया कि मेरी सोच औरत के बारे में वह है जो कि सदियों से चली आ रही है।
औरत के बारे में मेरी सोच को मेरी संक्षिप्त टिप्पणी के आधार पर तय करने की ग़लती न कीजिए क्योंकि एक छोटी सी टिप्पणी मेरे पूरे विचार को प्रदर्शित नहीं करती है। मैंने अपनी टिप्पणी में केवल यह कहा है कि ‘कामकाजी‘ केवल उसी महिला को न कहा जाए जोकि हवाई जहाज़ आदि चला रही है। घर चलाना उससे ज़्यादा कठिन है, वहां रिश्तों की अग्निपरीक्षा से औरत प्रतिपल गुज़रती रहती है। औरत के घर के कामकाज बड़े जटिल होते हैं और उन्हें हेय और तुच्छ समझने की भूल न की जाए।
बस मेरी उस टिप्पणी का आशय यही था।
औरत के व्यक्तित्व के विकास के लिए उसका घर से बाहर निकलना बहुत ज़रूरी है। शिक्षा पाने के लिए उसे अपने घर से बाहर निकलना ही पड़ेगा और इलाज के लिए भी उसे जाना पड़ेगा। औरत जब घर से निकले तो वह पूर्णतया सुरक्षित हो। असुरक्षित वातावरण में नेक औरतों को बहुत बार भयानक संत्रास झेलना पड़ता है। आज तो घर भी औरत की क़त्लगाह बन चुके हैं, ऐसे में बाहर का हाल तो और भी बुरा है। औरत तरक्क़ी ज़रूर करे लेकिन उसके स्त्रीत्व और उसके सतीत्व की रक्षा अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। यह ज़िम्मेदारी पूरे समाज की है।
इस विषय में मेरे विचारों तो अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से निम्न लेख ज़ाहिर करता है
Women in the society आदमी के लिए ईनामे खुदा है औरत
इस लेख को पढ़ने के बाद आप मेरे विचारों को नए सिरे से व्याख्यायित कीजिए और फिर उसके बाद आप मेरे विचारों की तुलना प्रदीप जी से करके अपना निष्कर्ष बताएं.

धन्यवाद !

Unknown ने कहा…

आपका लेख सच में बहुत सार्थक है । और आपने जो निष्कर्ष निकाला अंत में उस से भी मै पूरी तरह सहमत हूँ । क्या करना है ये महिलाओं की योग्यता, क्षमता और उनके निर्णय पर छोड़ देना चाहिए और उनपर भरोसा करके सहयोग करना चाहिए ।

Smart Indian ने कहा…

सामयिक विषय पर एक सार्थक आलेख।