''यह मेरी अस्मिता का प्रश्न है...विद्वता का अभिमान नहीं है मुझे।
ज्ञान पर विश्वास अवश्य है। सब कहें तो कहें कि वाचकनु के ॠषिकुल में
किसी स्त्री ने शास्त्रार्थ में भाग नहीं लिया फिर वह भी याज्ञवल्क्य
जैसे महान ज्ञानी के समक्ष...समूचे राजदरबार के समक्ष राजा जनक के
ब्रह्मयज्ञ में मैं ब्राह्मणत्व और आत्मा को लेकर कुछ प्रश्न उठाने का
साहस बल्कि दुस्साहस करने जा रही हूँ । तुम मुझे रोको मत प्रिय। मेरे
पिता ॠषि वाचकनु और मेरे बालसखा तुम ही ने तो मुझे तर्क का सामर्थ्य
दिया है...तुम दोनों के बीच बैठ कर ही मैं ने यह सीखा है। मैं
तुम्हारी वाग्दत्ता अवश्य हूँ मगर हूँ तो एक स्वतन्त्र इकाई। इस चराचर
विश्व में विद्वजनों के प्रतिपादित नियमों के विपरीत सोचने और प्रश्न
करने या खण्डन करने का तर्क मैंने अर्जित कर लिया है तो क्यों नहीं
अब...याज्ञवल्क्य के समक्ष ऐसा अवसर दुर्लभ होता है। नहीं तुम मुझे
नहीं रोक सकते। तुम्हें मेरी मर्यादा की चिन्ता है नहजारों पुरुषों के
समक्ष, नेत्र और मस्तक उठा कर प्रश्न उठाऊंगी...तो लो मैं ने डाल लिया
दुशाला अपनी यौवनपुष्ट देह पर, कहो तो इस सुन्दर मुख पर भी हवनकुण्ड
की राख मल लूं और कुरूप कर लूं। यह जान लो, तुम और पिता से भी कह दो
कि मेरी यह देह मेरे ज्ञान और प्रतिभा की कारा नहीं बन सकती। नहीं बन
सकती।''
तालियों की गडग़डाहट से थिएटर हॉल गूंज उठा। सुगन्धा हल्के - हल्के
हांफते हुए ग्रीनरूम में चली आई। साथियों ने उसे घेर लिया, फुसफुसा कर
बधाई देने लगे।
'' वाह सुगन्धा, पहली ही बार में झण्डे गाड दिए।''
'' क्या डॉयलॉग डिलीवरी थी। शानदार। दर्शक दम साधे बैठे हैं।''
'' क्या सच ?''
'' हाँ।''
गार्गी बनी सुगन्धा ने एक नजर शीशे पर डाली, विद्रोहिणी, विदूषी
ॠषिकन्या के वेश में उसने अपनी देह को लम्बवत देखा। वह हल्का - हल्का
कांप जरूर रही थी मगर मंच पर बोले संवादों का ओज अब भी देह से
उत्सर्जित हो रहा था। राजा जनक के नौरत्नों में एक रत्न 'गार्गी'।
शास्त्रार्थ में भाग लेने को उत्सुक गार्गी। और सुगन्धा? वह कौन है?
उससे अपनी पहचान की डोर छूटने लगी थी।
उसने रंगीन दुशाला बदला और सफेद दुशाला सीने और कंधों पर लपेट
लिया। जंघा तक लहराते हुए खुले बाल खींच कर पीछे जूडे में बांधेफूल
बालों से निकाल फेंके। उसके चौडे सांवले माथे पर पीले वाटरकलर से
मेकअप आर्टिस्ट निधि ने चन्दन का - सा त्रिपुण्ड उसके माथे पर रचा
दिया। बीच में लाल बिन्दु। वह अपनी बारी आने तक बाकी के संवाद
बुदबुदाते हुए दोहराने लगी।
''भूत, भविष्य और वर्तमान क्या है। ये काल क्या है और किस पर बुना
गया है इस काल का ताना - बाना और बुने जाने की पुनरावृत्तियां किसमें
ओत - प्रोत हैं? महात्मन, स्वर्ग के ऊपर क्या है और धरती के नीचे क्या
है, इन दोनों के बीच क्या है? ये ब्रह्मलोक क्या हैयह कैसे रचा गया और
कब विकसित हुआ?
''गार्गी इतने प्रश्न मत कर कि तेरा ही सर ही फट जाए। ''
याज्ञवल्क्य बना अनुज अपने आसन से उठ खडा हुआ और उसे लाल आंखों से
घूरने लगा। वह डायलॉग भूलने को थी मगरउसने मन से दो पंक्तियां मन से
बोलीं फिर शेष खुद ब खुद जुबान पर आ गईं।
''क्षमा करें, महाराज जनक, मेरा उद्देश्य मेरे प्रश्न व्यर्थ नहीं
हैं।'' सुगन्धा ने प्रश्नवाचक दृष्टि राजा जनक के सिंहासन की ओर डाली।
राजा जनक ने दृष्टि झुका ली।
''महात्मन याज्ञवल्क्य, आप तो मुझे क्षमा करें। जैसे वैदेह या काशी
के किसी योद्धा के किशोर पुत्र अपने ढीली डोर वाले धनुष पर भी बाण चढा
कर युद्ध के लिए किसी को भी ललकार सकते हैं। इन प्रश्नों के पीछे वैसा
ही बालसुलभ साहस ही समझ लें मगर उत्तर अवश्य दें। बस मेरे इन अंतिम दो
प्रश्नों के उत्तर दें, मुझे पता है, आपके पास इन प्रश्नों के सटीक
उत्तर हैं। देखिए न, ये सहस्त्र कामधेनुएं बडी बडी आँखों में
प्रतीक्षा लिए आपके आश्रम के पवित्र वातवरण में हांकी जाने को उत्सुक
हैं।'' कह कर ॠषि वाचकनु की पुत्री गार्गी शांत हो गई और अपने आसन से
उठ कर एक गाय के भोले मुख को सहलाने लगी। तभी
याज्ञवल्क्य का स्वर गूंजा, ''तो फिर, सुन ओ गार्गी, ध्यान से
सुन।''
गार्गी बनी सुगन्धा ने कुछ सुना कि नहीं न जाने कब नाटक खत्म हुआ
उसे पता नहीं चला वह तो मंचसज्जा, अभिनय, परदों के गिरते - उठते क्रम,
प्रकाश - संगीत के महीन जाल के बीच सुन्न खडी थी। तालियां उसे बार -
बार वर्तमान में लाने के प्रयास में थीं। उसके सैलफोन पर श्यामल का
संदेश जगमग कर रहा था। '' शानदार! तुम पर गर्व है, गार्गी।''
मेकअप उतारते हुए उसका ध्यान चेहरे की बांई तरफ गया। बांई आंख के
नीचे एक खंरोच थी और उसके चारों तरफ एक काला और जामुनी निशान बना था।
उसका शरीर ढीला हो गया। वह ओज जाता रहा...बेचारगी घर करती रही। गर्व
से भरी आंखों में पानी भर आया। वह खुद को घसीटते हुए कपडे बदलने के
लिए ड्रेसिंगरूम में ले गई। बाहर आते ही सहकलाकारों ने उसे घेर लिया,
'' सुगन्धा, पहली ही परफॉरमेन्स में ये जलवे!''
''श्यामल को देखा होतावो किस कदर गर्व से झूम रहे थे। कोई उनसे कह
रहा था कि 'वेदों का युग जीवन्त हो गया था और दर्शकों को अपनी दुनिया
में लौटने में समय लगा।''
''सच?''
''हां।''
'' चलो सफल रहा पहला ही शो...कल अखबार भरे होंगे।''
'' भैय्ये, गए वो जमाने जब नाटकों की सफलता राजनीति और फिल्मों के
साथ स्कोर कर पाती थी, रिव्यू आते थे। किसी कोने में छोटी खबर ही छप
जाए तो गनीमत समझना।''
'' पागल है, यह श्यामल सर का नाटक है,अननोटिस्ड नहीं जाने
वाला।''
सबका बाहर निकल कर निरूलाज में डिनर करने का कार्यक्रम पहले से तय
था। श्यामल अपने महत्वपूर्ण मेहमानों और पत्रकारों के साथ बाहर व्यस्त
थे। उसे अपनी हदें पता थीं, चुपचाप उसने बैग उठाया और सबसे विदा
ली।
'' ये क्या यार!''
'' नहीं हो पाऐगा अनुज। छोटा वाला शाम के बाद नहीं रहता मेरे
बिनाफिर मेरे पति भी आज बहुत व्यस्त हैं। छोडो न फिर कभी। बल्कि तुम
सब लोग कभी सुबह घर आओ ब्रेकफास्ट पर, मैं तुम सब को खिलाउंगी पिजा या
थाई फूड।''
'' हां, जल्दी ही तुम्हारे घर टपक पडेंग़े। बिना प्लान..''
'' बाय।''
''गुडनाइट।''
'' सुनो निधि, श्यामल को कहना, मैं जल्दी में थी। कल फोन पर बात
करूंगी।''
थिएटर के गलियारों से निकल कर वह बाहर आई। श्रीराम सेन्टर के खुले
छोटे लॉन में आकर उसने गहरी सांस ली, बालों को क्लचर में बांधा और दो
सीढी उतर कर बस के इंतजार में बाईं तरफ बने एक टीनशेड में खडी हो गयी।
मौसम तो सुबह ही से मुंह बना ही रहा था, अंधेरे के गहराते ही बरसात भी
शुरू हो गई। टिन पर टपकती मोटी बूंदों ने तालियों की याद दिला दी।
क्या उसे ही लेकर थीं वो तालियां। प्रशंसा में बजती तालियां? या मजाक
उडाती तालियां। उसका चेहरे की सूजन पर ध्यान गया।
''बहुत दिनों से देख रहा हूँ। घर से खूंटा छुडा कर भागने लगी हो।
बच्चों की तरफ ध्यान कम रहने लगा है। मान्या का रिपोर्ट कार्ड देखा?
कैसे उसकी पोजिशन पहली से पांचवीं हो गई है हाफइयरली में।''
''जानते हो तुम, उसे चिकनपॉक्स हुए थे।''
'' तब भी तुम घर में कहां बैठी थीं।''
''बहस शुरू मत करो।''
''बहस की बात ही नहीं। बहस की गुंजाइश मैं नहीं छोडता। बस बन्द करो
ये सब और घर में ठहरो थोडा। बच्चों को देखो। जब मेरे ऑफिस में बहुत
व्यस्तता हो, तभी तुम्हारा कोई न कोई शौक मुंह उचकाने लगता है। पहले
फ्रेन्च सीखूंगी। फिर ये थियेटर।''
''विनय, आज मूड्स मत दिखाना, आज मेरा पहला स्टेज परफॉरमेन्स
है।''
'' देखो, नन्नू को बुखार है, मुझे रात देर होगी, आज तुम कहीं नहीं
जा रही हो।''
'' मान्या है न, फिर मैं ने उसे क्रोसीन सिरप दे दिया है, फिलहाल
वह सो रहा है। बस शाम छह से नौ तक की बात है।''
'' नहीं।''
'' प्लीज। नाटक की घोषणा हो गयी है। टिकट बिक चुके हैं। मेरा
लीडिंग रोल है। इसे कोई और नहीं कर पाऐगा।विनय प्लीज।''
'' स्साले, अच्छा घन्टों बाहर डोलने का बहाना ढूंढ लिया है।''
'' तो क्या करुं? बच्चे स्कूल चले जाते हैं, तुम दफ्तर सुबह आठ से
शाम आठ मैं क्या करूं? घर और बच्चे अकेले ने छूटें इसीलिए हमने यहां
रिहर्सल कीं।''
'' ठीक है वो दिन - दिन की बात थी। अब रातों को भी...रात को इस शहर
में बाहर भेज दूं तुम्हें...तुम्हें न सही मुझे तो तुम्हारी सुरक्षा
का ख्याल है।'' वह नर्म पडा।
'' तो तुम साथ चलो।'' उसने भी कोशिश की।
'' बीवी की नौटंकी देखने? हिश्ट।'' वह घने तिरस्कार के साथ बोला।
सुगन्धा चुप रही अगले कुछ मिनट, वह शीशे में देखकर टाई उतारता
रहा।
''आज मेरा डिनर नहीं बनेगा। एक क्लाइंट के साथ डिनर है।बल्कि मैं
चाहता हूँ कि तुम साथ चलो।''
'' क्यों अच्छा इंप्रेशन पडता है, जवान बीवी का?'' कह कर वह जबान
भी नहीं काट पाई थी कि_
'' बकवास....बकवास करती है।'' कह कर विनय ने बांह मरोड दी।
'' मैं बकवास कर रही हूँ नौटंकी और थिएटर में फर्क करने की तमीज़
तो सीख लो।'' उसने बांह छुडा कर उसे धकिया दिया।
'' सीख ली...मेरी मौजूदगी तो मौजूदगी गैरमौजूदगी में भी तेरे
नौटंकीबाज़ यार यहां मजमा लगाए तो रहते हैं। वो तेरा बंगालीबाबू
श्यामल। उसकी फेमिनिस्ट बीवी अनामा जो तमाम मीडिया में फेमिनिज्म का
झण्डा लेकर घूमती फिरती है। तू मत करना कभी ये कोशिश, वरना उसी झण्डे
का डण्डा..... ''
'' तुमसे मुंह लगना बेकार है, बेटी के सामने भी अपना ये गन्दा मुंह
खोलने से बाज नहीं आओगे...मैं जा रही हूँ ।''
'' तू कहीं नहीं जा रही। चुपचाप घर में बैठ।'' कह कर उसने उसे
बिस्तर पर धकिया दिया। वह उठी और बैग उठा कर चलने लगी _ '' तू भी रोक
कर देख ले।''
उसने तमतमा कर उसके चेहरे पर घूंसा मार दिया। अनामिका में पहनी
शादी की अंगूठी की एक खरोंच आंख के पास उभर आई, खंरोंच के आस - पास
तुरन्त सूजन आ गई। वह चेहरा सहलाती हुई तेजी से फ्लैट से उतर आई और
गेट के बाहर आकर खडी हो गई। वह खिडक़ी में से चिल्लाया _
'' बहुत अकड क़े जा रही है ना? फिर सोच लेना, लौट कर घर आने की
जरूरत नहीं है।''
''...''
'' देख जुर्रत मत करना लौटने की।''
एक टैक्सी वाला रुका, वह पीछे आती आवाज उपेक्षित कर टैक्सी में चढ
ग़ई -'' मैट्रो स्टेशन।''
थिएटर पहुंची तो, वक्त अभी बाकी था। लडाई नहीं हुई होती तो बच्चों
को को कुछ खिला कर, बहला कर आती। हडबडाहट में सब रह गया। यूं तो
नौकरानी आऐगी ही, रोटी - सब्जी बनेगी। बच्चे बेमन से खाएंगे। कुछ उनकी
पसंद का बना आती, बर्गर या पास्ता।
वह मंच की तरफ बढ आई वहां हल्का अंधेरा था। श्यामल मंच सज्जा और
में तल्लीन था कुछ लडक़ों के साथ। मंच सज्जा अधुनातन और कलात्मक तरीके
से की गई थी। बहुरंगी प्रकाश का प्रयोग ज्यादा था, बजाय चीजों और
परदों और पेन्टिंगों के। कंप्यूटर की सहायता से 'वर्चुअल इमेजेज' यानि
आभासी छायाओं का इस्तेमाल खूबसूरत भी है और कम खर्चीला भी। बहुरंगी
प्रकाश के बीच गुरूकुल की सुबह का दृश्य बहुत सुन्दर बन पडा है, हिलते
पेडों और कुटियों की महज छायाएं। नेपथ्य से गूंजते मंत्र और पंछियों
की काकली के स्वर ध्वनि प्रभाव की तरह इस्तेमाल किए जाने हैं। मिथिला
की आध्यात्म सभा के दृश्य के लिए हवा में डोलते सुनहरे परदों का
इस्तेमाल किया जाना था, इसके लिए पीछे एक स्क्रीन पर नवग्रह चलायमान
थे। एक ओर सहस्त्रों गायों की प्रतिच्छाया पडनी थी। एक कोने में एक
बडा यज्ञकुण्ड रखना था जिसमें से निकलती अग्नि को उडती नारंगी झालरों
के माध्यम से प्रस्तुत किया जाना था। एक सचमुच की सजी हुई गाय बाकि
आभासी गायों का प्रतिनिधित्व करने को लाई गई थी। एक नाटक खासी तैयारी
मांगता है। बहुत सा श्रम। पर्दे के पीछे का काम कम नहीं होता! सुगन्धा
हैरान थी और शाम की क्लेश का प्रभाव उसके मन से जाता रहा। श्यामल की
गंभीरता के पीछे इतना बडा कलाकार कहा छिपा रहता है? श्यामल, जिसके
निकट रह कर उसने अपने व्यक्तित्व की थाह जानी है। श्यामल, जिसके पास
बने रहना उसे सुख देता है।
श्यामल, जिससे वह आठ महीने पहले मिली थी, बडे भाई अनुराग के साथ।
वो दोनों कॉलेज के मित्र रहे हैं। उस दिन श्यामल के एक बेहद लोकप्रिय
नाटक का सौवां शो था। हफ्तों तक उस नाटक का नशा रहा था। तब उसने सोचा
तक नहीं था कि एक दिन वह इसी लोकप्रिय नाटयनिर्देशक के निर्देशन में
मंच पर उपस्थित होगी।
एक दिन, न जाने किस बहके हुए फुरसतिया क्षण में उस ने श्यामल को
फोन किया था।
'' क्या मैं आपके किसी नाटक में एक पेड या खम्भे का रोल पा सकती
हूँ?''
''नहीं, वहां भी लम्बी कतार है। परदा गिराने और उठाने वाले की जगह
जरूर है,कर लोगी?''
'' हां, आपके नाटक में उपस्थित रहने के लिए कुछ भी करूंगी।''
''तुम्हारी क्वालीफिकेशन क्या है?''
'' एम एससी बॉटनी।''
'' मार डाला।''
'' क्यों?''
'' कलाओं से कहीं कोई दूर का वास्ता?''
'' न।''
''नाटक पढे?''
''नहीं।''
''देखे।''
''स्कूल में देखे। किए नहीं।''
'' गार्गी के बारे में सुना है?''
''कौन गार्गी?''
'' पौराणिक पात्र?''
'' शायद हां, कभी स्कूल की किसी संस्कृत की किताब में या हिंदी के
पाठ में...पर अब याद नहीं।''
'' नेट पर देखना और रिसर्च करके मुझे कल बताना। तुम मेरे साथ
स्क्रिप्ट पर काम करोगी?''
'' मुझे स्टेज पर छोटी - सी उपस्थिति चाहिए थी। स्क्रिप्ट तो...!
''
'' स्टेज बाद की चीज है। नेपथ्य में काम करना सीखोगी तभी तो न मंच
को समझोगी!''
''ठीक है।''
स्क्रिप्ट पर काम करने में दो महीने जाने कहाँ उडनछू हो गए। बहुत
कुछ सीखा उसने श्यामल से। इस नाटक में गहरी रुचि जाग उठी। गार्गी के
चरित्र ने उस पर असर डालना शुरू किया। स्क्रिप्ट देखकर श्यामल की
पत्नी अनामा ने जब इस गैरपारंपरिक, कम ग्लैमरस रोल में रुचि लेने की
जगह दूरदर्शन के चर्चित सीरियल में अपना समय देना ज्यादा पसंद किया तो
श्यामल ने सुगन्धा में अपनी गार्गी को खोजा। लम्बे बाल, चौडा माथा,
चौडा जबडा, कम झपकने वाली जिज्ञासु आंखें, गङ्ढे वाली ठोडी और जिद्दी
व्यवहार जताती नाक। हल्की भारी आवाज...लम्बी और पुष्ट देह।
'' मैं कर पाऊंगी?''
''कर लोगी।''एक विश्वास था निर्देशक श्यामल का जिसका निर्वाह करना
था सुगन्धा को।
वह जुट गई। दूध उफन रहा है, सुगन्धा रट रही है डायलॉग।
''याज्ञवल्क्य, बताओ तो जल के बारे में कहा जाता है कि उस में हर
पदार्थ घुल मिल जाता है, तो यह जल किसमें जाकर मिल जाता है?''
''अच्छा आत्मन, फिर सच्चा ब्राह्मणत्व क्या है?''
साबुन के झाग से ढकी हुई देह को शीशे में देखती हुई वह... और शॉवर
के साथ उसका एकालाप चलता जा रहा है, '' लो मैं ने डाल लिया दुशाला
अपनी यौवनपुष्ट देह पर, कहो तो इस सुन्दर मुख पर भी हवनकुण्ड की राख
मल लूं और कुरूप कर लूं। यह जान लो, तुम और पिता से भी कह दो कि मेरी
यह देह मेरे ज्ञान और प्रतिभा की कारा नहीं बन सकती। नहीं बन
सकती।''
वह मानो सपनों की किसी आसमानी दुनिया में रही थी पिछले कुछ महीने।
आज समय आ गया था ज़मीन छूने का।
'' आ गई मेरी विदूषी गार्गी! राजा जनक के नौ रत्नों में से एक
रत्न। वाचकनु ॠषि की पुत्री।''
'' वैसे श्यामल! मुझे शक है...''
'' बोलो न, मंच पर जाने से पहले अपने सारे शक दूर कर लो।''
' यही कि गार्गी का कोई मंगेतर था भी, कोई उसका बाल - सखा, ॠषि
वाचकनु का शिष्य। जिसे आपत्ति होती कि गार्गी आध्यात्म सभा में अन्य
आठ शास्त्रार्थ करने वाले ज्ञानियों के साथ जाए और याज्ञवल्क्य से
सवाल करे! आपने स्क्रिप्ट में यह मिथक बुना है या यह सच है। वह सदा की
बालब्रह्मचारिणी थी या बाद में अविवाहित रहने का प्रण लिया? नेट पर
बालब्रह्मचारिणी होने का ही जिक़्र है। कई लोगों ने उसे याज्ञवल्क्य
की पत्नी भी समझा है।''
''मिथक हो कि कल्पना...जो नाटक को पूर्णता व सार्थकता दे वही सही
है। मुझे कहीं लगता है कि सुन्दर और युगप्रवर्तक गार्गी को प्रेमी या
मित्रविहीन बना कर बृहदारण्यक उपनिषद में ज्यादती हुई है। उस युग की
स्त्री टाईम और स्पेस को लेकर सवाल कर रही है! बडी बात है। वही सवाल
जिनके अंत में उसने उत्तर चाहे थे, स्पेस और टाईम के बाहर क्या है?
ब्रहान्ड। तो फिर पूछती है यह ब्रह्माण्ड किसके अधीन है जिसका गोल -
मोल उत्तर याज्ञवल्क्य महाशय देते हैं जिनका लॉजिक मैं नहीं समझ
पाता।''
''ऐसा क्यों?''
''वही कि कोई अविनाशी तत्व। अक्षरत्व। जिसके अनुसासन व प्रशासन में
सब ओत - प्रोत है। ऑल रबिश! समझती नहीं, प्रश्नों के उत्तर की जगह
गार्गी को धमकी देने वाले याज्ञवल्क्य को निरूत्तर छोड क़र पुरुष जाति
की हेठी करानी थी क्या? जबकि वे उत्तरविहीन हो चुके थे मगर हो सकता है
कि क्षेपक की तरह आगे जोडा गया हो, या उनके खीजने पर गार्गी ने ही
स्वयं वे उत्तर दिये हों। हो सकता है कि प्रेम या सम्मान के कारण
गार्गी ने अंत में कहा हो कि 'याज्ञवल्क्य के पास हर प्रश्न का उत्तर
है, चाहे वह धरती या ब्रह्मलोक से जुडा हो या अंतरिक्ष से।
ब्राह्मणत्व या पुरुष की इयत्ता से जुडे प्रश्न हों...वे ब्रह्मर्षि
हैं। वे इन सहस्त्रों गायों के अधिकारी हैं।' मगर फिर स्त्री की
इयत्ता? यह प्रश्न क्यों नहीं किया गार्गी ने और मेरी विवशता देखो कि
मैं गार्गी के सम्मान में इस उपनिषद के किसी तथ्य को कल्पना से बदल
नहीं सकता, अन्दाजा लगा कर भी नहीं...पता है, लोग थियेटर फूंक देंगे।
गार्गी की मां, बालसखा और संगी साथियों तक का हल्का - सा जिक़्र कहीं
नहीं है।''
'' हाँ।''
''अपनी परंपरा की विरासत इतनी समृद्ध है, मगर हमारे पास सही तथ्यों
के मामले में दरिद्रता ही दरिद्रता है। विवश कर देने वाली दरिद्रता।
उस समय के ब्राह्मणों ने सदियों तक अपने लाभ के लिए बहुत कुछ नष्ट हो
जाने दिया और बहुत कुछ क्षेपकों की तरह हमारे महान ग्रन्थों में जोड
दिया।''
सुगन्धा चकित हो श्यामल की पीडा को देखने लगी तो वह संभला।
'' खैर, डायलॉग्स जहां - जहां भूलती थीं वहां सुधारा ? सुगन्धा कर
तो लोगी न! खासी भीड होगी।''
'' हाँ, शायद। पता नहीं। डराइए मत।''
'' एक्सप्रेशन शार्प और ड्रामेटिक रखना। पौराणिक नाटक है। फिर दिन
की रिहर्सल और रात में मंच की नकली रोशनी में फर्क होता है। तुम्हारे
उच्चारणों पर तो पूरा कॉन्फीडेन्स है मुझे। वही तुम्हारी ताकत है। गुड
लक, सुगन्धा। तुम ग्रीनरूम में चलो, मैं पहुंचता हूँ। निधि वहां है
तुम्हारे कॉस्टयूम के साथ।''
कॉस्टयूम पौराणिक किस्म का था। कंचुकीनुमा ब्लाउज़, नाभिदर्शना
साडी, सुनहरे दुशाले ने राहत दी। श्यामल कॉस्टयूम को लेकर बहुत सजग
रहते हैं। वह बाल काढ रही थी कि श्यामल ग्रीन रूम में आए।
''निधि, सुगन्धा के ये बाल खुले रहेंगे पहले सीन में। दूसरे -
तीसरे सीन में जब वह 'ब्रह्मचारिणी' रहने का प्रण लेती है, उसके बाद
से यह जूडे में बंधे हुए रहेंगे। माथे पर चन्दन का त्रिपुण्ड रहेगा।
यह सुनहरा दुशाला सफेद रंग के दुशाले से बदला जाऐगा। सुनो मुझे मेकअप
एकदम सादा चाहिए मगर वेल डिफाइन। नेचुरल लिप्सटिक, गहरी आंखें।''
श्यामल कहते हुए कुछ हैरान सा सुगन्धा की तरफ बढा।
''सुगन्धा यह चेहरे पर क्या हुआ है? कल तक तो यह नहीं था। इतनी
गहरी खरोंच और यह नीला निशान?''
'' बाथरूम में फिसल गई थी, नल से लग गई।'' उसने लगभग बुदबुदाते हुए
कहा था। श्यामल अविश्वास के साथ उसे गौर से देखता रहा। वह चुप था मगर
उसकी अनुभवी आंखें बोल रही थीं_
''पन्द्रह बरस हुए होंगे मुझे थिएटर करते हुए। तुम लोगों के पास अब
बहाने भी खत्म हो चले हैं। मेरे नाटकों की गार्गियां, आम्रपालियां,
वसंतसेनाएं, वावसदत्ताएं देवयानियां, शर्मिष्ठाएं...यूं ही चेहरे पर
अपनों के विरोध के हिंसक निशान लेकर थिएटर आती रही हैं। बहाने भी
अमूमन यही सब रहते हैं , मसलन बाथरूम में फिसल गई थी। बच्चे ने खिलौना
कार से मार दिया गलती से। टैक्सी या बस के दरवाजे से टकरा गई। तुम
पहली तो नहीं हो, सुगन्धा! ''
प्रत्यक्षत: वह इतना ही बोला और बाहर निकल गया, ''कोई बात नहीं,
जाओ पहले बर्फ लगा कर सूजन दबा दो फिर कन्सीलर लगा कर, गहरा फाउण्डेशन
लगा लेना।समय होने वाला है जल्दी करो।'' वह उसे ग्रीन रूम में
शर्मिन्दा छोड ग़या था। उसे लगा वह सारे संवाद भूल जाऐगी। उसने अपने
संवादों वाला पुलिन्दा निकाल लिया। बेमन से उन काले शब्दों को पढने
लगी थी, जिनके अर्थ उन शब्दों के छोटे कलेवर में समाए नहीं समा रहे
थे। खैर, चलो यह नाटक तो पूरा हुआ।
बस आने में देर लग रही थी। शेड में खडे लोग एक - एक कर टैक्सियां
पकड रहे थे। वह भी एक टैक्सी की तरफ बढी।
''कहा जाना है, मैडम?''
उसके कानों में खिडक़ी से उछल कर किसी पत्थर की तरह पीठ पर पडी
आवाज़ ग़ूंजी।
'' डोन्ट कम बैक होम। इस जुर्रत के साथ घर लौटने की जरूरत नहीं
है।''
'' मैडम,बारिश तेज हो रही है कहाँ जाना है ?
''कहाँ?'' क्या वह भूल गई?
''गुरूकुल या वैदेह के दरबार से बाहर आओ, गार्गी। मंच और थिएटर के
बाहर तुम्हारा एक घर है। वहाँ बच्चे हैं। विनय है। विनय डिनर पर बाहर
गया होगा। बच्चों ने नौकरानी के हाथों खाना पता नहीं खाया होगा या
टीवी देखते होंगे। मान्या का होमवर्क अधूरा होगा। नन्नू को बुखार है।
इडियट, यह सब भूल कैसे सकती हो?
'' मैडम? किधर जाना है? ''
'' घर...ऑफकोर्स घर ही।''
'' घर किधर? पता है कोई?''
''हाँ, है।'' सुगन्धा टैक्सी में घुसते हुए बोली। ड्राइवर ने
टैक्सी बढा दी। उसने सीट से सर टिका लिया। शीशे के बाहर की तेज होती
बारिश धीरे - धीरे आंखों में होने लगी। उसने आंखें बन्द कीं तो दो
बूंदे, पलक की कोरों पर आकर उलझ गईं। टपकने से पहले उसने उन्हें रुमाल
में सोख लिया। मन ने कहा - ''मेरा पता क्या पूछते हो, मैं तो प्रज्ञा
और गर्भाशय के बीच उलटी लटकी हूँ। प्रज्ञा आसमान छूना चाहती है,
गर्भाशय धरती में जडें धंसाए हुए है। फिर भी, हाँ, है पता मेरा भी पता
है। तुम सुनो, सब सुन लें।''
सुगन्धा बहुत धीमे होठों में बुदबुदाने लगी।
''मैं गार्गी, केयर ऑफ याज्ञवल्क्य। मैं दुश्चरित्र अहिल्या केयर
ऑफ गौतम ॠषि। मैं भंवरी देवी, मैं रूप कंवर केयर ऑफ लोक पंचायत, केयर
ऑफ ऑनर किलिंगकेयर ऑफ चेस्टिटी बैल्ट। पब में पीटी जाने वाली लडक़ी
हूँ, केयर ऑफ शिवसेना। नाजनीन फरहदी हूँ केयर ऑफ तेहरान जेल। सरेआम
कोडे ख़ाने वाली वो कमसिन लडक़ी...केयर ऑफ स्वात घाटी।''
-मनीषा कुलश्रेष्ठ
http://mankiduniya.blogspot.com/2012/09/blog-post.html
4 टिप्पणियां:
सार्थक पोस्ट , आभार .
कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर पधारने का कष्ट करें .
बेहद पसंद आयी ये रचना ,अंतिम पैरा केयर आफ वाला बिलकुल सटीक समीक्षा है ,मैं भी शायद ऎसी ही पीड़ा को गहरे तक झेल रही हूँ
बोलती बन्द करने वाली कहानी है..!
कितना भी एकाधिकार की बात कर लें लेकिन अपने अपने घर के भीतर हम यही कहानी दोहराते हैं...!
बेहतरीन रचना
एक टिप्पणी भेजें