शुक्रवार, 2 मार्च 2012

इन्द्रधनुष---अंक तीन का शेष----स्त्री-पुरुष विमर्श पर डा श्याम गुप्त का उपन्यास ....

              


      
        ’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)....पिछले अंक से क्रमश:......

                                    अंक तीन का शेष  
             यह भी तो प्रेम का ही एक भाव है, सुमि !  एक उत्कृष्ट रूप में,  मीरा व राधा का भी तो प्रेम था ।  यह पराकाष्ठा है प्रेम की । प्रेम को भौतिक रूप में पा लेना कोई इतनी बड़ी बात या उपलब्धि नहीं है, न उससे आपको कोई असाधारण सामाजिक,  भावनात्मक या आध्यात्मिक प्राप्ति ही होती है जिसके लिए सारे बंधन, पारवारिक, सामाजिक मर्यादाएं, नैतिकता की सीमाएं तोडी जायं ।  तमाम कष्ट उठाकर कैरियर दांव पर लगाकर  समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया जाय ।  हाँ, प्राप्ति के अहं की तुष्टि अवश्य होती है ।  यह अशरीरी प्रेम एक उत्कृष्ट भाव है, परकीया होते हुए भी व्यक्ति को जीवन भर प्रफुल्लित रख सकता है, भक्त -भगवान के भाव की तरह ।
             तुम्ही कह सकते हो यह सब, केजी '।  सुमि भावुक होकर कहती गयी।  सच है,  'फ्रेंडशिप सदा रहती है रिलेशनशिप नहीं ।'   मित्रता चिरजीवी होती है........
                      "  मन से तो मितवा हम होगये हैं तेरे 
                        क्या ये काफी नहीं है तुम्हारे लिए ।
                       दोस्ती ऊंची मन की बहुत प्यार से,
                       मन की दुनिया है सब कुछ हमारे लिए ।"
मेरी कविता कैसी है, महाकवि  केजी ।
              आखिर शिष्या किसकी बनी हो,  अच्छा चलो अब बताओ राधा व मीरा में कौन श्रेष्ठ है। तुम्हारा क्या ख्याल है ?
               बाप रे ! घुमा फिराकर इतना टेड़ा सवाल ? अपनी तरह ।  दोनों ही श्रेष्ठता की सीमाएं हैं ।  तुम्हारी ही बात को आगे बढाती  हूँ ....'.राधा -प्रेम व विरह दोनों का भाव है, मीरा सिर्फ दरद-दिवाणी है, प्रेम दिवानी है । राधा ने सब कुछ पाया फिर त्यागा । वह त्याग की महानता व पराकाष्ठा है । तभी राधा देवी स्वरूपा होपाई । मीरा बगैर पाए ही प्रेम दीवानी है, दर्द-दीवानी है । पाने का सुख जाने बिना विरह एक अन्य भाव है, भक्ति भाव है । परन्तु पाने के बाद छोड़ने का त्याग -विरह एक अनन्य भाव है । मीरा मानवी ही है ।'
               ' क्या विश्व में, सभ्यता के किसी दौर में, काव्य में, समाज व इतिहास में ...राधा जैसा चरित्र देखा-सुना है । कहीं एसा हुआ है कि परकीया नायिका, प्रेमिका को आदर ही नहीं अपितु देवी स्वरुप में प्रतिष्ठित किया गया हो । यहाँ तक कि पत्नी के स्थान पर देवता के साथ प्रेमिका को पूजा गया हो । यह सात्विक प्रेम की ही कहानी है ।'
               'तो तुम राधा बनना चाहती हो !'
               चाहने से क्या होता है, केजी ।  परिस्थितियाँ ही नियति बनकर व्यक्ति को भवितव्य की ओर धकेलती हैं तथा भविष्य तय करती हैं।  हाँ, व्यक्ति की स्वयं की दृड़ता जो आदर्शों, विचारों, कुल व समाज की स्थिति से बनती है इसमें बहुत प्रभाव डालती है ।
              ' मैं समझ रही हूँ,  तुम यह बात क्यों छेड़ रहे हो । तुम क्या कहलाना चाहते हो । परिस्थिति व नियति वश ही मैंने रमेश से प्रेम किया है, शादी का भी इरादा है । आज यद्यपि इस बदली हुई परिस्थित में  मैं तुमको भी पसंद करती हूँ, बदल भी सकती हूँ, तुमसे भी विवाह कर सकती हूँ । परन्तु तुम्हारे ही अनुसार प्रेम में प्रिय को प्राप्त कर लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं  है कि बहुत सारे अवांछित पापड बेले जायं ।  यदि मैं तुम्हें प्रेम करते हुए भी ..रमेश से प्रेम विवाह करती हूँ तो क्या मेरे प्रेम की, मित्रता की  महत्ता कम होती है ?  मैं तो राधा भी हूँ, मीरा भी ......। संतुष्ट हो ।'
             ' जी ' 
             'और कुछ पूछना है ?'
             'नहीं जी ' 
           ' व्हाट द हेल '....  ये  जी.. जी   क्या लगा रखी है ? ' वह नाराज़गी से देखने लगी ।
            ' अब राधा  और मीरा से तो सम्मान से ही पेश आना पडेगा न ।' 
            ' धत...यू......।'
           ' वैसे सीता के बारे में आपकी राय ....।
           फिर कभी, अब निकलो यहाँ से,  नहीं तो मार खाजाओगे ।  वह मुझे लगभग धकेलती हुई चल दी ।

                                  **                                 **                                   **

                            छात्र संघ के चुनावों में सचिव, सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के पद के लिए सुमित्रा को प्रत्याशी बनाया गया ।  सभी छात्र प्रत्याशी, तरह तरह के प्रचार कार्ड बनवाकर छात्रों में बाँटते थे  । अपने अपने नवीन विचारों, भावों को प्रचार कार्ड के पीछे लिखा जाता था । सुमित्रा प्रसन्न मना व प्रसन्ना बदना दौड़ती हुई आयीं । 
            कृष्ण ! कोई नया आइडिया सोचा जाय, एक दम नवीन । ये सारे कार्ड तो पढ़ कर फैंक दिए जाते हैं । मैं चाहती हूँ एसा कार्ड बने जो फैंका न जा सके, प्रिज़र्व करने लायक हो ।
            'क्या अभी से अमर होने का प्रयास है ।'  मैंने कहा तो वह गंभीर होकर मुझे देखती रह गयी ।
            'मैंने कहा, एक  'बुक-मार्क'  के आकार का कार्ड बनाओ  और उसके पृष्ठ पर किसी इसी अच्छे चिकित्सा विषय की संक्षिप्त गाथा लिख दो कि सब पढ़ें । देखना तुम सालों साल पुस्तकों में प्रिज़र्व रहोगी ।' मैंने सुझाव दिया ।
             सुपर्व..'.मुझे पता था, तुम्हारे पास हर प्रश्न का तुरंत रेडीमेड उत्तर अवश्य रहता है ।'  सुमि ने प्रशंसापूर्वक सर हिलाते हुए कहा । 
             दूसरे दिन सुमित्रा ने अपने प्रचार-पत्र का प्रारूप  लाकर दिखाया ।  पुस्तक-चिन्ह के रूप में कार्ड  के पीछे " श्रवण-पथ "  का संक्षिप्त किन्तु पूर्ण व सारगर्भित वर्णन था ......
                                          
                                           हीयरिंग पाथ वे  ( श्रवण-पथ )
               ' स्टीरियोफोनिक' ( सम्मिश्र ) ध्वनियाँ सुनने के लिए मानव को दो कान दिए गए हैं,  इसी कारण दिशा निर्धारण भी सुगम होता है ।  'पिन्ना' (बाहरी कान ) ध्वनि को केन्द्रित करते हैं तथा यूस्टेकीयन ट्यूब (कर्ण नलिका )  की तरफ भेजते है ।  ध्वनि-श्रोत  ( साउंड ) के समीप की वायु में मशीनी ऊर्जा रूपी तरंगें उत्पन्न होती हैं जो कर्ण-नलिका में प्रवेश करके टिम्पेनम या ईयर-ड्रम ( कान का पर्दा ) को कम्पन देती हैं । ये कम्पन मध्य-कर्ण स्थित तीन छोटी-छोटी अस्थियों --इन्कस, मेलियस, स्टेपीज़  ...द्वारा आतंरिक कर्ण स्थित ' काक्लिया' को कम्पित करती हैं । यहाँ पर कम्पनों की मशीनी ऊर्जा...विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित होकर श्रवण तंत्रिका ( आठवीं केन्द्रीय तंत्रिका नाडी ) के तंतुओं को विद्युत्-प्रवाह सन्देश देती हैं जहां से वे विद्युत-धारा के रूप में ' काक्लियर-केन्द्रक ' होते हुए  ' मेड्यूला '   के  'सुपीरियर  ओलिवरी काम्प्लेक्स ' पहुँच कर  दोनों तरफ के कानों की सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं ताकि ताल-मेल बना रहे ।  वहां से  ' लेटरल लेमिनिस्कस  '  होते हुए सन्देश  'मध्य मस्तिष्क'  के  'इन्फीरियर कौलीकस'  पहुंचते हैं,  जहां  पुनः दोनों ओर के  कानों के स्नायु ( नर्व-तंतु) -क्रास ओवर होते हैं और अंत में   'मीडियल केलीकुलस'  होते हुए ये संवेदन ध्वनि विद्युत् -प्रवाह   'उच्च-मस्तिष्क' ( सेरीब्रम ) के  'टेम्पोरल लोब'  के   'एकोस्टिक एरिया' ( श्रवण-क्षेत्र ) पहुंचते हैं ;  जहां विद्युत्-रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा इन संवेदी सूचनाओं का विश्लेषण करके उचित उत्तर व आदेश प्रेषित होते हैं  और हम सुनते हैं व प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं ।"


               'एक्सीलेंट, सुपर्व, सिम्पली मार्वेलस। यू आर जीनियस सुमि ! ।'  क्या आइडिया है । यह तुम्हारा प्रचार-पत्र, बुक-मार्क  सालों साल चिकित्सा-विद्यालय के मन-मानस में, डाक्टरों-छात्रों के साथ अमर बन कर रहेगा ।
             यह आशीर्वाद है !  वह मुस्कुराई,  'किन्तु मूल आइडिया तो तुम्हारा ही था ।',  सुमि ने कहा ।  
            'पर क्रिया रूप में परिणत न होने पर शायद व्यर्थ ही रहता ।' मैंने प्रशंसात्मक नज़रों से कहा, 'बधाई'। 


                                    -----  अंक तीन समाप्त......क्रमश :  अंक चार ...अगली पोस्ट में ...
   
        
 

3 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

बढिया चल रहा है।

रविकर ने कहा…

आनन्दमयी ।

डा श्याम गुप्त ने कहा…

---धन्यवाद वन्दना जी ...आभार..

--धन्यवाद..रविकर...
---आनन्द ही आनन्द..सुखानन्द..रसानन्द... प्रेमानन्द.... ब्रह्मानन्द....परमानन्द...