’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास.....
पिछले अंक से क्रमश:......
अंक आठ का शेष ....
' बधाई, केजी, वाह ! तुमने तो एक भी गोल नहीं होने दिया । तभी टीम जीत पाई ।' अंतर कालेज चेम्पियनशिप के लिए होरहे फुटवाल मैच के समाप्त होने पर सुमित्रा ने मैदान पर बधाई देते हुए यह बात कही । मैच विश्व-विद्यालय की टीम से था जो नगर की सशक्त टीम थी । मैच बड़ी कठिनाई से १-० से हमारे पक्ष में रहा । मैंने धन्यवाद कहा तो सुमि कहने लगी , ' अच्छा कृष्ण तुम सदैव बैक-कीपर के स्थान पर क्यों खेलते हो ? फारवर्ड खेलो तो शायद कुछ ओर गोल से जीतें ।'
' कुछ और गोल हो भी तो सकते हैं । भई, यह तो टीम-भावना का खेल है', मैंने चकित होते हुए कहा, 'कोई तो बैक रहेगा ही ।'
' पर नाम तो केवल गोल करने वाले का होता है।'
' क्या मैंने नाम के लिए कभी कोई काम किया है ?' मैंने हंसते हुए प्रति-प्रश्न किया ।, ' हम तो वैसे भी बैक-बेन्चर्स हैं । और यदि एसा ही होता तो तुम मुझे क्रेडिट नहीं देरही होतीं ।'
' आप क्रिकेट खेला कीजिये । उसमें कोई बैक नहीं होता, सभी फ्रंट पर होते हैं, और सुमित्रा भी खुश।' कुमुद ने सलाह दी
' हाथ-पैर भी ज्यादा टूटते हैं ।' मैंने हंसते हुए कहा , ' क्या मंतव्य है आपका कुमुद जी ?'
सब हँसने लगे तो मैंने कहा, ' वैसे आपका परामर्श विचार योग्य है । धन्यवाद ।'
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वार्ड-क्लिनिक के लिए जब हम लोग मेडीकल वार्ड पहुंचे तो हाउस डा. मुकुलेश रंगनाथन व रेजीडेंट डा पी के सिंघल एम.डी. को एक रोगी से जूझते देखा । रोगी आक्सीजन पर था व काफी समय से भर्ती था। दोनों पैरों की नसों में सेलाइन -ग्लूकोज़ व नॉर-एड्रेलिन ड्रिप चढाई जा रही थी । दोनों डाक्टर बारी बारी से रोगी के ह्रदय की मालिश व कृत्रिम श्वांस दे रहे थे । बीच बीच में कई बार सुई द्वारा सीधे ह्रदय में कोरामीन, एड्रेलिन व डेकाड्रोन भी दिया गया । लगभग आधे घंटे तक अथक परिश्रम के बाद भी रोगी को बचाया नहीं जा सका । एक बार पुनः रोगी की श्वांस, ह्रदय की धड़कन व आँख की पुतली देख कर उसे मृत घोषित कर दिया गया ।
' सर ! क्या उसके बचने की आशा थी ?' मैंने पूछा ।
' नहीं ।' डा. सिंघल बोले, ' सी ओ पी डी का पुराना रोगी था, ह्रदय व फैन्फड़े पूरी तरह से खराब हो चुके थे ।'
' फिर, इतना सब करने की, क्या आवश्यकता थी ?'
डा. सिंघल सब को लेकर नर्सेज चेंबर में आये। बोले, 'डाक्टर जहां जीवन का प्रश्न होता है, वहां और कोई प्रश्न नहीं होता । प्रश्न परिश्रम, खर्च या समय व्यर्थ होने का नहीं है, प्रश्न है...आशा, आस्था, कर्म, आत्म-संतुष्टि, रोगी व रोगी के परिजनों की संतुष्टि का ।'
' हम ये सब इसलिए करते हैं कि कहीं मन के कोने में डाक्टर को, रोगी के परिजनों को एक आशा होती है कि शायद कुछ क्षणों के लिए ही प्राण लौट आयें । शायद ईश्वर को मंजूर हो । यह आस्था है, यहाँ तर्क व नियम नहीं चलते, यह संसार है ।'
'चिकित्सक, यदि बचना तो है नहीं यह सोच कर प्रयत्न करना छोड़ दे तो उसे भी आत्मग्लानि रहेगी कि यदि प्रयत्न करते तो शायद......। अतः अपनी आत्म-संतुष्टि के लिए भी प्रयत्न करना आवश्यक है । साथ ही यदि प्रयत्न ही नहीं होंगे तो नए नए अनुभव, प्रयोग, आविष्कार व रोगी सेवा-उपचार में प्रगति कैसे होगी ? यह विज्ञान है । जान जाते समय रोगी ने न जाने किस किस को पुकारा होगा । शायद सबसे अधिक डाक्टर को । रोगी की आत्मा व शरीर भी तो अंतिम समय आदर व सहानुभूति चाहते होंगे । उसके परिजनों को भी पूर्ण उपचार व सेवा की संतुष्टि होनी चाहिए कि डाक्टरों ने तो पूरा प्रयत्न किया आगे ईश्वर इच्छा । अन्यथा लापरवाही समझी जायेगी ।क़ानून के अनुसार भी रोगी को यथासंभव बचाने के टर्मिनल उपाय करना व रिकार्ड रखना वैधानिक दायित्व है । फिर मिरेकल्स भी तो होते हैं न ?'
' यही है आज का प्रेक्टीकल सबक जो जीवन भर एक चिकित्सक को स्मरण रखना है । सहानुभूति, सहृदयता, दायित्व निर्वहन व कर्तव्य-पारायाणता ही एक चिकित्सक के व्यवहारिक गुण होते हैं । समझे ....डाक्टर कृष्ण गोपाल !'
' यस सर !' मैंने स्वीकृति में कहा ।
मुझे चुप-चुप चलते देख कर सुमित्रा मुस्कुराने लगी, तो मैंने पूछा , ' क्या बात है ? '
' मिला न शेर को सवा-शेर ।'
'क्या मतलब ?'
' तुम जैसे ज्ञानी को भी ज्ञान देने वाला मिला न ।'
' बहुत खुश हो ?'
' यस ।'
' सच है सुमित्रा ! हम जहां भी मानवीयता, सौहार्द व सहृदयता से चूकते हैं एवं किसी घटना, बिंदु या विषय पर गहराई से युक्ति-युक्त पूर्ण सोचने में लापरवाही करते हैं वहीं गलत निर्णय व सोच को आधार मिल जाता है यहीं तो अनुभव व वरिष्ठता की महत्ता है । हम चाहे जितने भी ज्ञानी क्यों न होजायं, अनुभवी व सीनियर, सीनियर ही रहेगा ।'
' हार को स्वीकारना व सत्य को तुरंत स्वीकार करना ही तो जीत है, जीवन है । तुम्हारी यही बात तो मन में अटक कर रह जाती है, कृष्ण ! मन को भटकाती है ।'
' चलो तुम भी आज खींच लो, अच्छा मौक़ा हाथ आया है', मैंने कहा, " मत चूके चौहान ।"
' बात ठीक है तुम कभी कभी ही तो मौक़ा देते हो खींचने का '
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फाइनल ईयर की परीक्षाएं समाप्त होने पर मैं केन्टीन में बैठा न्यूज़-पेपर उलट रहा था कि सुमित्रा आई और धम से बैठती हुई बोली , 'अब मुझे जाना होगा केजी' उसके स्वर में उदासी थी ।
" हाँ, कहाँ ? ' मैं सोचते हुए बोला , 'कब ?'
' भूल गए ?', 'ऐसे तो तुम मुझे भी भूल जाओगे। जाते ही। मुझे दिल्ली जाना है, सुन रहे हो न, कल।
'वह तो तुम हर बार जाती हो ।'
' हाँ, पर अब वापस नहीं आऊँगी ।'
ओह, ओह ! हाँ, वास्तव में , ' अब तो तुम्हें जाना ही है ।' मैंने अखबार एक तरफ रखकर कहा ।
' मेरी शादी पर आओगे ?'
' नहीं । बधाई, इंटर्नशिप भी वहीं करोगी ?'
' हाँ, अपनी शादी पर बुलाओगे ?'
' नहीं भी, और पता नहीं भी ।'
' हूँ, पक्के हो । सुमि कहने लगी,-
" तेरी दोस्ती का बोझ हमसे उठाया न गया ।
बस यही बोझ सा दिल में लिए फिरते हैं ।"
' वाह क्या धाँसू शे'र है, सवा शेर है जी । इसे कहते हैं गुरु दक्षिणा ।'
' मुझे याद करोगे भी या " आउट आफ साईट आउट आफ माइंड "......'
' और तुम...' मैंने पूछा ।
' सुमि कहने लगी.....
" जब चाहूँ मन में चले आना,
मन मंदिर को महका जाना ।
यादें तेरी मन में मितवा,
बन करके सदा मधुमास रहे ।।
अच्छा, सुनो............
" तू दूर रहे या पास रहे,
यह अनुरागी मन यही कहे।
तेरे जीवन की बगिया में,
जीवन भर प्रिय मधुमास रहे ।"
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ट्रेन पर सुमि को बैठकर मैंने कहा, ' गुड बाय ।'
' बाय बाय', उसने उदास होते हुए कहा। 'सचमुच बहुत याद आओगे ।' वह लगभग अश्रु पूरित नेत्रों से बोली ।
मैं मुस्कुराया तो कहने लगी , ' तुम्हारी आँखों में कभी आंसूं नहीं आते ?' 'भगवान करे न आयें कभी ।' मैं हंस कर रह गया ।
'याद रखोगे?' , सुमित्रा ने कहा ।
' नहीं ।' मैंने कहा ...........
" हम तसब्बुर में न तेरे ख्याल लायेंगे ,
आवाज़ दिल से देना, बस चले आयेंगे ।"
गाड़ी चल दी और वह हाथ हिलाती हुई चली गयी ।
.............. अंक आठ समाप्त .....क्रमश अंक नौ ...अगली पोस्ट में .....