स्त्री-सशक्तिकरण के युग में आजकल स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, स्त्री पर अत्याचारों, बन्धन, प्रताडना, पुरुष-प्रधान समाज़, स्त्री-स्वतन्त्रता, मुक्ति, बराबरी आदि विषयों पर कुछ अधिक ही बात की जा रही है। आलेख, ब्लोग, पत्रिकायें, समाचार पत्र आदि में जहां नारी लेखिकाएं जोर-शोर से अपनी बात रख रहीं है वहीं तथाकथित प्रगतिशील पुरुष भी पूरी तरह से हां में हां मिलाने में पीछे नहीं हैं कि कहीं हमें पिछडा न कह दिया जाय (चाहे घर में कुछ भी होरहा हो )। भागम-भाग, दौड-होड की बज़ाय कृपया नीचे लिखे बिन्दुओं पर भी सोचें-विचारें----
१- क्या मित्रता में ( पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री या स्त्री-पुरुष कोई भी ) वास्तव में दोनों पक्षों में बरावरी रहती है ---नहीं--आप ध्यान से देखें एक प्रायः गरीब एक अमीर, एक एरोगेन्ट एक डोसाइल, एक नासमझ एक समझदार, एक कम समर्पित एक अधिक पूर्ण समर्पित --होते हैं तभी गहरी दोस्ती चल पाती है । बस बराबरी होने पर नहीं। वे समय समय पर अपनी भूमिका बदलते भी रहते हैं, आवश्यकतानुसार व एक दूसरे के मूड के अनुसार। ।
२- यही बात स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, पति-पत्नी मित्रता पर क्यों नहीं लागू होती?----किसी एक को तो अपेक्षाकृत झुक कर व्यवहार करना होगा, या विभिन्न देश,काल, परिस्थियों, वस्तु स्थितियों पर किसी एक को झुकना ही होगा। यथायोग्य व्यवहार करना होगा। जब मानव गुफ़ा-बृक्ष-जंगल से सामाज़िक प्राणी बना तो परिवार, सन्तान आदि की सुव्यवस्था हेतु नारी ने स्वयम ही समाज़ का कम सक्रिय भाग होना स्वीकार किया (शारीरिक-सामयिक क्षमता के कारण) और पुरुष ने उसका समान अधिकार का भागी होना व यथा-योग्य, सम्मान, सुरक्षा का दायित्व स्वीकार किया|
अतः वस्तुतः आवश्यकता है, मित्रता की, सन्तुलन की, एक दूसरे को समझने की, यथा- योग्य, यथा-स्थिति सोच की, स्त्री-पुरुष दोनों को अच्छा, सत्यनिष्ठ, न्यायनिष्ठ इन्सान बनने की। एक दूसरे का आदर, सम्मान,करने की, विचारों की समन्वय-समानता की ताकि उनके मन-विचार एक हो सकें ।यथा ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र (१०-१९१-२/४) में क्या सुन्दर कथन है---
"" समानी व अकूतिःसमाना ह्रदयानि वः ।
समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामतिः ॥"""
---अर्थात हे मनुष्यो ( स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी, राजा-प्रज़ा आदि ) आप मन, बुद्धि, ह्रदय से समान रहें, समान व्यवहार करें, परस्पर सहमति से रहें ताकि देश, समाज़, घर,परिवार सुखी, समृद्ध, शान्त जीवन जी सके ॥
कवि ने कहा है---"
"जो हम हें तो तुम हो, सारा जहां है,
जो तुम हो तो हम हैं, सारा जहां है ।"
अतः निश्चय ही यदि स्त्री सशक्तिकरण पर हमें आगे बढ़ना है, जो निश्चय ही समाज के आगे बढ़ने का बिंदु एवं प्रतीक है, तो न सिर्फ स्त्रियों को ही आगे बढ़ कर झंडा उठाना है अपितु निश्चय ही पुरुष का भी और अधिक दायित्व होजाता है कि हर प्रकार से समन्वयकारी नीति अपनाकर अपने अर्ध-भाग को आगे बढ़ने में सहायता करें तभी समाज आगे बढ़ पायगा ।
12 टिप्पणियां:
समानता के बारे मे कहना आसान है श्याम जी मगर सच मे समानता कहाँ नसीब होती है ये शायद आप भी जानते हैं उसी के लिये तो ये आवाज़ें उठनी शुरु हुई हैं नही तो स्त्री की दयनीय स्थिति थी आज से कुछ साल पहले आप भी जानते ही हैं उसी सन्दर्भ मे स्त्री सश्क्तिकरण की बात होती है आज इसी संदर्भ मे मैने भी एक कविता लगायी है अपने ब्लोग पर अवसर मिले तो देखियेगा …http://vandana-zindagi.blogspot.com
चरम सुख के शीर्ष पर औरत का प्राकृतिक अधिकार है और उसे यह उपलब्ध कराना
उसके पति की नैतिक और धार्मिक ज़िम्मेदारी है.
प्रेम को पवित्र होना चाहिए और प्रेम त्याग भी चाहता है.
अपने प्रेम को पवित्र बनाएं .
जिनके चलते बहुत सी लड़कियां और बहुत सी विधवाएं आज भी निकाह और विवाह से रह जाती हैं।
हम सब मिलकर ऐसी बुराईयों के खि़लाफ़ मिलकर संघर्ष करें.
आनंद बांटें और आनंद पाएं.
पवित्र प्रेम ही सारी समस्याओं का एकमात्र हल है.
आपने सटीक बात कही हैं .सार्थक आलेख हेतु हार्दिक धन्यवाद .
सटीक संक्षिप्त और सुन्दर सार तत्व समेटे जीवन का .
स्त्रियों ने अपना रोना रोते रोते पुरुष ने स्वयं को भगवान समझ लिया है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बदलकर पुरुष प्रधान समाज कहना प्रारम्भ कर दिया है। जिससे पैदा होते ही पुरुष स्वयं को बड़ा मानने लगता है। स्त्रियां जिस दिन अपना रोना बन्द कर देंगी उस दिन उसका मातृस्वरूप उभर आएगा।
सच कहा वन्दना जी...हर बात का कहना आसान होता है ..करना कठिन...उसी को तो साधना कहते हैं....स्त्री-पुरुष सम्बन्ध निर्वाह किसी साधन से कम नहीं है....
--अनवर ज़माल जी, ये बीच में चरम-सुख कहां से आगया....इस को निभाते निभाते हुए भी तो तमाम पुरुष, औरतों को पीटते-मारते-शोषण करते हैं।
---यहां बात प्रेम की भी नहीं है...बात समन्वय की, आपसी समझ व सौहार्दता की है ...
---बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष तो हमेशा ही प्रशंसनीय है...
धन्यवाद शिखाजी एवं वीरू भाई जी.....
भाई बीच के वेद मन्त्र में सुख का ज़िक्र आप ख़ुद ही तो कर रहे हैं.
---अरे हुज़ूर कुछ सन्दर्भ भी तो देखा करो....वैसे यहां किस वेद मन्त्र में हमने सुख का जिक्र किया है?
--सुख और चरम सुख वह भी स्त्री का हक....सभी यहां असम्प्रक्त भाव हैं....
---बहुत सच तथ्य को उजागर किया है अजित गुप्ता जी..धन्यवाद...
----सच ही......"स्त्रियां जिस दिन अपना रोना बन्द कर देंगी उस दिन उसका मातृस्वरूप उभर आएगा।"..आभार...
सटीक बात |
आभार ||
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