‘निर्वाण दिवस 11 सितम्बर पर पुण्य स्मरण’क्या आप जानते हैं कि उत्तर प्रदेश के जनपद फर्रूखाबाद के एक संपन्न परिवार की सात पीढियों में दो सौ वर्षों तक किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था। 24 मार्च 1907 को जब बाबू बाँके बिहारी वर्मा के घर पर पौत्री के रूप में जब एक नवजात बालिका की किलकारी गूँजी तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा क्योंकि इस परिवार में किसी बालिका के जन्म पूरे दो सौ साल बाद हुआ था। उन्होंने इस बालिका को अपने घर की सबसे बडी देवी माना इसी लिये उसे नाम दिया ‘महादेवी’।
पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा और माता हेमरानी देवी की इस पुत्री की शिक्षा पाँच वर्ष की अवस्था में इंन्दौर के मिशन स्कूल से प्रारंभ हुयी । परन्तु तद्समय प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के अनुसार सन् 1916 में नौ वर्ष की आयु पूरी होने तक इनके बाबा श्री बाँके बिहारी द्वारा इनका विवाह संम्पन करा दिया गया। जब इनका विवाह हुआ तो ये विवाह का अर्थ भी नहीं समझती थीं। उन्होंने इसके संबंध में अपने ही शब्दों में लिखा हैः-
‘‘दादा ने पुण्य लाभ से विवाह रच दिया, पिता जी विरोध नहीं कर सके। बरात आयी तो बाहर भाग कर हम सबके बीच खड़े होकर बरात देखने लगे। व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई वाले कमरे में बैठ कर खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाइन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाये होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रात: आँख खुली तो कपड़े में गाँठ लगी देखी तो उसे खोल कर भाग गए।**
ममता बिखेरती सन्यासिन महादेवी वर्मा (चित्र कविताकोश से साभार)महादेवी वर्मा पति.पत्नी सम्बंध को स्वीकार न कर सकीं। कारण आज भी रहस्य बना हुआ है। आलोचकों और विद्वानों ने अपने.अपने ढँग से अनेक प्रकार की अटकलें लगायी हैं। महादेवी जी के जीवन के उत्तरार्ध में उनकी सेवा सुसुश्रा करने वाले श्री गंगा प्रसाद पाण्डेय के अनुसार.
’’ससुराल पहुँच कर महादेवी जी ने जो उत्पात मचायाए उसे ससुराल वाले ही जानते हैंण्ण्ण् रोनाए बस रोना। नई बालिका बहू के स्वागत समारोह का उत्सव फीका पड़ गया और घर में एक आतंक छा गया। फलतरू ससुर महोदय दूसरे ही दिन उन्हें वापस लौटा गए। ’’
1916 में विवाह के कारण कुछ दिन तक महादेवी जी की शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने 1919 में बाई का बाग स्थित क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। महादेवी जी की प्रतिभा का निखार यहीं से प्रारम्भ होता है।
1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा इनकी कविता लेखन प्रतिभा का प्रस्फुटन भी इसी समय हुआ। वैसे तो वे वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थीएतो एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र.पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था।
विद्यार्थी जीवन में वे प्रायः राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति संबंधी कविताएँ लिखती रहीं:-
’’विद्यालय के वातावरण में ही खो जाने के लिए लिखी गईं थीं। उनकी समाप्ति के साथ ही मेरी कविता का शैशव भी समाप्त हो गया।’’
मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पूर्व ही उन्होंने ऐसी कविताएँ लिखना शुरू कर दिया थाए जिसमें व्यष्टि में समष्टि और स्थूल में सूक्ष्म चेतना के आभास की अनुभूति अभिव्यक्त हुई है। उनके प्रथम काव्य.संग्रह संग्रह 'नीहार' की अधिकांश कविताएँ उसी समय की है।
पिता जी की मृत्यु के बाद महादेवी वर्मा के पति श्री स्वरूप नारायण वर्मा कुछ समय तक अपने ससुर के पास ही रहेए पर अपनी पुत्री महादेवी वर्मा की मनोवृत्ति को देखकर उनके बाबू जी ने श्री वर्मा को इण्टर करवा कर लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाकर वहीं बोर्डिंग हाउस में रहने की व्यवस्था कर दी। जब महादेवी इलाहाबाद में पढती थी तो श्री वर्मा उनसे मिलने वहाँ भी आते थे। किन्तु महादेवी वर्मा उदासीन ही बनी रहीं। विवाहित जीवन के प्रति उनमें विरक्ति उत्पन्न हो गई थी।
इस सबके बावजूद श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया।
1984 में लखनऊ में नवगीत गोष्ठी मे महादेवी जी (चित्र कविताकोश से साभार)महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोया और कभी शीशा नहीं देखा।। भगवान बुद्ध के प्रति गहन भक्तिमय अनुराग होने के कारण और अपने बाल-विवाह के अवसाद को झेलने वाली महादेवी बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं। यायावरी की इच्छा से बद्रीनाथ की पैदल यात्रा की और रामगढ़, नैनीताल में 'मीरा मंदिर' नाम की कुटीर का निर्माण किया। यह सन्यासिन 11 सितम्बर के दिन वापस उसी लोक में चली गयी जहाँ रहते हुये पूरे दो सौ वर्षों तक अपने परिवार को अपने आने की प्रतीक्षा करवाती रही थी।
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