यादों के झरोखे से,
जब तुम मुस्कुराती हो ;
मन में इक नयी उमंग -नयी-
कान्ति बन कर आती हो |
उस साल तुम अपनी,
नानी के यहाँ आई थीं ,
सारे कैम्पस में, एक -
नयी रोशनी सी लाई थीं |
वो घना सा रूप-
वो घनी केशराशि ;
हर बात में घने-घने -
कहने की अभिलाषी |
उसके बाग़ की बग़ीचों की,
फूलपत्ती और नगीनों केी।
हर चीज़ थी घनेरी-घनेरी,
जैसे आदत हो हसीनों केी ।
गर्मी की छुट्टी में,
मैं आऊंगी फ़िर ।
चलते चलते तुमने,
कहा था होके अधीर ।
अब न वो गर्मी आती है ,
न वैसी गर्मी की छुट्टी ।
शायद करली है तुमने,
मेरे से पूरी कुट्टी ॥
जब तुम मुस्कुराती हो ;
मन में इक नयी उमंग -नयी-
कान्ति बन कर आती हो |
उस साल तुम अपनी,
नानी के यहाँ आई थीं ,
सारे कैम्पस में, एक -
नयी रोशनी सी लाई थीं |
वो घना सा रूप-
वो घनी केशराशि ;
हर बात में घने-घने -
कहने की अभिलाषी |
उसके बाग़ की बग़ीचों की,
फूलपत्ती और नगीनों केी।
हर चीज़ थी घनेरी-घनेरी,
जैसे आदत हो हसीनों केी ।
गर्मी की छुट्टी में,
मैं आऊंगी फ़िर ।
चलते चलते तुमने,
कहा था होके अधीर ।
अब न वो गर्मी आती है ,
न वैसी गर्मी की छुट्टी ।
शायद करली है तुमने,
मेरे से पूरी कुट्टी ॥
9 टिप्पणियां:
Nice .
bahut komal pyaari se rachna.
श्रंगार रस का अच्छा चित्रण
अब न वो गर्मी आती है ,
न वैसी गर्मी की छुट्टी ।very nice.
धन्यवाद.....प्रग्या, राजेश,ममता व निशा जी....आभार...
sundar panktiya..
गुप्त जी की सुन्दर रचना प्रस्तुति हेतु आभार!
बहुत बढ़िया लिखा
बधाई.
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http://dilkikashmakash.blogspot.com/
धन्यवा आशाजी, किशोर जी एवं कविता जी.....
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