नारी, देवी और नवरात्रि..
ऋग्वेद 1/79/1 में ऋषि उद्धोष करता हैं ---
शुचिभ्राजा, उपसो नवेदा यशस्वतीर पस्युतो न सत्या:।
श्रध्दा, प्रेम, भक्ति, सेवा, समानता की प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, सदाचार से सुशोभित, ह्रदय को पवित्र करने वाली, लौकिकता युक्त, कुटिलता से अनभिज्ञ, निष्पाप, उत्तम, यशस्वी, नित्य उत्तम कार्य की इच्छा करने वाली, कर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है।
ऋग्वेद में माया को ही आदिशक्ति कहा गया है उसका रूप अत्यंत तेजस्वी और ऊर्जावान है। फिर भी वह परम कारूणिक और कोमल है। जड़-चेतन सभी पर वह निस्पृह और निष्पक्ष भाव से अपनी करूणा बरसाती है। प्राणी मात्र में आशा और शक्ति का संचार करती| नारी को माया रूप ही माना गया है|
देवी सूक्ति में देवी स्वयं कहती है... अहं राष्ट्री संगमती बसना ,अहं रूद्राय धनुरातीमि' .....अर्थात्
'मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं । मैं ही रूद्र के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। धरती, आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूँ।' .....विविध अंश रूपों में यही आदिशक्ति सभी देवताओं की परम-शक्ति कहलाती हैं, जिसके बिना वे सब अपूर्ण हैं, अकेले हैं, अधूरे हैं। देवी भागवत--. में कथन है......’देवीं मायां तु श्रीकामः’ ..नारी समस्त श्रेष्ठ कार्यों की देवी है | ......'समस्त विधाएँ, कलाएँ, ग्राम्य देवियाँ और सभी नारियाँ इसी आदिशक्ति की अंशरूपिणी हैं।
वस्तुतः आर्य संस्कृति में नारी का अतिविशिष्ट स्थान रहा है। आर्य चिंतन में तीन अनादि तत्व हैं - परब्रह्म, माया और जीव। माया, परब्रह्म की आदिशक्ति है एवं जीवन के सभी क्रियाकलाप उसी माया, आदिशक्ति की क्रियाशीलता, कारक शक्ति से होते हैं जिनका भोक्ता जीव है ... ब्रह्म सिर्फ इच्छा करता है दृष्टा है... वह कर्ता नहीं है न भोक्ता ।
हमारी यह यशस्वी संस्कृति स्त्री को कई आकर्षक संबोधन देती है। मां कल्याणी है, वहीं पत्नी गृहलक्ष्मी है। बहन मान्या....बिटिया राजनंदिनी है और नवेली बहू के कुंकुम चरण ऐश्वर्य लक्ष्मी आगमन का प्रतीक है। हर रूप में वह आराध्या है। वैदिक साहित्य में स्त्रियों का एक नाम ‘मना’ है क्योंकि वे पुरुष की सम्माननीया हैं।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार....अनादिकाल से सारे नैसर्गिक अधिकार उसे स्वत: ही प्राप्त हैं। कभी मांगने नहीं पड़े हैं। वह सदैव देने वाली है। अपना सर्वस्व देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है।
भारतीय स्त्री का हर रूप अनूठा है, अनुपम है, अवर्णनीय है। वह किसी पहचान, परिभाषा, श्लोक, मंत्र या सूत्र में अभिव्यक्त नहीं हो सकती ? साहस, संयम और सौंदर्य जैसे दिव्य-दिव्य गुणों को समयानुरूप इतनी दक्षता से प्रकट करती है कि सारा परिवेश चौंक उठता है। इसीलिये त्योहारों पर्वों के समय उसके रोम-रोम से उल्लास, उमंग प्रस्फुटित होते हैं । मन-धरा से सुगंधित लहरियां उठने लगती हैं। श्रृंगार में, रास-उल्लास में, आचार-विचार और व्यवहार में, रूचियों, प्रकृतियों और प्रवृत्तियों से त्योहार के सजीले रंग सहज ही झलकने लगते हैं।
बाह्य श्रृंगार से आंतरिक कलात्मकता मुखरित होने लगती है, चेहरे पर लावण्य-तेज चमक उठता है। शील, शक्ति और शौर्य का विलक्षण संगम है भारतीय नारी। ......स्वर्ण यदि सुन्दर होता तो स्वयं शो-रूम में ही खिल उठता पर वह खिलता है नारी के कंगनों में.... मेहंदी की आकृतियां ही सुंदर होती तो पन्नों पर खिल उठती परन्तु नारी की गुलाबी नर्म हथेलियां ही उसे भव्यता प्रदान करती हैं|
इसी शील, शक्ति व शौर्य युत सौन्दर्य को देवी रूप कहा गया है, पूजा गया है विरुदावलियाँ गाई गयीं हैं..जो नवरात्रों में अपनी पूर्णता-सम्पूर्णता के साथ दृश्यमान होता है| नवरात्रि में वे नौ शक्तियों –विविध रूपों में थिरक उठती हैं। ये शक्तियां अलौकिक प्रतीत होती हैं। परंतु वास्तविक दृष्टि में वे इसी संसार की लौकिक सत्ता हैं। यथा ...व्यंजन परोसती अन्नपूर्णा, श्रृंगारित स्वरूप में वैभवलक्ष्मी, बौद्धिक परामर्शदात्री सरस्वती और मधुर संगीत की स्वरलहरी उच्चारती वीणापाणि के रूप में। शौर्य दर्शाती दुर्गा भी वही, उल्लासमयी थिरकनें रचती, रोम-रोम से पुलकित अम्बा भी वही है। आवश्यकतानुसार दुष्टता–विनाशक काली भी वही है |
यूं तो देवी पूजा विश्व के सभी देशों में अपनी अपनी संस्कृति, संस्कार के अनुसार होती है ...यथा चीन में कात्यायिनी का नील सरस्वती ( तारा देवी ) रूप पूजा जाता है ...यूनान में प्रतिशोध की देवी नेमिशस एवं शक्ति की देवी डायना व श्वेतवर्णी यूरोपा व वेल्स की उर्वशी ...रोम में कुमारियों की देवी वेस्ता एवं कोरिया में सूर्यादेवी, मिस्र में आइसिस, फ्रांस में पुष्पों की देवी फ्लोरा ,इटली में सौन्दर्य की देवी फेमिना, अफ्रीका की कुशोदा एवं अमेरिका की पातालेश्वरी ..जो शायद अहिरावण द्वारा पूजित पाताल-देवी है जिसको वह राम-लक्ष्मण की वाली देने चाहता था परन्तु हनुमान द्वारा असफल कर दिया गया |
नारी को सदा ही
आदि-शक्ति का रूप माना जाता है | संसार की उत्पत्ति, स्थिति, संसार चक्र की
व्यवस्था, व लय....सभी आदि-शक्ति का ही कृतित्व होता है | इसी प्रकार समस्त संसार
व जीवन-जगत एवं पुरुष जीवन – नारी के ही चारों ओर परिक्रमित होता है | आदि-शक्ति
या देवी के ये नौ रूप एवं नौ -दिवस ---वस्तुतः नारी के विभिन्न रूपों व कृतित्वों के प्रतीक
ही हैं |
ऐसी सृष्टि की सबसे सुंदर रचना हमारे बीच है, जिसमें है आकाश के समान अनंत, अपार, असीम....शून्य से शिखर तक पहुंचने की अशेष शक्ति ...पर नहीं पहचान पाते हम? एक मुट्ठी आकाश भी नहीं दे पाते ....
शक्ति-उपनिषद का श्लोक
है.....
“ स वै नैव
रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत। सहैता वाना स। यथा स्त्रीन्पुन्मासो
संपरिस्वक्तौ स। इयमेवात्मानं द्वेधा पातपत्तनः पतिश्च पत्नी चा भवताम।“
---- अकेला ब्रह्म रमण न कर सका, उसने अपने
संयुक्त भाव-रूप को
विभाज़ित किया और दोनों पति-पत्नी भाव को
प्राप्त हुए।
ऋग्वेद ८/३१/६६७५ में कथन
है—
“या दमती समनस
सुनूत अ च धावतः । देवासो नित्य यशिरा ॥“- जो दम्पति समान विचारों से
युक्त होकर सोम अभुषुत ( जीवन व्यतीत) करते हैं, और प्रतिदिन
देवों को दुग्ध मिश्रित सोम ( नियमानुकूल नित्यकर्म) अर्पित करते है, वे सुदम्पति
हैं।
.....’अग्निपुराण‘ में उल्लेख है.....
’’नरत्वं दुलर्भं लोक, लोके विद्या सुदुर्लभा, कवित्वं दुलर्भं तत्र, शक्तिस्तत्र दुलर्भा।‘‘
आइये इस नवरात्रि पर प्रार्थना
करें महादेवी आदिशक्ति से कि हर नारी में स्फुरित हों ऐसे सुंदर भाव कि
छू सके वह समूचा आसमान और नाप सके सारी
धरती अपने सुदृढ़ कदमों से, भर सके
पुरुष के ह्रदय में ज्योतित भाव संस्कृति, समाज, संस्कार रक्षण के ...और पुरुष में
नारी की प्रति कृतज्ञता, सौम्यता, सौहार्द, समानता, सम्मान के आदर्श भाव जागृत हों