औरत से खेलता है मर्द उसे मान खिलौना ,
औरत भी जानदार है नहीं बेजान खिलौना !
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नज़र उठी तो देख लिया आसमान पूरा ,
झुकी नज़र जो जानती थी पलक भिगोना !
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आज कलम थामकर लिखती हकीकत ,
उँगलियाँ जो जानती थी दूध बिलौना !
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लब हिले तो दास्ताँ दर्द की बयान की ,
सिले हुए दबाते रहे ज़ख्म घिनौना !
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'नूतन' वे चल पड़ी पथरीली राह पर ,
उनको नहीं भाता है अब उड़न-खटोला !
शिखा कौशिक 'नूतन'
4 टिप्पणियां:
आज कलम थामकर लिखती हकीकत ,
उँगलियाँ जो जानती थी दूध बिलौना !
bahut sundar bat kahi aur sateek bhi .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (30-03-2014) को "कितने एहसास, कितने ख़याल": चर्चा मंच: चर्चा अंक 1567 पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सवाल यह भी औरत ने ख़ुद को खिलौना बनने क्यूं दिया
सही कहा सावन कुमार....
औरत जो चाहे सत की डगर जग को दिखादे,
भूलकर के उँगलियों से दूध का बिलोना,
बस गैर के दामन का वो लेके सहारा,
चाहत के आसमाँ को जब चाहती छूना,
बनने देती है तब वो खुद को खिलौना |
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