रविवार, 27 जनवरी 2013

नारी

है कुछ मेरे भी सपने,
कुछ आकांक्षाएं,
कुछ महत्वाकांक्षाएं,
कुछ भाव,
कुछ संवेदनाएं,
कुछ अव्यक्त सा,
घुटता रहता है,
हर वक़्त, हर क्षण,
लेकिन सबको दबाकर,
सारी आकांक्षाएं/महत्वाकांक्षाएं/सं
वेदनाएं,
गुम जाती हूँ मैं तुममे,
इस तरह,
कि मेरी पहचान ही शुरू होती है तुमसे,
कभी कभी सोचती हूँ,
अपने नाम के पीछे के शब्द हटा दूँ,
और उड़ जाउं कहीं दूर,
दूर गगन में,
जी आउं अपने हिस्से का,
सारा जीवन,
कर लूँ पूरी,
सारी आकांक्षाएं/महत्वाकांक्षाएं/संवेदनाएं,
कर दूँ व्यक्त,
जो अब भी अव्यक्त सा,
घुमड़ता है मेरे अन्दर,
लेकिन फिर रुक जाती हूँ,
रोक लेती हूँ अपने सारे भाव,
और लौट आती हूँ,
तुम्हारे बनाये,
सोने के पिंजरे में फिर से,
जिसमे तुमने समाज के ताले लगाये हैं,
लेकिन एक बार सिर्फ एक बार,
काश तुम नारी बनकर,
समझ सकते मेरी भावनाएं।

-नीरज

9 टिप्‍पणियां:

Rajesh Kumari ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 29/1/13 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है

डा श्याम गुप्त ने कहा…

और काश नारियां मर्द न बनतीं....अपितु मर्द की जगह खड़ी होकर सोचतीं.....

Asha Lata Saxena ने कहा…

उम्दा रचना |
आशा

Archanaa Raz ने कहा…

नारी मन की समवेदनाओं का खूबसूरत चित्रण नीरज जी ।

Pratibha Verma ने कहा…

सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति..

Niraj Pal ने कहा…

नारियों ने मर्द बनने की कभी सोचा ही नहीं, डॉ श्याम कृपया थोडा विस्तार दें

Niraj Pal ने कहा…

आभार आप सभी का।

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

koi lakh koshish kare nari ban kar nari k avsaad ko nahi samajh sakta.

sunder prastuti.

bhawnavardan@gmail.com ने कहा…

Atyant bhavpoorn rachna