श्री राम ने क्यों लिया एक पत्नी व्रत ?-एक विवेचन
मर्यादा पुरुषोतम श्री राम का जीवन चरित युगों-युगों से सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए अनुकरणीय रहा है .श्री राम के चरित का हर पक्ष उज्ज्वल है .एक पुत्र ,पति ,भ्राता और राजा को किन जीवन मूल्यों , आदर्शो , व् मर्यादाओं का पालन जीवन-पर्यंत करना चाहिए -वह श्री राम के चरित का विश्लेषण कर भारतीय मनीषी सदैव से जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं .श्री राम के चरित का जो सबसे उज्ज्वल पक्ष है वो है -नारी जाति के सम्मान को पुनर्स्थापित करना . इस सन्दर्भ में ''देवी अहिल्ला का उद्धार '' प्रसंग से भी अधिक महत्वपूर्ण है श्री राम द्वारा आजीवन ''एक पत्नी-व्रत '' का कठोरता से पालन .श्री राम ने जिस युग में इस व्रत का कठोरता से पालन किया उस युग में इसकी कल्पना भी अन्य किसी पुरुष से नहीं की जा सकती थी .बहुपत्नी-विवाह शासक वर्ग ,धनी एवं अभिजात वर्ग के पुरुषों के लिए प्रतिष्ठा का विषय था .संपत्ति के अंतर्गत उस काल में मात्र धन , भूमि , सेना ही नहीं आती थी स्त्री भी सम्मिलित थी .युद्ध विजयी राजा को पराजित राजा विवश होकर अपनी स्त्रियाँ भी समर्पित कर देता था अथवा वे बलात छीन ली जाती थी .यह विजयी राजा के ऐश्वर्य व् प्रतिष्ठा में चार-चाँद जड़ने जैसा था .ऐसे युग में श्री राम जब एक पत्नी व्रत लेते हैं तब उसके कारणों पर चिंतन-मनन करना आवश्यक हो जाता है जबकि स्वयं उनके धर्मचारी व् वैभवशाली पिता राजा दशरथ के तीन महारानियों -माता कौशल्या , माता कैकयी ,माता सुमित्रा के अतिरिक्त साढ़े तीन सौ रानियाँ थी . इस सन्दर्भ में यह दृष्टव्य है -
''एतावद्नीतार्थ्मुक्त्वा ................कृतांजलि:''
[अर्थात -माता से इस प्रकार अपना अभिप्राय बताकर श्री राम ने अपनी अन्य साढ़े तीन सौ माताओं की ओर दृष्टिपात किया और उनको भी कौशल्या की ही भांति शोकाकुल पाया .''अयोध्या कांड -एकोन चत्वारिंश:सर्ग:, श्लोक -३६-३७ '' ]
श्री राम के एक पत्नी व्रत लेने के सम्बन्ध में जो सामान्य रूप से व् बहुमान्य कारण प्रत्यक्ष दिखाई देता है वह है -नारी के मानवी अस्तित्व को मान्यता प्रदान करना .उसे संपत्ति से एक गरिमामयी मानवी रूप में स्थापित करना क्योंकि श्री राम जन्म के कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण -''रावण द्वारा स्त्रियों पर किये जाने वाले अत्याचार ''; था .यथा-
''उत्साद्यती लोकंस्त्रीन........मनुषेभ्य:परंतप '' [बाल कांड -षोडश:सर्ग:, श्लोक-७ पृष्ठ -६७ ]
[ शत्रुओं को संताप देने देव ! वह रावण तीनों लोकों को पीड़ा देता और स्त्रियों का भी अपहरण कर लेता है , अब उसका वध मनुष्य के हाथ से ही निश्चित हुआ है ]
यह कारण जगत-विदित है किन्तु श्री राम चरित का गहराई से विश्लेषण करें तो यह ''एक पत्नी व्रत '' का मुख्य कारण नहीं ठहरता क्योंकि यदि एक समय पर एक भार्या को सम्मान देना श्री राम के मर्यादित जीवन का आदर्श मात्र होता तो भगवती सीता के वैकुंठ गमन के पश्चात् वे किसी अन्य श्रेष्ठ कुल की राजकुमारी को सिंहासन पर अपने वाम भाग की अधिकारिणी के रूप में प्रतिष्ठित कर सकते थे . यहाँ श्री राम के अलौकिक रूप ;जिसके अनुसार श्री नारायण की एक मात्र वाम भगिनी माता लक्ष्मी ही हैं ,को तर्क रूप में प्रस्तुत करना व्यर्थ है क्योंकि हम यहाँ मानव रूप में अवतरित राजा रामचंद्र के चरित का विश्लेषण कर रहे हैं न कि ब्रह्म स्वरुप प्रभु राम का .यज्ञ संपन्न करने जैसे महत्वपूर्ण धार्मिक कार्यो के समय भी श्री राम ने माता सीता की स्वर्णमयी प्रतिमा को ही अपने वाम भाग में प्रतिष्ठित किया .यथा -
''कांचनी मम पत्नी च दीक्षयाम ज्ञान्क्ष्च कर्मणि '' [उत्तर काण्ड -द्विनवतितम:सर्ग:, श्लोक-२५ ,पृष्ठ -८०१ ]
''न सीतायाम परम .............जानकी कांचनी भवत:''[उत्तर काण्ड -एकोंशततम:सर्ग: पृष्ठ-८१३,श्लोक-८]
[उन्होंने (श्री राम )सीता के सिवा दूसरी किसी स्त्री से विवाह नहीं किया . प्रत्येक यज्ञ में जब धर्मपत्नी की आवश्यकता होती श्री रघुनाथ जी सीता की स्वर्णमयी प्रतिमा बनवा लिया करते थे ]
एक पत्नी व्रत पर ऐसी दृढ़ता श्री राम के चरित में कैसे आई ? इसके लिए हमें ''रामायण'' के सबसे क्रूर व् कुटिल प्रसंग पर दृष्टिपात करना होगा अर्थात रानी कैकेयी का राजा दशरथ से श्री राम के स्थान पर श्री भरत का राज्यभिषेक व् श्री राम को चौदह वर्षों का कठोर वनवास का वर मांगने का प्रसंग .इस प्रसंग में जब श्री राम वनवास हेतु माता कौशल्या से आज्ञा लेने उनके समीप जाते हैं तब श्री राम ह्रदय पर शैशव काल से लगे माता के अपमान रुपी आघातों की परतें एक एक कर उतरने लगती हैं .बालक राम की माता कौशल्या उनके पिता राजा दशरथ की ज्येष्ठ पत्नी थी पर उन्हें राजा दशरथ की अन्य रानियों विशेषकर रानी कैकेयी के कारण जीवन भर अपमान-गरल पीना पड़ा .श्री राम को चौदह वर्षों का वनवास दिए जाने पर माता कौशल्या का ह्रदय चीत्कार कर उठता है . तब उनके उर की व्यथा प्रकट हुए बिना नहीं रहती .वे कहती हैं -
''त्वयि ...मरन्येवाही ''[श्लोक-४१ , अयोध्या कांड , विंश: सर्ग: .पृष्ठ-२३९ ]
[तात !तुम्हारे निकट रहने पर भी इस प्रकार सौतों से तिरस्कृत रही हूँ , फिर तुम्हारे परदेस चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी ? उस दशा में मेरा मरण तो निश्चित है ]
इसी सन्दर्भ में माता कौशल्या पति द्वारा रानी कैकेयी की तुलना में अपनी उपेक्षा किये जाने की वेदना अभिव्यक्त करते हुए कहती हैं-
''अत्यन्तं निग्रिहॆतस्मि.............वाप्य्थ्वावारा '' [उपरोक्त ,श्लोक-४२ ]
[पति की ओर से मुझे सदा अत्यंत तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है ,प्यार और सम्मान कभी नहीं प्राप्त हुआ है .मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी बीती समझी जाती हूँ ]
सौत ककेयी के राजमहल में वर्चस्व की व्याख्या करते हुए माता कौशल्या श्री राम से कहती हैं -
''यो हि माम् सेवते .........जानो नाभिभाश्ते ''[उपरोक्त ,श्लोक-४३ ]
[जो कोई मेरी सेवा में रहता या मेरा अनुसरण करता है ,वह भी कैकेयी के बेटे को देखकर चुप हो जाता है ,मुझसे बात नहीं करता ]
सौत के ऐसे आतंक से डरी माता कौशल्या श्री राम वनगमन पर अपनी मार्मिक दशा का उद्घाटन करते श्री राम से कहती हैं -
''नित्य क्रोध्तया .....दुर्गता '' [उपरोक्त ,श्लोक-४४ ]
[बेटा इस दुर्गति में पड़कर मैं सदा क्रोधी स्वाभाव के कारण कटुवचन बोलने वाले उस कैकेयी के मुख को कैसे देख सकूंगी ]
सौतिया डाह से भयाक्रांत माता कौशल्या जब श्री राम के साथ ही वनगमन का प्रस्ताव रखती हैं तब उनके ह्रदय की वेदना को क्या श्री राम ने आज और अभी जाना था ?-
''आसां राम सपत्नीनाम .........पितार्पेक्षाया '' [अयोध्या काण्ड , चतुर्विंश: सर्ग: ,श्लोक -१९ ,२० ]
[बेटा राम ! अब मुझसे इन सौतों के बीच में नहीं रहा जायेगा .काकुत्स्थ !यदि पिता की आज्ञा का पालन करने की इच्छा से तुमने वन जाने का ही निश्चय किया है तो मुझे भी वन वासिनी हरिणी की भांति वन में ही ले चलो]
विचारणीय है कि जन्म से वनगमन के मध्य श्री राम ने अपनी बाल्यावस्था ,किशोरावस्था व् प्रारंभिक युवावस्था में माता के प्रति जो सौतेली माताओं का [विशेषकर रानी कैकेयी ] जो व्यव्हार देखा क्या उसने ही श्री राम ह्रदय में एक पत्नी व्रत का बीज रोप दिया था ?सौतेली माता द्वारा निज जननी का अपमान कौन संतान सहन कर सकती है ? निश्चित रूप से श्री राम द्वारा इसी असहनीय स्थिति ने एक पत्नी व्रत हेतु प्रेरित किया होगा क्योंकि जीवन के इसी भाग में मानव सर्वाधिक उत्साही प्रवर्ति वाला व् अन्याय के विरूद्ध सक्रिय होता है .
सौतेली माताओं के निज जननी के साथ दुर्व्यवहार के अतिरिक्त जो दूसरा कारण श्री राम द्वारा एक पत्नी व्रत लिए जाने का प्रकट होता है वो है -महान पिता राजा दशरथ द्वारा राम माता के साथ उपेक्षापूर्ण बर्ताव किया जाना .राजा दशरथ की यह स्वीकारोक्ति श्री राम जननी के प्रति किये गए उनके उपेक्षा पूर्ण बर्ताव को ही प्रदर्शित करती है -
''यदि सत्यम ............कृते तव '' [द्वादश:सर्ग: श्लोक-६७,६८ ,६९ ]
[यदि कहूं कि श्री राम को वनवास देकर मैंने सत्य का पालन किया है .........यदि राम वन को चले गए तो कौशल्या मुझे क्या कहेगी ?उसका ऐसा महँ अपकार करके मैं उसे क्या उत्तर दूंगा ?हाय !जिसका पुत्र मुझे सबसे अधिक प्रिय है , वह प्रिय वचन बोलने वाली कौशल्या जब जब दासी , सखी , पत्नी , बहिन और माता की भांति मेरा प्रिय करने की इच्छा से मेरी सेवा में उपस्थित होती थी तब तब उस सत्कार पाने योग्य देवी का भी मैंने तेरे[कैकेयी] ही कारण कभी सत्कार नहीं किया ]
निश्चित रूप से श्री राम के बाल व् किशोर ह्रदय पर धर्माचारी पिता द्वारा निज जननी के साथ किये गए इस भेदभाव पूर्ण व्यव्हार का व्यापक प्रभाव पड़ा होगा .''इतना महान पिता भी निजी जीवन में क्यों आदर्शों व् मर्यादाओं की उपेक्षा का दोषी बन जाता है ?क्या विराट व्यक्तित्व को बहुपत्नी रखने का दंड अपनों की दृष्टि में ही गिरकर चुकाना नहीं पड़ता ?''-क्या इसका विश्लेषण श्री राम ने नहीं किया होगा ?
कितने लाचार हो उठते हैं राजा दशरथ रानी कैकेयी के समक्ष ! राजा दशरथ को न केवल महारानी कौशल्या की दृष्टि में अपितु रानी सुमित्रा की दृष्टि में भी दोषी बन जाने का डर सताने लगता है -
''विप्रकारम च ........विश्व शिष्यती'' [उपरोक्त ,श्लोक-७१ ]
[श्री राम के अभिषेक का निवारण और उनका वन की और प्रस्थान देखकर निश्चय ही सुमित्रा भयभीत हो जाएगी फिर वह कैसे मेरा विश्वास करेगी ? ]
संभव है ऐसी विवशता से टकराते पिता को श्री राम बाल्यावस्था से देखते रहे हो .कौन बालक अपने महान पिता के जीवन के इस विवश-अध्याय से शिक्षा न लेगा ?
एक अन्य तथ्य पर भी ध्यानाकर्षण इस विषय में उपयोगी होगा .जब रानी कैकेयी की दासी मंथरा उन्हें श्री राम के राज्य अभिषेक का समाचार सुनती है तब वे हर्षित होकर आनंदमग्न हो जाती हैं .यथा -
''अतीव सा संतुष्ट कैकेयी ..........राज्येभिशेक्श्यति'' [अयोध्या कांड ,श्लोक ३२ ,३३ ,३४ , ३५ ]
[कैकेयी मन ही मन अत्यंत संतुष्ट हुई .विस्मित विमुग्ध हो मुस्कुराते हुए उसने कुब्जा को पुरस्कार के रूप में एक बहुत सुन्दर दिव्य आभूषण प्रदान किया .कुब्जा को वह आभूषण देकर हर्ष से भरी रमणी शिरोमणि कैकेयी ने पुन: मंथरा से इस प्रकार कहा -मन्थरे यह तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया .तूने मेरे लिए जो यह प्रिय संवाद सुनाया उसके लिए मैं तेरा और कौन सा उपकार करूं ? मैं भी राम और भरत में कोई भेद नहीं समझती .अत:यह जानकर कि राजा श्री राम का अभिषेक होने वाला है ,मुझे बड़ी ख़ुशी हुई है ]
श्री राम के प्रति ऐसे स्नेही भाव रखने वाली रानी कैकेयी को जब मंथरा सचेत करती है कि श्री राम का राज्याभिषेक हो जाने से उनकी माता महारानी कौशल्या का मान बढ़ जायेगा तब रानी कैकेयी के उद्गार देखिये -
'एवमुक्त्वा .........भारतं क्षिप्र्मद्याभिशेचाये'' [अयोध्या कांड ,नवम सर्ग ,श्लोक-१ , २ ,पृष्ठ-२०० ]
[मंथरा के ऐसा कहने पर कैकेयी का मुख क्रोध से तमतमा उठा .वह लम्बी और गरम साँस खींचकर इसप्रकार बोली-कुब्जे ! मैं श्री राम को शीघ्र ही यहाँ से वन में भेजूंगी और तुरंत ही युवराज के पद पर भरत का अभिषेक करुँगी ]
''एष में जीवित..........य्द्य्भिशिच्य्ते '' [उपरोक्त ,श्लोक ५९ ,पृष्ठ-२०३ ]
[यदि श्री राम का राज्याभिषेक हुआ तो यह मेरे जीवन का अंत होगा ]
ध्यातव्य है कि सौतिया दाह रानी कैकेयी के ममतामयी भावों पर हावी हो गया था .यथा -
''एकाहमपि .....मृत्र्मम''[द्वादश सर्ग ,श्लोक-४८ अयोध्या कांड ]
[यदि एक दिन भी महारानी कौशल्या को राजमाता होने के नाते दूसरे लोगों से अपने को हाथ जोड़वाती देख लूंगी तो उसी समय मैं अपने लिए मर जाना ही अच्छा समझूँगी ]
क्या श्री राम के व्यक्तित्व निर्माण के समय राजा दशरथ की रानियों अर्थात माताओं के पारस्परिक संबंधों का प्रभाव नहीं पड़ा होगा ? क्या वे बाल्यअवस्था से यह अनुभव नहीं करते होंगे कि माता कैकेयी का व्यव्हार उनके प्रति कैसा है और उनकी जननी के प्रति कैसा ? राजा दशरथ का श्री राम के प्रति स्नेह जगत विदित है .चरों पुत्रों में सर्वाधिक प्रेम वे ज्येष्ठ पुत्र श्री राम को ही करते थे किन्तु श्री राम की जननी की तुलना में उनका प्रेम छोटी रानी कैकेयी के प्रति अधिक था . .यथा-
'सवृद्ध्स्तारुनी ........प्राणेभ्योअपिगरियसि ''[श्लोक-२३ अयोध्या कांड ,दशम:सर्ग, पृष्ठ-२०५ ]
[राजा बूढ़े थे और उनकी वह पत्नी [कैकेयी] तरुणी थी ,अत:वे उसे अपने प्राणों से भी बढ़कर मानते थे ]
राजा दशरथ के द्वारा अधिक मान देने के कारन ही रानी कैकेयी घमंड में भरकर अपने से बड़ी रानियों को अपमानित करने से भी नहीं चूकती थी .श्री राम के राज्याभिषेक हेतु मंत्र उसे इसी दुराचरण की स्मृति दिलाती है -
'दर्पान्निराकृता पूर्वं .................याप्येत ''[श्लोक 37 ,अयोध्या कांड ,अष्टम:सर्ग:]
[तुमने पहले पति का अत्यंत प्रेम प्राप्त होने के कारण घमंड में आकर जिनका अनादर किया था ,वे ही तुम्हारी सौत श्री राम माता कौशल्या पुत्र की राज्य प्राप्ति से परम सौभाग्यशालिनी हो उठी हैं .अब वे तुमसे बैर का बदला क्यों नहीं लेंगी ?]
राजमहल हो अथवा साधारण घरपरिवार जहाँ भी एक पुरुष ने कई विवाह किये हैं उनके साथ वह समान व्यवहार करने में असफल रहता है .इसके दुष्परिणाम स्त्रियों के साथ साथ उसकी संतानों को भी आजीवन भोगने पड़ते हैं .श्री राम ने इन परस्थितियों को समीप से देखा-भोगा था .एक आदर्श चरित्र के निर्माण में उसके जीवन की परिस्थितियाँ अहम् भूमिका निभाती हैं .समीप से निज जननी की व्यथा ,महान पिता की विवशताओं व् वर्चस्व के छिन जाने के प्रति सशंकित रानी कैकेयी के असंतुलित आचरण की जड़ में श्री राम ने बहुपत्नी विवाह को ही कारण पाया होगा . बहुपत्नी विवाह के दुष्परिणामों से बचने व् आने वाली पीढ़ियों को एक आदर्श प्रदान करने हेतु ही श्री राम ने एक पत्नी व्रत लिया और आजीवन उसका कठोरता से पालन किया .श्री राम के मुखारविंद से निकले ये उद्गार ['शूर्पणखा-प्रसंग'' में] उनके द्वारा लिए गए एक पत्नी व्रत की महत्ता को प्रदर्शित करते हैं.देखें-
''कृतदारोअस्मि ......ससपत्नता ''[श्लोक-२,अरण्य कांड ,अष्टादश:: सर्ग:]
[आदरणीय देवी ! मैं विवाह कर चुका हूँ .यह मेरी प्यारी पत्नी विद्यमान है .तुम जैसी स्त्रियों के लिए तो सौत का रहना अत्यंत दुखदायी ही होगा ]
'राम:सीता:...सुन्दरी ''[अध्यात्म रामायण ,पंचम सर्ग:,पृष्ठ-११७]
[तब रामचंद्र जी ने नेत्रों से सीता जी की ओर संकेत करके मुस्कुराकर कहा -हे सुन्दरी ! मेरी तो यह भार्या मौजूद है ,जिसको त्यागना असंभव है .इसके रहते हुए तुम जन्म भर सौत डाह से जलती हुई किस प्रकार रह सकोगी ?]
कितनी गूढता से श्री राम सपत्नी डाह को समझ चुके थे ! सीता जी से विवाह के समय एक पत्नी व्रत के प्रति चाहे श्री राम का झुकाव मात्र रहा हो किन्तु जीवन में घटित दुर्घटनाओं ने उन्हें इस व्रत पालन पर दृढ रहने की शक्ति प्रदान की .''झुकाव मात्र'' मैंने इसलिए कहा है क्योंकि ''श्रीरामचरित मानस '' के अरण्य-कांड में श्री लक्ष्मण जी द्वारा कहे गए ये वचन प्रमाणित करते हैं कि श्री राम द्वारा लिए गए एक पत्नी व्रत का संज्ञान उनके अनुज तक को नहीं था तभी तो श्री लक्ष्मण शूर्पणखा से कहते हैं-
''सुन्दरि सुनु मैं उन्ह कर दासा ,पराधीन नहि तोर सुवासा ,
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा ,जो कछु करहि उनहि सब छाजा ''
[श्री रामचरितमानस,पृष्ठ-५७५ ,आहूजा प्रकाशन ]
निश्चित रूप से यदि श्री लक्ष्मण को श्री राम के एक पत्नी व्रत का संज्ञान नहीं था .यदि वे इस से परिचित होते तो शूर्पणखा को पुन:प्रणय निवेदन हेतु श्री राम के समक्ष नहीं भेजते .
श्री राम की एक पत्नी व्रत के प्रति दृढ़ता शनै शनै ही सशक्त होती गयी होगी ..बाल्यावस्था में निज जननी का अन्य सौतों द्वारा अनादर ,सौतिया डाह के कारण स्नेहमयी माता कैकेयी का कटु आचरण ,पिता का माता कैकेयी द्वारा किया गया तिरस्कार व् पिता का एक रानी के प्रति अधिक मोह हो जाने के कारण निज जननी की उपेक्षा व् पिता की विवशताओं का प्रत्यक्ष दर्शन आदि कारणों ने श्री राम को एक पत्नी व्रत पर अटल रहने हेतु संबल प्रदान किया .निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि श्री राम के एक पत्नी व्रत धारण के मूल में राजा दशरथ के बहुपत्नी विवाह के दुष्परिणाम ही रहे होंगे .
[शोध ग्रन्थ-श्री मद वाल्मीकीय रामायण[गीता प्रेस ] ,अध्यात्म रामायण[गीता प्रेस ] ,श्री राम चरित मानस [आहूजा प्रकाशन ]
डॉ शिखा कौशिक ''नूतन ''
मर्यादा पुरुषोतम श्री राम का जीवन चरित युगों-युगों से सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए अनुकरणीय रहा है .श्री राम के चरित का हर पक्ष उज्ज्वल है .एक पुत्र ,पति ,भ्राता और राजा को किन जीवन मूल्यों , आदर्शो , व् मर्यादाओं का पालन जीवन-पर्यंत करना चाहिए -वह श्री राम के चरित का विश्लेषण कर भारतीय मनीषी सदैव से जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं .श्री राम के चरित का जो सबसे उज्ज्वल पक्ष है वो है -नारी जाति के सम्मान को पुनर्स्थापित करना . इस सन्दर्भ में ''देवी अहिल्ला का उद्धार '' प्रसंग से भी अधिक महत्वपूर्ण है श्री राम द्वारा आजीवन ''एक पत्नी-व्रत '' का कठोरता से पालन .श्री राम ने जिस युग में इस व्रत का कठोरता से पालन किया उस युग में इसकी कल्पना भी अन्य किसी पुरुष से नहीं की जा सकती थी .बहुपत्नी-विवाह शासक वर्ग ,धनी एवं अभिजात वर्ग के पुरुषों के लिए प्रतिष्ठा का विषय था .संपत्ति के अंतर्गत उस काल में मात्र धन , भूमि , सेना ही नहीं आती थी स्त्री भी सम्मिलित थी .युद्ध विजयी राजा को पराजित राजा विवश होकर अपनी स्त्रियाँ भी समर्पित कर देता था अथवा वे बलात छीन ली जाती थी .यह विजयी राजा के ऐश्वर्य व् प्रतिष्ठा में चार-चाँद जड़ने जैसा था .ऐसे युग में श्री राम जब एक पत्नी व्रत लेते हैं तब उसके कारणों पर चिंतन-मनन करना आवश्यक हो जाता है जबकि स्वयं उनके धर्मचारी व् वैभवशाली पिता राजा दशरथ के तीन महारानियों -माता कौशल्या , माता कैकयी ,माता सुमित्रा के अतिरिक्त साढ़े तीन सौ रानियाँ थी . इस सन्दर्भ में यह दृष्टव्य है -
''एतावद्नीतार्थ्मुक्त्वा ................कृतांजलि:''
[अर्थात -माता से इस प्रकार अपना अभिप्राय बताकर श्री राम ने अपनी अन्य साढ़े तीन सौ माताओं की ओर दृष्टिपात किया और उनको भी कौशल्या की ही भांति शोकाकुल पाया .''अयोध्या कांड -एकोन चत्वारिंश:सर्ग:, श्लोक -३६-३७ '' ]
श्री राम के एक पत्नी व्रत लेने के सम्बन्ध में जो सामान्य रूप से व् बहुमान्य कारण प्रत्यक्ष दिखाई देता है वह है -नारी के मानवी अस्तित्व को मान्यता प्रदान करना .उसे संपत्ति से एक गरिमामयी मानवी रूप में स्थापित करना क्योंकि श्री राम जन्म के कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण -''रावण द्वारा स्त्रियों पर किये जाने वाले अत्याचार ''; था .यथा-
''उत्साद्यती लोकंस्त्रीन........मनुषेभ्य:परंतप '' [बाल कांड -षोडश:सर्ग:, श्लोक-७ पृष्ठ -६७ ]
[ शत्रुओं को संताप देने देव ! वह रावण तीनों लोकों को पीड़ा देता और स्त्रियों का भी अपहरण कर लेता है , अब उसका वध मनुष्य के हाथ से ही निश्चित हुआ है ]
यह कारण जगत-विदित है किन्तु श्री राम चरित का गहराई से विश्लेषण करें तो यह ''एक पत्नी व्रत '' का मुख्य कारण नहीं ठहरता क्योंकि यदि एक समय पर एक भार्या को सम्मान देना श्री राम के मर्यादित जीवन का आदर्श मात्र होता तो भगवती सीता के वैकुंठ गमन के पश्चात् वे किसी अन्य श्रेष्ठ कुल की राजकुमारी को सिंहासन पर अपने वाम भाग की अधिकारिणी के रूप में प्रतिष्ठित कर सकते थे . यहाँ श्री राम के अलौकिक रूप ;जिसके अनुसार श्री नारायण की एक मात्र वाम भगिनी माता लक्ष्मी ही हैं ,को तर्क रूप में प्रस्तुत करना व्यर्थ है क्योंकि हम यहाँ मानव रूप में अवतरित राजा रामचंद्र के चरित का विश्लेषण कर रहे हैं न कि ब्रह्म स्वरुप प्रभु राम का .यज्ञ संपन्न करने जैसे महत्वपूर्ण धार्मिक कार्यो के समय भी श्री राम ने माता सीता की स्वर्णमयी प्रतिमा को ही अपने वाम भाग में प्रतिष्ठित किया .यथा -
''कांचनी मम पत्नी च दीक्षयाम ज्ञान्क्ष्च कर्मणि '' [उत्तर काण्ड -द्विनवतितम:सर्ग:, श्लोक-२५ ,पृष्ठ -८०१ ]
''न सीतायाम परम .............जानकी कांचनी भवत:''[उत्तर काण्ड -एकोंशततम:सर्ग: पृष्ठ-८१३,श्लोक-८]
[उन्होंने (श्री राम )सीता के सिवा दूसरी किसी स्त्री से विवाह नहीं किया . प्रत्येक यज्ञ में जब धर्मपत्नी की आवश्यकता होती श्री रघुनाथ जी सीता की स्वर्णमयी प्रतिमा बनवा लिया करते थे ]
एक पत्नी व्रत पर ऐसी दृढ़ता श्री राम के चरित में कैसे आई ? इसके लिए हमें ''रामायण'' के सबसे क्रूर व् कुटिल प्रसंग पर दृष्टिपात करना होगा अर्थात रानी कैकेयी का राजा दशरथ से श्री राम के स्थान पर श्री भरत का राज्यभिषेक व् श्री राम को चौदह वर्षों का कठोर वनवास का वर मांगने का प्रसंग .इस प्रसंग में जब श्री राम वनवास हेतु माता कौशल्या से आज्ञा लेने उनके समीप जाते हैं तब श्री राम ह्रदय पर शैशव काल से लगे माता के अपमान रुपी आघातों की परतें एक एक कर उतरने लगती हैं .बालक राम की माता कौशल्या उनके पिता राजा दशरथ की ज्येष्ठ पत्नी थी पर उन्हें राजा दशरथ की अन्य रानियों विशेषकर रानी कैकेयी के कारण जीवन भर अपमान-गरल पीना पड़ा .श्री राम को चौदह वर्षों का वनवास दिए जाने पर माता कौशल्या का ह्रदय चीत्कार कर उठता है . तब उनके उर की व्यथा प्रकट हुए बिना नहीं रहती .वे कहती हैं -
''त्वयि ...मरन्येवाही ''[श्लोक-४१ , अयोध्या कांड , विंश: सर्ग: .पृष्ठ-२३९ ]
[तात !तुम्हारे निकट रहने पर भी इस प्रकार सौतों से तिरस्कृत रही हूँ , फिर तुम्हारे परदेस चले जाने पर मेरी क्या दशा होगी ? उस दशा में मेरा मरण तो निश्चित है ]
इसी सन्दर्भ में माता कौशल्या पति द्वारा रानी कैकेयी की तुलना में अपनी उपेक्षा किये जाने की वेदना अभिव्यक्त करते हुए कहती हैं-
''अत्यन्तं निग्रिहॆतस्मि.............वाप्य्थ्वावारा '' [उपरोक्त ,श्लोक-४२ ]
[पति की ओर से मुझे सदा अत्यंत तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है ,प्यार और सम्मान कभी नहीं प्राप्त हुआ है .मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी बीती समझी जाती हूँ ]
सौत ककेयी के राजमहल में वर्चस्व की व्याख्या करते हुए माता कौशल्या श्री राम से कहती हैं -
''यो हि माम् सेवते .........जानो नाभिभाश्ते ''[उपरोक्त ,श्लोक-४३ ]
[जो कोई मेरी सेवा में रहता या मेरा अनुसरण करता है ,वह भी कैकेयी के बेटे को देखकर चुप हो जाता है ,मुझसे बात नहीं करता ]
सौत के ऐसे आतंक से डरी माता कौशल्या श्री राम वनगमन पर अपनी मार्मिक दशा का उद्घाटन करते श्री राम से कहती हैं -
''नित्य क्रोध्तया .....दुर्गता '' [उपरोक्त ,श्लोक-४४ ]
[बेटा इस दुर्गति में पड़कर मैं सदा क्रोधी स्वाभाव के कारण कटुवचन बोलने वाले उस कैकेयी के मुख को कैसे देख सकूंगी ]
सौतिया डाह से भयाक्रांत माता कौशल्या जब श्री राम के साथ ही वनगमन का प्रस्ताव रखती हैं तब उनके ह्रदय की वेदना को क्या श्री राम ने आज और अभी जाना था ?-
''आसां राम सपत्नीनाम .........पितार्पेक्षाया '' [अयोध्या काण्ड , चतुर्विंश: सर्ग: ,श्लोक -१९ ,२० ]
[बेटा राम ! अब मुझसे इन सौतों के बीच में नहीं रहा जायेगा .काकुत्स्थ !यदि पिता की आज्ञा का पालन करने की इच्छा से तुमने वन जाने का ही निश्चय किया है तो मुझे भी वन वासिनी हरिणी की भांति वन में ही ले चलो]
विचारणीय है कि जन्म से वनगमन के मध्य श्री राम ने अपनी बाल्यावस्था ,किशोरावस्था व् प्रारंभिक युवावस्था में माता के प्रति जो सौतेली माताओं का [विशेषकर रानी कैकेयी ] जो व्यव्हार देखा क्या उसने ही श्री राम ह्रदय में एक पत्नी व्रत का बीज रोप दिया था ?सौतेली माता द्वारा निज जननी का अपमान कौन संतान सहन कर सकती है ? निश्चित रूप से श्री राम द्वारा इसी असहनीय स्थिति ने एक पत्नी व्रत हेतु प्रेरित किया होगा क्योंकि जीवन के इसी भाग में मानव सर्वाधिक उत्साही प्रवर्ति वाला व् अन्याय के विरूद्ध सक्रिय होता है .
सौतेली माताओं के निज जननी के साथ दुर्व्यवहार के अतिरिक्त जो दूसरा कारण श्री राम द्वारा एक पत्नी व्रत लिए जाने का प्रकट होता है वो है -महान पिता राजा दशरथ द्वारा राम माता के साथ उपेक्षापूर्ण बर्ताव किया जाना .राजा दशरथ की यह स्वीकारोक्ति श्री राम जननी के प्रति किये गए उनके उपेक्षा पूर्ण बर्ताव को ही प्रदर्शित करती है -
''यदि सत्यम ............कृते तव '' [द्वादश:सर्ग: श्लोक-६७,६८ ,६९ ]
[यदि कहूं कि श्री राम को वनवास देकर मैंने सत्य का पालन किया है .........यदि राम वन को चले गए तो कौशल्या मुझे क्या कहेगी ?उसका ऐसा महँ अपकार करके मैं उसे क्या उत्तर दूंगा ?हाय !जिसका पुत्र मुझे सबसे अधिक प्रिय है , वह प्रिय वचन बोलने वाली कौशल्या जब जब दासी , सखी , पत्नी , बहिन और माता की भांति मेरा प्रिय करने की इच्छा से मेरी सेवा में उपस्थित होती थी तब तब उस सत्कार पाने योग्य देवी का भी मैंने तेरे[कैकेयी] ही कारण कभी सत्कार नहीं किया ]
निश्चित रूप से श्री राम के बाल व् किशोर ह्रदय पर धर्माचारी पिता द्वारा निज जननी के साथ किये गए इस भेदभाव पूर्ण व्यव्हार का व्यापक प्रभाव पड़ा होगा .''इतना महान पिता भी निजी जीवन में क्यों आदर्शों व् मर्यादाओं की उपेक्षा का दोषी बन जाता है ?क्या विराट व्यक्तित्व को बहुपत्नी रखने का दंड अपनों की दृष्टि में ही गिरकर चुकाना नहीं पड़ता ?''-क्या इसका विश्लेषण श्री राम ने नहीं किया होगा ?
कितने लाचार हो उठते हैं राजा दशरथ रानी कैकेयी के समक्ष ! राजा दशरथ को न केवल महारानी कौशल्या की दृष्टि में अपितु रानी सुमित्रा की दृष्टि में भी दोषी बन जाने का डर सताने लगता है -
''विप्रकारम च ........विश्व शिष्यती'' [उपरोक्त ,श्लोक-७१ ]
[श्री राम के अभिषेक का निवारण और उनका वन की और प्रस्थान देखकर निश्चय ही सुमित्रा भयभीत हो जाएगी फिर वह कैसे मेरा विश्वास करेगी ? ]
संभव है ऐसी विवशता से टकराते पिता को श्री राम बाल्यावस्था से देखते रहे हो .कौन बालक अपने महान पिता के जीवन के इस विवश-अध्याय से शिक्षा न लेगा ?
एक अन्य तथ्य पर भी ध्यानाकर्षण इस विषय में उपयोगी होगा .जब रानी कैकेयी की दासी मंथरा उन्हें श्री राम के राज्य अभिषेक का समाचार सुनती है तब वे हर्षित होकर आनंदमग्न हो जाती हैं .यथा -
''अतीव सा संतुष्ट कैकेयी ..........राज्येभिशेक्श्यति'' [अयोध्या कांड ,श्लोक ३२ ,३३ ,३४ , ३५ ]
[कैकेयी मन ही मन अत्यंत संतुष्ट हुई .विस्मित विमुग्ध हो मुस्कुराते हुए उसने कुब्जा को पुरस्कार के रूप में एक बहुत सुन्दर दिव्य आभूषण प्रदान किया .कुब्जा को वह आभूषण देकर हर्ष से भरी रमणी शिरोमणि कैकेयी ने पुन: मंथरा से इस प्रकार कहा -मन्थरे यह तूने मुझे बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया .तूने मेरे लिए जो यह प्रिय संवाद सुनाया उसके लिए मैं तेरा और कौन सा उपकार करूं ? मैं भी राम और भरत में कोई भेद नहीं समझती .अत:यह जानकर कि राजा श्री राम का अभिषेक होने वाला है ,मुझे बड़ी ख़ुशी हुई है ]
श्री राम के प्रति ऐसे स्नेही भाव रखने वाली रानी कैकेयी को जब मंथरा सचेत करती है कि श्री राम का राज्याभिषेक हो जाने से उनकी माता महारानी कौशल्या का मान बढ़ जायेगा तब रानी कैकेयी के उद्गार देखिये -
'एवमुक्त्वा .........भारतं क्षिप्र्मद्याभिशेचाये'' [अयोध्या कांड ,नवम सर्ग ,श्लोक-१ , २ ,पृष्ठ-२०० ]
[मंथरा के ऐसा कहने पर कैकेयी का मुख क्रोध से तमतमा उठा .वह लम्बी और गरम साँस खींचकर इसप्रकार बोली-कुब्जे ! मैं श्री राम को शीघ्र ही यहाँ से वन में भेजूंगी और तुरंत ही युवराज के पद पर भरत का अभिषेक करुँगी ]
''एष में जीवित..........य्द्य्भिशिच्य्ते '' [उपरोक्त ,श्लोक ५९ ,पृष्ठ-२०३ ]
[यदि श्री राम का राज्याभिषेक हुआ तो यह मेरे जीवन का अंत होगा ]
ध्यातव्य है कि सौतिया दाह रानी कैकेयी के ममतामयी भावों पर हावी हो गया था .यथा -
''एकाहमपि .....मृत्र्मम''[द्वादश सर्ग ,श्लोक-४८ अयोध्या कांड ]
[यदि एक दिन भी महारानी कौशल्या को राजमाता होने के नाते दूसरे लोगों से अपने को हाथ जोड़वाती देख लूंगी तो उसी समय मैं अपने लिए मर जाना ही अच्छा समझूँगी ]
क्या श्री राम के व्यक्तित्व निर्माण के समय राजा दशरथ की रानियों अर्थात माताओं के पारस्परिक संबंधों का प्रभाव नहीं पड़ा होगा ? क्या वे बाल्यअवस्था से यह अनुभव नहीं करते होंगे कि माता कैकेयी का व्यव्हार उनके प्रति कैसा है और उनकी जननी के प्रति कैसा ? राजा दशरथ का श्री राम के प्रति स्नेह जगत विदित है .चरों पुत्रों में सर्वाधिक प्रेम वे ज्येष्ठ पुत्र श्री राम को ही करते थे किन्तु श्री राम की जननी की तुलना में उनका प्रेम छोटी रानी कैकेयी के प्रति अधिक था . .यथा-
'सवृद्ध्स्तारुनी ........प्राणेभ्योअपिगरियसि ''[श्लोक-२३ अयोध्या कांड ,दशम:सर्ग, पृष्ठ-२०५ ]
[राजा बूढ़े थे और उनकी वह पत्नी [कैकेयी] तरुणी थी ,अत:वे उसे अपने प्राणों से भी बढ़कर मानते थे ]
राजा दशरथ के द्वारा अधिक मान देने के कारन ही रानी कैकेयी घमंड में भरकर अपने से बड़ी रानियों को अपमानित करने से भी नहीं चूकती थी .श्री राम के राज्याभिषेक हेतु मंत्र उसे इसी दुराचरण की स्मृति दिलाती है -
'दर्पान्निराकृता पूर्वं .................याप्येत ''[श्लोक 37 ,अयोध्या कांड ,अष्टम:सर्ग:]
[तुमने पहले पति का अत्यंत प्रेम प्राप्त होने के कारण घमंड में आकर जिनका अनादर किया था ,वे ही तुम्हारी सौत श्री राम माता कौशल्या पुत्र की राज्य प्राप्ति से परम सौभाग्यशालिनी हो उठी हैं .अब वे तुमसे बैर का बदला क्यों नहीं लेंगी ?]
राजमहल हो अथवा साधारण घरपरिवार जहाँ भी एक पुरुष ने कई विवाह किये हैं उनके साथ वह समान व्यवहार करने में असफल रहता है .इसके दुष्परिणाम स्त्रियों के साथ साथ उसकी संतानों को भी आजीवन भोगने पड़ते हैं .श्री राम ने इन परस्थितियों को समीप से देखा-भोगा था .एक आदर्श चरित्र के निर्माण में उसके जीवन की परिस्थितियाँ अहम् भूमिका निभाती हैं .समीप से निज जननी की व्यथा ,महान पिता की विवशताओं व् वर्चस्व के छिन जाने के प्रति सशंकित रानी कैकेयी के असंतुलित आचरण की जड़ में श्री राम ने बहुपत्नी विवाह को ही कारण पाया होगा . बहुपत्नी विवाह के दुष्परिणामों से बचने व् आने वाली पीढ़ियों को एक आदर्श प्रदान करने हेतु ही श्री राम ने एक पत्नी व्रत लिया और आजीवन उसका कठोरता से पालन किया .श्री राम के मुखारविंद से निकले ये उद्गार ['शूर्पणखा-प्रसंग'' में] उनके द्वारा लिए गए एक पत्नी व्रत की महत्ता को प्रदर्शित करते हैं.देखें-
''कृतदारोअस्मि ......ससपत्नता ''[श्लोक-२,अरण्य कांड ,अष्टादश:: सर्ग:]
[आदरणीय देवी ! मैं विवाह कर चुका हूँ .यह मेरी प्यारी पत्नी विद्यमान है .तुम जैसी स्त्रियों के लिए तो सौत का रहना अत्यंत दुखदायी ही होगा ]
'राम:सीता:...सुन्दरी ''[अध्यात्म रामायण ,पंचम सर्ग:,पृष्ठ-११७]
[तब रामचंद्र जी ने नेत्रों से सीता जी की ओर संकेत करके मुस्कुराकर कहा -हे सुन्दरी ! मेरी तो यह भार्या मौजूद है ,जिसको त्यागना असंभव है .इसके रहते हुए तुम जन्म भर सौत डाह से जलती हुई किस प्रकार रह सकोगी ?]
कितनी गूढता से श्री राम सपत्नी डाह को समझ चुके थे ! सीता जी से विवाह के समय एक पत्नी व्रत के प्रति चाहे श्री राम का झुकाव मात्र रहा हो किन्तु जीवन में घटित दुर्घटनाओं ने उन्हें इस व्रत पालन पर दृढ रहने की शक्ति प्रदान की .''झुकाव मात्र'' मैंने इसलिए कहा है क्योंकि ''श्रीरामचरित मानस '' के अरण्य-कांड में श्री लक्ष्मण जी द्वारा कहे गए ये वचन प्रमाणित करते हैं कि श्री राम द्वारा लिए गए एक पत्नी व्रत का संज्ञान उनके अनुज तक को नहीं था तभी तो श्री लक्ष्मण शूर्पणखा से कहते हैं-
''सुन्दरि सुनु मैं उन्ह कर दासा ,पराधीन नहि तोर सुवासा ,
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा ,जो कछु करहि उनहि सब छाजा ''
[श्री रामचरितमानस,पृष्ठ-५७५ ,आहूजा प्रकाशन ]
निश्चित रूप से यदि श्री लक्ष्मण को श्री राम के एक पत्नी व्रत का संज्ञान नहीं था .यदि वे इस से परिचित होते तो शूर्पणखा को पुन:प्रणय निवेदन हेतु श्री राम के समक्ष नहीं भेजते .
श्री राम की एक पत्नी व्रत के प्रति दृढ़ता शनै शनै ही सशक्त होती गयी होगी ..बाल्यावस्था में निज जननी का अन्य सौतों द्वारा अनादर ,सौतिया डाह के कारण स्नेहमयी माता कैकेयी का कटु आचरण ,पिता का माता कैकेयी द्वारा किया गया तिरस्कार व् पिता का एक रानी के प्रति अधिक मोह हो जाने के कारण निज जननी की उपेक्षा व् पिता की विवशताओं का प्रत्यक्ष दर्शन आदि कारणों ने श्री राम को एक पत्नी व्रत पर अटल रहने हेतु संबल प्रदान किया .निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि श्री राम के एक पत्नी व्रत धारण के मूल में राजा दशरथ के बहुपत्नी विवाह के दुष्परिणाम ही रहे होंगे .
[शोध ग्रन्थ-श्री मद वाल्मीकीय रामायण[गीता प्रेस ] ,अध्यात्म रामायण[गीता प्रेस ] ,श्री राम चरित मानस [आहूजा प्रकाशन ]
डॉ शिखा कौशिक ''नूतन ''
6 टिप्पणियां:
सुन्दर प्रयास .सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति करें अभिनन्दन आगे बढ़कर जब वह समक्ष उपस्थित हो .
आप भी जाने कई ब्लोगर्स भी फंस सकते हैं मानहानि में .......
प्रेरक पोस्ट!
सुन्दर व सटीक विवेचना ....बधाई
आपकी ये पोस्ट लोगों के लिए प्रेरणामत्मक है।
aap ka kaha bahut hi sahi hai
sunder abhivyakti
rachana
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