भगवती शांता परम सर्ग-8
सृंगी अपने शोध में, रहते हरदम खोय ||
शांता सेवा में जुटी, परम्परा निर्वाह |
करे रसोईं चौकसी, भोजन की परवाह ||
शिष्य सभी भोजन करें, पावें नित मिष्ठान |
करें परिश्रम वर्ग में, नित-प्रति बाढ़े ज्ञान ||
वर्षा-ऋतु में पूजती, कोसी को धर ध्यान |
सृन्गेश्वर की कृपा से, उपजे बढ़िया धान ||
शांता की बदली इधर, पहले वाली चाल |
धीरे धीरे पग धरे, चलती बड़ा संभाल ||
खान-पान में हो रहा, थोडा सा बदलाव |
खट्टी चीजें भा रहीं, बदल गए अब चाव ||
सासू माँ रखने लगीं, अपनी दृष्टी तेज |
प्रफुल्लित माता रखे, चीजें सभी सहेज ||
पुत्री सुन्दर जन्मती, बाजे आश्रम थाल |
सेवा सुश्रुषा करे, पोसे बहुत संभाल ||
तीन वर्ष पूरे हुए, शिक्षा पूरी होय |
दीदी से मिलकर चले, बटुक अंग फिर रोय ||
फिर पूरे परिवार से, करके नेक सलाह |
माँ दादी को साथ ले, पकड़ें घर की राह ||
आश्रम इक सुन्दर बना, करते हैं उपचार |
साधुवाद है वैद्य जी, बहुत बहुत आभार ||
तीन वर्ष बीते इधर, मिला राज सन्देश |
वैद्यराज का रिक्त पद, तेरे लिए विशेष ||
क्षमा-प्रार्थना कर बचे, नहीं छोड़ते ग्राम |
आश्रम फिर चलता रहा, प्रेम सहित अविराम ||
रक्षाबंधन पर मिली, शांता घर पर आय |
भागिनेय दो गोद में, दीदी रही खेलाय ||
पुत्तुल के संग वो रखी, पाणिग्रहण प्रस्ताव |
मेरी सहमति है सदा, पुत्तुल की बतलाव ||
शांता लेकर बटुक को, चम्पानगरी जाय |
पुत्तुल के इनकार पर, रही उसे समझाय ||
नश्वर जीवन कर दिया, इस शाळा के नाम |
बस नारी उत्थान हित, करना मुझको काम ||
पुष्पा से एकांत में, मिलती शांता जाय |
वैद्य बटुक से व्याह हित, मांगी उसकी राय ||
शरमाई बाहर भगी, मिला मूल संकेत |
मंदिर में शादी हुई, घरवाला अनिकेत ||
रूपा से मिलकर हुई दीदी बड़ी प्रसन्न |
गोदी में इक खेलता, दूजा है आसन्न ||
पञ्च रत्न की सब कथा, पूछी फिर चितलाय |
डरकर नकली असुर से, भाग चार जन जाँय ||
पञ्च-रतन को एक दिन, दे अभिमंत्रित धान |
खेती करने को कहा, देकर पञ्च-स्थान ||
बढ़िया उत्पादन हुआ, मन सा निर्मल भात |
खाने में स्वादिष्टतम, हुआ न कोई घात ||
राज काज मिल देखते, पंचरत्न सह सोम |
महासचिव का साथ है, कुछ भी ना प्रतिलोम ||
पिताश्री ने एक दिन, सबको लिया बुलाय |
पंचरत्न में चाहिए, स्वामिभक्त अधिकाय ||
चाटुकारिता से बचो, इंगित करिए भूल |
राजधर्म का है यही, सबसे बड़ा उसूल ||
लेकर सेवा भावना, देखो भाग विभाग |
पैदा करने में लगो, जनमन में अनुराग ||
पञ्च-रतन को एक दिन, दे अभिमंत्रित धान |
खेती करने को कहा, देकर पञ्च-स्थान ||
बढ़िया उत्पादन हुआ, मन सा निर्मल भात |
खाने में स्वादिष्टतम, हुआ न कोई घात ||
राज काज मिल देखते, पंचरत्न सह सोम |
महासचिव का साथ है, कुछ भी ना प्रतिलोम ||
पिताश्री ने एक दिन, सबको लिया बुलाय |
पंचरत्न में चाहिए, स्वामिभक्त अधिकाय ||
चाटुकारिता से बचो, इंगित करिए भूल |
राजधर्म का है यही, सबसे बड़ा उसूल ||
लेकर सेवा भावना, देखो भाग विभाग |
पैदा करने में लगो, जनमन में अनुराग ||
मात-पिता से पूछ के, कुशल क्षेम हालात |
संतुष्टि पाती वहां, शांता वापस जात ||
कुशल व्यवस्थापक बनी, हुई भगवती माय |
पाली नौ - नौ पुत्रियाँ, आठो पुत्र पढाय ||
एक से बढ़कर एक थे, संतति सब गुणवान |
शोध भाष्य करते रहे, पढ़ते वेद - पुरान ||
वैज्ञानिक वे श्रेष्ठ सब, मन्त्रों पर अधिकार |
अपने अपने ढंग से, सुखी करें संसार ||
सास-ससुर सब सौंप के, गए देव अस्थान |
राजकाज सब साध के, देकर के वरदान ||
वन खंडेश्वर को गए, बिबंडक महराज |
भिंड आश्रम को सजा, करे वहां प्रभु-काज ||
आठ पौत्रों से मिले, सब है बेद-प्रवीन |
बड़े भिंड के हो गए, आश्रम में आसीन ||
सौंपें सारे ज्ञान को, बाबा बड़े महान |
स्वर्ग-लोक जाकर बसे, छोड़ा यह अस्थान ||
भिन्डी ऋषि के रूप में, हुए विश्व विख्यात |
सात राज्य में जा बसे, पौत्र बचे जो सात ||
एक अवध में जा बसे, सरयू तट के पास |
बरुआ सागर आ गया, एक पुत्र को रास ||
विदिशा जाकर बस गए, सबसे छोटे पूत |
पुष्कर की शोभा बढ़ी, बाढ़ा वंश अकूत ||
आगे जाकर यह हुए, छत्तीस कुल सिंगार |
आगे जाकर यह हुए, छत्तीस कुल सिंगार |
छ-न्याती भाई यहाँ, अतुलनीय विस्तार ||
बसे हिमालय तलहटी, चौरासी सद्ग्राम |
वंशज सृंगी के यहाँ, रहते हैं अविराम ||
बसे हिमालय तलहटी, चौरासी सद्ग्राम |
वंशज सृंगी के यहाँ, रहते हैं अविराम ||
सृंगी दक्षिण में गए, पर्वत बना निवास |
ज्ञान बाँट करते रहे, रही शांता पास ||
वंश-बेल बढती रही, तरह तरह के रूप |
कहीं मनीषी बन रमे, हुए कहीं के भूप ||
मंत्रो की शक्ती प्रबल, तंत्रों पर अधिकार |
कलियुग के प्रारब्ध तक, करे वंश व्यवहार ||
हुए परीक्षित जब भ्रमित, कलियुग का संत्रास |
स्वर्ण-मुकुट में जा घुसा, करता बुद्धी नाश ||
सरिता तट पर एक दिन, लौटे कर आखेट |
लोमस ऋषि से हो गई, भूपति की जब भेंट ||
बैठ समाधि में रहे, राजा समझा धूर्त |
मरा सर्प डाला गले, जैसे शंकर मूर्त ||
वंशज देखें सृंग के, भर अँजुरी में नीर |
मन्त्रों से लिखते भये, सात दिनों की पीर ||
यही सर्प काटे तुम्हें, दिन गिनिये अब सात |
गिरे राजसी कर्म से, सहो मृत्यु आघात ||
मन्त्रों की इस शक्ति का, था राजा को भान |
लोमस के पैरों पड़ा, वह राजा नादान ||
लेकिन भगवत-पाठ सुन, त्यागा राजा प्रान |
यह पावन चर्चित कथा, जाने सकल जहान ||
जय जय भगवती शांता परम
वंश-बेल बढती रही, तरह तरह के रूप |
कहीं मनीषी बन रमे, हुए कहीं के भूप ||
मंत्रो की शक्ती प्रबल, तंत्रों पर अधिकार |
कलियुग के प्रारब्ध तक, करे वंश व्यवहार ||
हुए परीक्षित जब भ्रमित, कलियुग का संत्रास |
स्वर्ण-मुकुट में जा घुसा, करता बुद्धी नाश ||
सरिता तट पर एक दिन, लौटे कर आखेट |
लोमस ऋषि से हो गई, भूपति की जब भेंट ||
बैठ समाधि में रहे, राजा समझा धूर्त |
मरा सर्प डाला गले, जैसे शंकर मूर्त ||
वंशज देखें सृंग के, भर अँजुरी में नीर |
मन्त्रों से लिखते भये, सात दिनों की पीर ||
यही सर्प काटे तुम्हें, दिन गिनिये अब सात |
गिरे राजसी कर्म से, सहो मृत्यु आघात ||
मन्त्रों की इस शक्ति का, था राजा को भान |
लोमस के पैरों पड़ा, वह राजा नादान ||
लेकिन भगवत-पाठ सुन, त्यागा राजा प्रान |
यह पावन चर्चित कथा, जाने सकल जहान ||
जय जय भगवती शांता परम
5 टिप्पणियां:
ek se badhkar ek dohe.bahut achcha likha hai aapne.
सुन्दर समापन...जय भगवती शान्ता परम....जै श्री राम....
फुर्सत के दो क्षण मिले, लो मन को बहलाय |
घूमें चर्चा मंच पर, रविकर रहा बुलाय ||
शुक्रवारीय चर्चा-मंच
charchamanch.blogspot.com
सुन्दर दोहा !
बहुत खूबसूरती से सारा प्रसंग लिखा है………आभार्।
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