सोमवार, 12 दिसंबर 2011

भगवती शांता परम सर्ग-7 भाग-4

भगवती शांता परम सर्ग-7 भाग-4

चंपा-सोम
कई दिनों का सफ़र था, आये चंपा द्वार |
नाविक के विश्राम का, बटुक उठाये भार ||

राज महल शांता गई, माता ली लिपटाय |
मस्तक चूमी प्यार से, लेती रही बलाय ||

गई पिता के पास फिर, पिता रहे हरसाय |
स्वस्थ पिता को देखकर,फूली नहीं समाय ||

क्षण भर फिर विश्राम कर, गई सोम के कक्ष |
रूपा पर मिलती वहाँ, धक्-धक् करता वक्ष ||

गले सहेली मिल रही, पर आँखों में चोर |
सोम हमारे हैं कहाँ, अचरज होता  घोर ||

किन्तु सोम आये नहीं, की परतीक्षा खूब |
शांता शाळा को चलीं, सह रूपा के ऊब ||

शाला में स्वागत हुआ, मन प्रफुल्लित होय |
अपनी कृति को देखकर, जैसे साधक सोय ||

आत्रेयी आचार्या, गले लगाती आय |
बाला सब संकोच से, खुद को रहीं छुपाय ||

नव कन्याएं देखतीं, कौतूहल वश खूब |
सन्यासिन के वेश में, पूरी जाती ड़ूब ||

आनन्-फानन में जमे, सब उपवन में आय |
होती संध्या वंदना, रूपा कह समझाय ||

परिचय देवी का दिया, दिया ज्ञान का बार |
महाविकट दुर्भिक्ष से,  सबको  गई उबार || 

यह है अपनी शांता,  इनका  आशीर्वाद |
कन्या शाला चल पड़ी, गूंजा शुभ अनुनाद ||

पुत्तुल-पुष्पा थीं बनी, तीन वर्ष में मित्र |
मात-पिता के शोक में, स्थिति बड़ी विचित्र ||

कौला-सौजा राखती, कन्याओं का ध्यान |
पाक-कला सिखला रहीं, भाँति-भाँति पकवान ||

दोनों बालाएं मिलीं, शांता ले लिपटाय |
आंसू पोंछे प्रेम से, रही शीश सहलाय ||

क्रीडा कक्षा का समय, बाला खेलें खेल |
घोड़ा आया सोम का, रूपा मिले अकेल ||

शांता को देखा वहां, आया झट से सोम |
छूता दीदी के चरण , दिल से कहता ॐ ||

चेहरे की गंभीरता,  देती इक सन्देश |
हलके में मत लीजिये, हैं ये चीज विशेष ||

दीदी अब घर को चलो, माता रही बुलाय |
कई लोग बैठे वहाँ,  काका  काकी आय ||

सौजा कौला मिल रहीं, रमणी है बेचैन |
दालिम काका भी मिले, आधी बीती रैन ||

नाव गाँव का कह रही, वो सारा वृतांत |
सौजा पूंछी बहुत कुछ, दालिम दीखे शांत ||
 
पर मन में हलचल मची, जन्मभूमि का प्यार |
 शाबाशी पाता बटुक, किया ग्राम उद्धार ||

रमणी से मिलकर करे, शांता बातें गूढ़ |
रूपा तो हुशियार है, बना सके के मूढ़ ||

अगले दिन रूपा करे, बैठी साज सिंगार |
जाने को उद्दत दिखे, बाहर राजकुमार ||

शांता आकर बैठती, करे ठिठोली लाग |
सखी हमारी जा रही, कहाँ लगाने आग ||

सुन्दरता को न लगे, बहना कोई दाग |
अपनी रक्षा खुद करे, रखे नियंत्रित राग ||

रूपा को न सोहता, असमय यह उपदेश |
आया अंग नरेश का, इतने में सन्देश ||

रूपा को वो छोड़कर, गई पिता के पास |
चिंतित थोडा दीखते, चेहरा तनिक उदास ||

करें शिकायत सोम की, चंचलता इक दोष |
राज काज हित चाहिए, सदा सर्वदा होश ||

आयु मेरी बढ़ रही, शिथिल हो रहे अंग |
किन्तु सोम न सीखता, राज काज के ढंग ||

उडती-उडती इक खबर, करती है हैरान |
रूपा का सौन्दर्य ही, खड़े करे व्यवधान ||

हुआ राजमद सोम को, करना चाहे द्रोह |
रूपा मम पुत्री सरिस, रोकूँ कस अवरोह ||

तानाशाही सोम की, चलती अब तो खूब |
राजपुरुष जब निरंकुश, देश जाय तब डूब ||

मंत्री-परिषद् में अगर, रहें गुणी विद्वान |
राजा पर अंकुश रहे,  नहीं बने शैतान ||

पञ्च रतन का हो गठन, वही उठाये भार | 
करें सोम की वे मदद, करके उचित विचार ||

शांता कहती पिता से, दीजे उत्तर तात |
दे सकते क्या सोम को, रूपा का सौगात ||

करिए इनके व्याह फिर, चुनिए मंत्री पाँच |
महासचिव की आन पे, ना आवे पर आँच ||

सहमति में जैसे हिला, महाराज का शीश |
शांता की कम हो गयी, रूपा के प्रति रीस ||

तुरत बुलाया भूप ने,  आया जल्दी सोम |
दीदी पर पढ़ते नजर, रोमांचित से रोम ||

डुग्गी सारे देश में, एक बार बज जाय |
पांच रत्न चुनने हमें, कसके ठोक बजाय ||

राज कुंवर लेने लगे, जैसे लम्बी सांस |
दीदी की आई नहीं, अगली बातें रास ||

एक पाख में कर रहे, हम सब तेरा व्याह |
कह सकते हो है अगर, कोई अपनी चाह ||

पिता श्री क्यों कर रहे, इतनी जल्दी लग्न |
फिर रूपा के ख्याल में, हुआ अकेला मग्न ||

शुरू हुई तैयारियां, दालिम खुब हरसाय |
नेह निमंत्रण भेजते, सबको रहे बुलाय ||

रूपा तो घर में रहे, सोम उधर घबरात |
नींद गई चैना गया, रह रहकर अकुलात ||

शादी के दो  दिन बचे, आये अवध-भुवाल |
कौशल्या के साथ में, राम लखन दोउ लाल ||

सृंगी तो आये नहीं, पहुंचे पर ऋषिराज |
पूर्ण कुशलता से हुआ, शादी का आगाज ||

जब हद से करने लगा, दर्द सोम का पार |
दीदी से जाकर मिला, विनती करे हजार ||
 
दीदी कहती सोम से, सुन ले मेरी बात |
शर्त दूसरी पूर कर, करे व्यर्थ संताप ||

कौशल्या के पास फिर, गया सोम उस रात |
माता देखे  व्यग्रता, मन ही मन मुस्कात ||

जो मुश्किल में रख सके, मन में अपने धीर |
वही सोच सकता तनय, इक सच्ची तदवीर ||

कौला के जाकर छुओ, सादर दोनों पैर |
ध्यान रहे पर बात यह, जाओ मुकुट बगैर ||
 
उद्दत जैसे ही हुआ, झुका सामने सोम |
कौला पीछे हट गई, जैसे गिरता व्योम ||

अवधपुरी की रीत है, पूजुंगी कल पांव |
छूकर मेरे पैर को,  काहे पाप चढ़ाव ||

कन्याएं देवी सरिस, और जमाता मान |
पैर पूंज दे व्याह में, माता कन्यादान ||

हर्षित होकर के भगा, सीधे दीदी पास |
जैसे खोकर आ रहा, अपने होश-हवाश ||
 
दीदी के छूकर चरण, घुसता अपने कक्ष |
हर्षित होकर नाचता, जाना कन्या पक्ष || 
 
बहन-नारि-गुरु-सखी बन, करे पूर्ण सद्कर्म |
भाव समर्पण का सदा, बनता जीवन-धर्म ||

रानी सन्यासिन बने, दासी राजकुमारि |
जीती हर किरदार खुश, नारी विगत बिसारि ||

नारी सबल समर्थ है, कितने बदले रूप |
सामन्जस बैठाय ले, लगे छांह या धूप ||
 
शारीरिक शक्ति तनिक, नारी नर से क्षीन |
अंतर-मन मजबूत तन, सहनशक्ति परवीन ||

9 टिप्‍पणियां:

सदा ने कहा…

वाह ...बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति.बधाई.......
मेरी नई पोस्ट में

सब कुछ जनता जान गई ,इनके कर्म उजागर है
चुल्लु भर जनता के हिस्से,इनके हिस्से सागर है,
छल का सूरज डूब रहा है, नई रौशनी आयेगी
अंधियारे बाटें थे तुमने, जनता सबक सिखायेगी,

आपका इंतजार है
________________

smshindi By Sonu ने कहा…

बहुत उत्तम प्रस्तुति

smshindi By Sonu ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
DR. ANWER JAMAL ने कहा…

Nice .

रविकर ने कहा…

आपसभी का
बहुत बहुत आभार ||
उत्साहित हुआ ||

डा श्याम गुप्त ने कहा…

नारी सबल समर्थ है, कितने बदले रूप |
सामन्जस बैठाय ले, लगे छांह या धूप ||
---सुन्दर..सामयिक..सटीक..

रविकर ने कहा…

आभार और सादर प्रणाम --
आज पूरी हो गई है यह प्रस्तुति |
काव्यगत और तारतम्य सम्बन्धी चूक दुरुस्त करने की कोशिश शुरू की है |
आशीर्वाद दें ||
सादर

terahsatrah.blogspot.com

Shikha Kaushik ने कहा…

yah prastuti bahut hi sarthak v sundar rahi .aapko bahut-bahut badhai .aabhar