मैंने जब से होश संभाला था तब से अपने संयुक्त परिवार में बुआ को ऐसा पाया जैसे सारी चंचलता त्याग कर गंगा मैय्या शांत भाव से बही जा रही हो . बुआ न ज्यादा बोलती और न ही आस-पड़ोस वाली औरतों के तानों का पलट कर जवाब देती .माँ और चाची ही उनके तानों पर भड़क जाती थी और ये कहकर कि ''जिस पर पड़ती है उसका दिल ही जानता है .'' उनकी जुबानों पर ताला लगा देती .बुआ को केवल तब मुस्कुराते देखा जब पिता जी उनकी बचपन की शरारतों का जिक्र करते .माँ बताती जब मैं पैदा हुई तब बुआ ने हाई-स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की थी .बस उसके बाद से ही पिता जी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी थी क्योंकि दादा-दादी तो पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे .एक -डेढ़ साल में जाकर रिश्ता तय हो पाया था .विवाह में पिता जी ने अपनी हैसियत के अनुसार खर्च किया था पर विवाह के एक साल बाद तक जब गौना न हुआ तो सारी बिरादरी में बुआ को लेकर अनर्गल बातें शुरू हो गयी .पिता जी बुआ के ससुराल गए और सारी स्थिति से उन लोगों को परिचित कराया .फूफा के बड़े भाई साहब ने बताया कि फूफा तो विवाह करना ही नहीं चाहते थे .वे तो जन-सेवा को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानते हैं. विवाह तो घर वालों के दबाव में आकर कर लिया पर अब बुआ को वहां बुलाये जाने के पक्ष में नहीं हैं .खैर पिता जी के जोर देने पर उन्होंने बुआ को वहां बुलवा लेने का आश्वासन दिया .पिता जी ने घर आकर जब सारी स्थिति बतलाई उस दिन से बुआ का मान इस संयुक्त परिवार में मानों घट ही गया . माँ-पिता जी भले ही बुआ को कितना भरोसा दिला देते कि तुम हमारे लिए वही 'सरोजा' हो जो विवाह से पूर्व थी पर बुआ जानती थी कि विवाहित लड़की का पीहर में रहना उसकी गरिमा कम कर देता है .न केवल समाज की दृष्टि में वरन स्वयं उस लड़की की खुद की नज़रों में भी .एक अनजाना अपराध-बोध उसे घेर लेता है कि वो भाई-भाभी पर एक बोझ बन गयी है .उसके कारण पूरा परिवार समाज में नीची दृष्टि से देखा जा रहा है .
बहरहाल बुआ के जेठ जी ने अपना कहा निभाया और विवाह के करीब ढाई साल बाद बुआ की विदाई हो पाई .अभी बुआ को ससुराल गए तीन महीने भी नहीं हुए थे कि एक दिन उनके जेठ जी अचानक हमारे घर आ पधारे .उनके चेहरे पर मायूसी थी .पिता जी से हाथ जोड़कर बोले -'' माफ़ी चाहता हूँ पर मेरे छोटे भाई पर अब मेरा बस नहीं .कहता है या तो यह रहेगी यहाँ पर या मैं . अपने विवाह को मात्र औचारिकता की संज्ञा देता है .बहुत समझाया पर मानता ही नहीं .आप अपनी बिटिया को यहीं ले आये .मैं नहीं चाहता कि वो घुट-घुट कर वहां रहे .वो तो गाय है .एक शब्द भी नहीं बोलती पति के खिलाफ.... पर मैं समझता हूँ .'' उनकी बात पर चाचा भड़क गए थे और लाल-पीले होते हुए बोले थे -'' भाई जी ! पगला गए हैं क्या दामाद जी ?सात-फेरे लेकर हमारी सरोजा को जो जीवन भर साथ निभाने के सात वचन दिए थे उनका कोई मोल नहीं ..कहते हैं औपचारिकता मात्र था विवाह !!!हमारी सरोजा के जीवन के साथ ऐसा खिलवाड़ कैसे कर सकते हैं वे ? जन-सेवा तो गांधी जी ने भी की थी पर कस्तूरबा जी को त्याग तो नहीं दिया था !'' पिता जी बेबस होते हुए बोले थे -'' चुप हो जा छोटे ..ईश्वर की यही मर्ज़ी है तो ले आते हैं अपनी सरोजा को यही !''
बुआ बुझे दिल से वापस आ तो गयी थी पर फूफा की कोई बुराई करे उनके सामने ये उन्हें कभी अच्छा नहीं लगा .हर करवा-चौथ पर व्रत रखती और फूफा का फोटो देखकर व्रत खोल लेती .आस-पड़ोस की महिलाएं व्यंग्य करती -''ये कैसी सुहागन हैं !'' तो चुपचाप अपने कमरे में चली जाती .पिता जी अपने को जिम्मेदार मानते बुआ के दुखी जीवन के लिए तो बस इतना कहती -'' भाई जी आपने तो अच्छा देखकर ही चुना होगा इन्हें ..ये तो मेरे पूर्व-जन्म के कर्म हैं जो इनकी सेवा का सुख न मिला .'' चाचा के जोर देने पर बुआ ने आगे की पढाई पूरी की और प्राथमिक-विद्यालय में शिक्षिका लग गयी .
मेरे बाद जब भाई पैदा हुआ तो माँ ने बुआ की गोद में देते हुए कहा था -'' ये तेरा ही बालक है ...इच्छा तो ये थी कि तेरे बालकों को खिलावे पर भगवान की मर्ज़ी !'' बुआ ने बाँहों में भाई को लेते हुए उसका माथा चूम लिया था और उनकी आँखें नम हो गयी थी मानों बरसों से सूखी जमीन पर बरखा की कुछ बूंदे टपक गयी हो ..कितने कठोर ह्रदय थे फूफा जिन्होंने बुआ की इच्छाओं-अभिलाषाओं को निर्ममता से कुचल डाला था अपने कथित जन-सेवा के संकल्प रुपी पत्थरों से .
अख़बारों से ज्ञात हुआ कि फूफा एम.एल.ए का चुनाव लड़ेंगें .अखबार मेज पर पटकते हुए चाचा बोले थे -''इस सब के लिए ही तो सरोजा को वनवासिनी बना डाला दामाद जी ने !'' आग तो पिता जी के मन में भी लगी थी जब उनके मित्र रामेश्वर बाबू ने बताया था कि '' दामाद जी ने नामांकन -पत्र में 'वैवाहिक-स्थिति का कॉलम व् पत्नी के नाम का कॉलम '' खाली छोड़ दिया है .'' बुआ को पता चला तो गंभीर भावों के साथ अपने कमरे में चली गयी जैसे अग्नि-परीक्षा देने के लिए माता सीता अग्नि में प्रवेश कर रही हो .पिता जी ने मुझे व् भाई को पीछे भेजा था .दस वर्षीय भाई ने जाते ही बुआ से पूछा था -'' बुआ फूफा जी को पकड़ कर लाऊँ क्या यहाँ ?'' बुआ उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए बोली थी -'' इतनी परवाह करता है बुआ की ..मेरा होता तो ..!'' ये कहते-कहते बुआ रो पड़ी थी और मैं व् भाई उनसे लिपट कर तब तक रोते रहे थे जब तक वे ही चुप नहीं हो गयी थी .
फूफा एम.एल.ए. बनें ,फिर सी.एम. बने पर बुआ का नाम अपने साथ नहीं जोड़ा .मेरे विवाह पर अपने गहने माँ को थमाते हुए बुआ ने कहा था -'' भाई जी ने बड़े स्नेह से बनवाए थे पर मेरे किसी काम न आ सके ...संध्या पहनेगी तो लगेगा जैसे मैं ही नए रूप में सज-संवर रही हूँ .'' माँ की रुलाई छूट गयी थी और चाची की आँखें भी भर आई थी .माँ हाथ जोड़कर बुआ के सामने काफी देर खड़ी रही थी और बुआ ने उन्हें गले लगा लिया था . मेरी विदाई पर बुआ ने बस इतना कहा था -'' ससुराल में धीरज से काम लेना .ससुराल में बसने का सुख सबको नहीं मिलता लाडो .'' ससुराल में रचते-बसते दो साल कब बीत गए पता ही नहीं चला .एक दिन न्यूज चैनल पर देखा कि फूफा की पार्टी ने उन्हें पी.एम. पद का उम्मीदवार बनाया .फूफा को मुस्कुराकर फूलों की मालाएं पहनते देखकर दिल कड़वा हो गया और आँखें बंद करते ही दिखा ''जैसे बुआ कंटक पथ पर नग्न पग अकेली बढ़ी जा रही है .' एम.पी. का चुनाव लड़ने के लिए ,चुनाव-आयोग के कड़े निर्देशों के कारण इस बार फूफा ने बुआ का नाम ''नामांकन -पत्र के पत्नी के कॉलम '' में भरा तो दुनिया भर की मीडिया ने हमारे घर को घेर लिया .पिता जी ने यह कहकर कि -'' फूफा को पी.एम. बनाने की आस लिए बुआ चार-धाम की यात्रा पर चली गयी हैं '' मीडिया से पीछा छुडाया .जबकि हम सभी जानते थे कि शिक्षिका के पद से रिटायर्ड हो चुकी बुआ के चार-धाम तो उनका वही कमरा है जिसमे भगवान के अतिरिक्त यदि कोई फोटो है तो फूफा का ही है .बुआ ने तो अग्नि के चारों ओर लिए गए सातों वचन व् सातों फेरों का बंधन बखूबी निभाया पर फूफा ने एक कदम भी चलना मुनासिब न समझा .
शिखा कौशिक 'नूतन'
1 टिप्पणी:
jashoda ben hain na ye ,hame to unki hi kahani lagti hai .sahi likhi hai aapne baki to koi bhi sahi nahi kahega kyonki modi ji kee vastvikta aur apni patni ke jeevan me peeda bharne ke unke mansoobe jo dikhai de rahe hain .
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