जीवन के संध्या-काल में ,
बैठी हूँ लेकर यादों का जंग लगा बक्सा ,
खोलते ही खनक उठे
बचपन की टूटी चूड़ियों के टुकड़े ,
और बिखर गए पिता के घर से
विदाई के समय बहे
आंसुओं की माला के मोती !
प्रियतम के प्रेम की चटक लाल
साड़ी कितनी सिकुड़ गयी ,
और ये नन्हें-मुन्नों के छोटे छोटे खिलौने ,
उनकी मुस्कराहट के
छन-छन बजते घुंघरू ,
इधर कोने में रखा है
बेटे के सेहरे और बहू के सुहाग वाले जोड़े की
गुलाबी महक वाली तस्वीरें !
कितना कुछ इस एक ज़िंदगी
के बक्से में रखा है संभालकर ,
दिल में एक अजीब सी हलचल हुई
जिसने तन को ख़ुशी की ठंडक
व् गम की तपिश से
रोमांचित कर डाला !
शिखा कौशिक 'नूतन'
10 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (09-01-2014) को चर्चा-1487 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
lazabab.....isse zyada kya boloon?
सुन्दर प्रस्तुति-
आभार आपका-
इस बक्से को तो यादों का सुनहेरा बक्सा कहना चाहिए जंग लगा बक्सा नहीं क्यूंकि यह यादें अनमोल हुआ करती है... नहीं ?
---सुन्दर व सटीक कविता....
यही तो जीवन है ....पुरुष के लिए भी ....
" यादें क्या है......
मन की लाइब्रेरी में संजो कर रखी गयी,
पुस्तकें,पत्रिकाएं या सन्दर्भ ग्रन्थ,
जिन्हें हम जब चाहें,
एक कोने से निकाल कर पढ़ लेते हैं, और-
जी लेते हैं,
उन भूले-बिसरे क्षणों को |
सही कहा पल्लवी जी....ये यादें तो सुनहरी ही लगती हैं...परन्तु ..यादें अच्छी-बुरी, सुहानी -डरावनी हो सकती हैं.. जंग कहाँ लगती है यादों को...
pallvi ji -jang se matlab keval purani dil ke kone me bhooli-bisri yadon se hain ...kahte hain n akl ka istemal karo varna jang lag jayegi -akl ko jang thode hi lag sakti hai ....sanketik hai
जंग लगने का एक अर्थ व्यर्थ, निष्क्रिय होजाना भी है ...अभ्यास बिना अक्ल का क्रियान्वन निष्क्रिय हो सकता है अतः अक्ल कहाँ चली गए...घास चराने चली गयी कहा जाता है जंग लगना मस्तिष्क के लिए प्रयोग होता है.... परन्तु यादें भूल-बिसर सकती हैं निष्क्रिय नहीं होतीं ....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति है ,यही जीवन है।
एक जीवन का चक्र हैं यादे जिनके खो जाने पर शायद हमें उतना ही शोक होगा जितना किसी के न रहने पर
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