शनिवार, 4 जनवरी 2014

प्लास्टिकासुर ( कविता )...डा श्याम गुप्त....



        प्लास्टिकासुर  ( कविता )

पंडितजी ने पत्रा पढ़ा, और-
गणना करके बताया,
जज़मान ! प्रभु के -
नए अवतार का समय है आया।
सुनकर छोटी बिटिया बोली,
उसने अपनी जिज्ञासा की पिटारी यूँ खोली;
महाराज, हम तो बड़ों से यही सुनते आये हैं,
बचपन से यही गुनते आये हैं, कि -
पृथ्वी पर जब कोइ असुर उत्पन्न होता है, तो वह-
ब्रह्मा, विष्णु या फिर शिव-शम्भो के
वरदान से ही  सम्पन्न होता है।
 
प्रारम्भ में जग, उस महाबली के,
कार्यों से प्रसन्न होता है;
पर जब वही महाबलवान,
बनकर सर्व शक्तिमान,
करता है अत्याचार,
देव दनुज नर गन्धर्व हो जाते हैं लाचार,
सारी पृथ्वी पर मच जाता है हाहाकार;
तभी लेते हैं, प्रभु अवतार। 
हमें तो नहीं दिखता कोई असुर आज,
फिर अवतार की क्या आवश्यकता है महाराज?

पंडित जी सुनकर, हडबडाये, कसमसाए,
पत्रा बंद करके मन ही मन बुदबुदाए;
फिर, उत्तरीय कन्धों पर डालकर मुस्कुराए; बोले -
सच है बिटिया, यही तो होता है,
असुर - देव,दनुज, नर, गन्धर्व की  -
अति सुखाभिलाषा से ही उत्पन्न होता है।
प्रारम्भ में लोग उसके कौतुक को,
बाल-लीला समझकर प्रसन्न होते हैं।
युवावस्था में उसके आकर्षण में बंधकर
उसे और प्रश्रय देते हैं।
वही जब प्रौढ़  होकर दुःख देता है तो,
अपनी करनी को रोते हैं।
वही देवी आपदाओं को लाता है,फैलाता है;
अपनी आसुरी शक्ति को बढाता है, दिखाता है।

आज भी मौजूद हैं पृथ्वी पर, अनेकों असुर,
जिनमें सबसे भयावह है,' प्लास्टिकासुर '।
प्लास्टिक, जिसने कैसे कैसे सपने दिखाए थे,
दुनिया के कोने-कोने के लोग भरमाये थे।
वही  बन गया है, आज --
पर्यावरण का नासूर,
बड़े बड़े तारकासुरों से भी भयावह है
आज का ये प्लास्टिकासुर।।

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

rachna sarthak sandesh preshit kar rahi hai par bhartiy nari blog par iski sarthakta ke vishay me sanshy hai !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (06-01-2014) को "बच्चों के खातिर" (चर्चा मंच:अंक-1484) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डा श्याम गुप्त ने कहा…


धन्यवाद शिखाजी ....परन्तु बाल-लीला पर अंकुश तो नारियां ही लगा सकती हैं....

प्रारम्भ में लोग उसके कौतुक को,
बाल-लीला समझकर प्रसन्न होते हैं।
युवावस्था में उसके आकर्षण में बंधकर
उसे और प्रश्रय देते हैं।
वही जब प्रौढ़ होकर दुःख देता है तो,
अपनी करनी को रोते हैं।

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद शास्त्रीजी .....