सहजीवन-- मानवता, विकास व
संबंधों का आधार
जीवन के उद्धव व विकास के अति-प्रारंभि चरण में
जीवनयापन हेतु ऊर्जा प्राप्ति की खोज करते-करते एक अति-लघु जीव-कण( जीव-अणु
कोशिका---आर्किया ) ने अपेक्षाकृत बड़े जीव-अणु-कोष-कण ( प्रोकेरियेट) के
अंदर प्रवेश किया| वह लघु–जीव-कण अपने मेजबान के अवशिष्ट पदार्थों से ऊर्जा /भोजन बनाने लगा एवं
इस प्रक्रिया में कुछ अतिरिक्त ऊर्जा अपने शरणदाता को भी उपलब्ध कराने लगा और
शरणदाता, शरणागत को सुरक्षा व आवश्यक कच्चा-माल
| कालान्तर में उनका पृथक अस्तित्व कठिन व असंभव होगया वे एक दूसरे पर आश्रित
होगये और दोनों में एक सहजीविता उत्पन्न होगई| यह जीव-जगत का सर्व-प्रथम सहजीवन था | अंततः लघु जीव-अणु ..
केन्द्रक (न्यूक्लियस) बना व बड़ा जीव-अणु बाह्य-शरीर( कोशिका या सैल) | इस प्रकार एक दूसरे में
विलय होकर सृष्टि के प्रथम एक कोशीय-जीव की संरचना हुई जिससे व जिसके
उदाहरण व आधार पर ही आगे समस्त जीव-जगत की रचना, विकास व वृद्धि हुई.....जीवाणु
से मानव तक |
वस्तुतः जीवन व जीव प्रत्येक स्तर पर
सहजीवन द्वारा ही विकासमान होते हैं | संसार में अपने ‘स्व’ को अन्य के ‘स्व’ से जोडने पर ही पूर्ण हुआ जा सकता है | प्रत्येक जीव-तत्व व जीव अपूर्ण है और वह सहजीवन द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त
करता है| लैंगिक सम्बन्ध, प्रेम, विवाह, मैत्री व सामाजिक
सम्बन्ध आदि सभी इसी सहभागिता एवं अपने ‘स्व’
के सामंजस्य पर आधारित हैं और इनकी सफलता हेतु
...तीन मुख्य तत्त्व हैं - सामंजस्य, सहनशीलता व समर्पण |
हमारे यहाँ लडकी- अर्थात स्त्री, पत्नी
अपना घर, परिवार, समाज, संस्कार छोडकर पराये घर-पतिगृह आती है, नए-माहौल में, नए समाज-संस्कारों में | लड़का
– पुरुष, पति ..तो अपने घर में बैठा है..सुरक्षित, संतुष्ट, पूर्णता का ज्ञान-भाव ( या अज्ञान-भाव ) लिए हुए| उसका चिंतन कैसे बदले | स्त्री,पत्नी को ही नए-घर, समाज-संस्कारों में सुरक्षा ढूंढनी
होती है |
पति व परिवार की इच्छा, अपेक्षा व धारणा होती है कि बहू हमारी आने वाली पीढ़ी व संतान द्वारा हमारा प्रतिनिधित्व करेगी
व करायेगी, उसमें संस्कार भरेगी | हमारा स्वजनों,
परिजनों का भार उठाएगी, अर्थात अपने स्व को हमारे स्व में निमज्जित
करेगी | अतः उसे सम्मान मिलता है| यहाँ यह भी एक सच है कि पति व उसके परिवार को भी अपना
चिंतन गुणात्मक करना होगा | पति को, पुरुष को, लड़कों को भी अपना चिंतन बदलना होगा अपने स्व को
पत्नी, स्त्री, बहू के स्व से तादाम्य करना होगा ताकि नया प्राणी तादाम्य बिठा
पाये |
यदि बहू अपने स्व को परिवार के
स्व से जोडकर तादाम्यीकरण करती है तो उसे पारिवारिक सुरक्षा व
सहृदयता स्वतः प्राप्त होती है| पारिवारिक-जनों का यह दायित्व होता है कि
बहू को नए माहौल से प्रेम व आदरपूर्वक परिचित कराया जाए न कि जोर-जबरदस्ती से, ऐंठ-अकड से | नए
मेहमान को परिवार में ससम्मान स्वीकृति प्रदान की जाए ताकि वह असुरक्षित अनुभव न
करे | यहीं पर घर की स्त्री--सास का महत्वपूर्ण योगदान होता है जो स्वयं
भी एक दिन इस नए परिवार में आई थी एवं जीवन के इसी मोड पर थी| अतः उसे बदले हुए
देश-कालानुसार व्यवहार करना चाहिए | सास-बहू के रिश्ते पर ही भविष्य के पारिवारिक सुख-समृद्धि
की दीवार खड़ी होती है |
यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से
न जोडकर अपनी स्वतंत्र पहचान, केरियर व सुख हेतु या पाश्चात्य
शिक्षा-प्रभाव वश, गृहकार्य से दूर पुरुषवत
जीने की ललक रखती है तो वह अपनों के बीच ही संघर्षरत होकर अलग-थलग पड जायगी
एवं स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने लगेगी| इस
प्रकार स्त्रियोचित गुणों के स्थान पर पुरुषोचित अहं के भाव व करियर –सुख के द्वंद्वों, झगडों की स्थिति से पारिवारिक
विघटन की राह तैयार होती है |
सिर्फ अपने स्व में जीने की ललक में
एक अच्छी पत्नी व माँ खोजाती है | वह सिर्फ एक स्त्री मात्र रह जाती है, अपने बराबर अधिकार के लिए
संघर्षरत स्त्री, एक प्रगतिशील व
आधुनिक नारी, अपने स्व के लिए जीती हुई मात्र
बुद्धि पर यंत्रवत चलता हुआ संवेदनशून्य जीवन जीती हुई ...एक भोग्या; न कि दायित्व के भार की गुरु-गंभीरता ओढ़े, नारीत्व के अधिकार की
अपेक्षा, नारीत्व के कर्तव्य व प्रेम
द्वारा सम्माननीय साधिकार, अधिकार जताती हुई
सखी, मित्र, प्रेमिका व पत्नी एवं मातृत्व की महानता व दैवीयभाव युत महान व सम्माननीय माँ |
ऐसे परिवार संतान को क्या देंगे...न
संस्कार न मूल्य | बस अपने ‘स्व’ के लिए, शरीर के लिए, सुख के लिए जीना | धर्म, अध्यात्म, सहिष्णुता, सामाजिकता, संस्कार व आनंद के भाव कहाँ उत्पन्न हो पाते हैं, जो एक अच्छे नागरिक के लिए आवश्यक हैं | बस समाज एक जंतु-प्राणी की योनि जीता है-
भोग व रोग के साथ, द्वंदों- द्वेषों के साथ, न कि भोग व योग के साथ; समता, सामंजस्य के सौख्य के साथ, आनंद के साथ | यही तो आज
हो रहा है जो नहीं होना चाहिए |