घिनौनी सोच -लघु कथा do not copy |
आज हिंदी की अध्यपिका माधुरी मैडम स्कूल नहीं आई तो सांतवी की छात्राओं को तीसरे वादन में बातें बनाने के लिए खाली समय मिल गया .दिव्या सुमन के कान के पास अपना मुंह लाकर धीरे से बोली -'' जानती है ये जो बिलकुल तेरे बराबर में बैठी हैं ना मीता ... ..इसकी मम्मी हमारे यहाँ पखाना साफ़ करती हैं .छि: मुझे तो घिन्न आती है इससे !'' सुमन उसकी बात सुनकर एकाएक खड़ी हुई और उसका हाथ पकड़कर उसे कक्षा से बहार खींच कर बरामदे में ले आई और गुस्सा होते हुए बोली - ''कभी खुद किया है पाखाना साफ ? कितना कठिन काम है और जो तुम्हारी गंदगी साफ कर तुम्हे सफाई में रखता है उससे घिन्न आती है तुम्हे ? सच कहूँ मुझे तुम्हारे विचारों से घिन्न आ रही है .ईट- पत्थर से बना पाखाना तो चलो मीता की मम्मी साफ कर जाती है पर ये जो तुम्हारे दिमाग में बसी गंदगी है इसे कोई साफ नहीं कर सकता .आज से मैं तुम्हारे पास कक्षा में नहीं बैठूँगी !'' ये कहकर सुमन अपनी सीट पलटने के लिए कक्षा में भीतर चली गयी .
शिखा कौशिक 'नूतन '
6 टिप्पणियां:
बेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (10-07-2013) के .. !! निकलना होगा विजेता बनकर ......रिश्तो के मकडजाल से ....!१३०२ ,बुधवारीय चर्चा मंच अंक-१३०२ पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार
behad karara tamacha vartman vyavastha par .very nice
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
साझा करने के लिए आभार!
तो क्या आप अपनी सफाईवाली को अपनी डाइनिंग टेबल पर विठाकर साथ खाना खिलाएंगे....
--- ये व्यवस्था वर्तमान की कहाँ है ..यह तो युगों पुरानी है .... हमें युक्ति-युक्त वैज्ञानिक तरीके से सोचना चाहिए....
समय के साथ मानसिकता बदलनी पड़ेगी.
सार्थक कथा
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