मेरा घर
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कहते है घर गृहणी का होता है
लेकिन यह सच नहीं है
घर में रहने वालो से पूछो
घर किसका होता है .
घर होता है दादा का,पापा का,
बेटे का,और उसके बेटे का
सदियों से यही चला आ रहा है
घर ना बेटी का होता है ,न ही बहू का
बेटी को तो बचपन से ही सिखाया जाता है
ये घर तेरा नहीं है
तुम्हे अभी अपने घर जाना है (ससुराल )
बेटी बेचारी अपने घर के सपने सँजोए
मन उलझाये ही रहती है
फिर एक दिन जब वो अपने घर चली जाती है
अपने - अपनों के जाल में फँसकर
हर चीज को तरस जाती है
मन को यही दुविधा सताती है
पता नहीं इस अपने कहे जाने वाले घर से
जाने कब निकाली जा सकती है .
वह बेचारी भोली सी,नादान सी,
समझ ही नहीं पाती कि ... घर भी कभी
किसी औरत का हुआ है जो अब होगा .
घर औरत से बनता है ,सजता है,
औरत ही घर की जननी है
लेकिन यह बनाना बिगाड़ना पुरूष ही करता है
क्योकि अपना देश तो पुरूष प्रधान देश है .
यहाँ औरत स्वतन्त्रता के नाम पर
खुले आसमान के नीचे
बन्धनों की चाहर -दिवारी से कैद है
लेकिन फिर भी नकारात्मक सच है
कि .......घर गृहणी का ही होता हे.
नीतू राठौर
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7 टिप्पणियां:
very nice expression .
इस प्रतियोगिता की अच्छी शुरुआत के करने के लिए नीतू राठोर जी को सादर बधाई!
अच्छा मंच प्रदान किया है अभिव्यक्ति के लिए शिखा जी,आपका बहुत आभार.
सादर
बहुत सुंदर प्रस्तुति है आपकी,मेरी हार्दिक शुभकामनाएं
vandna ji v shalini ji -hardik aabhar
आदरेया आपकी इस सार्थक प्रस्तुति को गति देने का प्रयास करते हुए 'निर्झर टाइम्स' लिंक किया गया है।
http://nirjhar-times.blogspot.com पर आपका स्वागत् है,कृपया अवलोकन करें।
सादर
वाह बहुत सुंदर
यहाँ भी पधारे
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_29.html
सच बयां करती सुंदर प्रस्तुति ।
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