वह नव विकसित कलिका बनकर ,
सौरभकण वन-वन बिखराती ।
दे मौन - निमंत्रण भंवरों को,
वह इठलाती, वह मदमाती ॥
वह शमा बनी झिलमिल-झिलमिल ,
झंकृत करती तन - मन को |
गौरवमय दिव्य विलासमयी,
कम्पित करती निज तन को ||
अथवा तितली बन, पंखों को -
झिलमिल झपकाती चपला सी|
इठलाती, सबके मन को थी ,
बारी - बारी से बहलाती ||
या बन बहार निर्जन वन को,
हरियाली से नहलाती है |
चन्दा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है ||
वह घटा बनी जब सावन की,
रिमझिम-रिमझिम बरसात हुई|
मन के कोने को भिगो गयी,
दिल में उठकर ज़ज्बात हुई ||
वह क्रान्ति बनी गरमाती है,
वह भ्रान्ति बनी भरमाती है |
सविता की किरणें बनकर वह,
धरती पर रस बरसाती है ||
कवि की कविता बन, अंतस में-
कल्पना - रूप में लहराई |
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकाई ||
जब प्यार बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें -यह सिखलाया |
नारी बनकर कोमलता का,
सौरभ-घट उसने छलकाया ||
वह भक्ति बनी, मानवता को-
दैवीय - भाव है सिखलाया |
वह शक्ति बनी जब माँ बनकर,
मानव तब पृथ्वी पर आया ||
वह ऊर्जा बनी, मशीनों की,
विज्ञान - ज्ञान धन कहलाई |
वह आत्मशक्ति, मानव मन में,
संकल्प-शक्ति बन कर छाई ||
वह लक्ष्मी है, वह सरस्वती ,
वह माँ काली, वह पार्वती |
वह महाशक्ति है अणुकण की,
वह स्वयं शक्ति है कण-कण की ||
है गीत वही, संगीत वही,
योगी का अनहद-नाद वही |
बन कर वीणा की तान वही,
मन-वीणा को हरषाती है ||
वह आदिशक्ति वह माँ प्रकृति
नित नए रूप रख आती है |
उस परमतत्व की इच्छा बन ,
यह सारा साज सजाती है ||
सौरभकण वन-वन बिखराती ।
दे मौन - निमंत्रण भंवरों को,
वह इठलाती, वह मदमाती ॥
वह शमा बनी झिलमिल-झिलमिल ,
झंकृत करती तन - मन को |
गौरवमय दिव्य विलासमयी,
कम्पित करती निज तन को ||
अथवा तितली बन, पंखों को -
झिलमिल झपकाती चपला सी|
इठलाती, सबके मन को थी ,
बारी - बारी से बहलाती ||
या बन बहार निर्जन वन को,
हरियाली से नहलाती है |
चन्दा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है ||
वह घटा बनी जब सावन की,
रिमझिम-रिमझिम बरसात हुई|
मन के कोने को भिगो गयी,
दिल में उठकर ज़ज्बात हुई ||
वह क्रान्ति बनी गरमाती है,
वह भ्रान्ति बनी भरमाती है |
सविता की किरणें बनकर वह,
धरती पर रस बरसाती है ||
कवि की कविता बन, अंतस में-
कल्पना - रूप में लहराई |
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकाई ||
जब प्यार बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें -यह सिखलाया |
नारी बनकर कोमलता का,
सौरभ-घट उसने छलकाया ||
वह भक्ति बनी, मानवता को-
दैवीय - भाव है सिखलाया |
वह शक्ति बनी जब माँ बनकर,
मानव तब पृथ्वी पर आया ||
वह ऊर्जा बनी, मशीनों की,
विज्ञान - ज्ञान धन कहलाई |
वह आत्मशक्ति, मानव मन में,
संकल्प-शक्ति बन कर छाई ||
वह लक्ष्मी है, वह सरस्वती ,
वह माँ काली, वह पार्वती |
वह महाशक्ति है अणुकण की,
वह स्वयं शक्ति है कण-कण की ||
है गीत वही, संगीत वही,
योगी का अनहद-नाद वही |
बन कर वीणा की तान वही,
मन-वीणा को हरषाती है ||
वह आदिशक्ति वह माँ प्रकृति
नित नए रूप रख आती है |
उस परमतत्व की इच्छा बन ,
यह सारा साज सजाती है ||
10 टिप्पणियां:
सुंदर पन्तियाँ के साथ बेहतरीन रचना के लिए बधाई.....आभार
मेरे पोस्ट के लिए "काव्यान्जलि" मे click करे
इस रचना से प्रभावित होकर मै आपका समर्थक बन रहा हूँ,अगर भी समर्थक बने तो मुझे खुशी होगी.........
"काव्यान्जलि"
बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति....
ख़ूबसूरत प्रस्तुति,सादर.
मेरे ब्लॉग पर भी पधार कर अनुगृहीत करें.
वह आदिशक्ति वह माँ प्रकृति
नित नए रूप रख आती है |
उस परमतत्व की इच्छा बन ,
यह सारा साज सजाती है ||
सुंदर भाव,शुभकामनायें
sundar kavita...
धन्यवाद...आशाजी, सुषमा जी,विक्रम व धीरेन्द्र जी
---धीरेन्द्र जी आपके ब्लोग पर तो मुझे समर्थ्क बनने वाला तरीका ही नहीं मिला...
बहुत खूबसूरत और सारगर्भित भावाभिव्यक्ति...आभार
धन्यवाद कैलाश जी....
नारी की महिमा को बहुत सुन्दर शब्दों व् भावों में अभिव्यक्त किया है आपने .आभार
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