गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

-मानवता का पहला परिवार....डा श्याम गुप्त ......


          जब मानव एकाकी था, सिर्फ़ एक अकेला मानव शायद  मनु या आदम  ( मनुष्य,आदमी ,मै) हाथ में एक हथौडानुमा हथियार लिए घूमता रहता था, एक अकेला । एक दिन अचानक घूमते-घूमते उसने अपने जैसे ही एक अन्य आकृति के जानवर ( व्यक्ति) को जाते हुए देखा।  उसने छिप कर उसका पीछा किया। चलते -चलते वह आकृति एक गुफा के अन्दर चली गयी।  उस मानव ने चुपके से गुफा के अन्दर प्रवेश किया तो देखा की  उसके जैसा  ही कोइ  मानव बैठा फल आदि खा रहा है। उसकी आहट जानकर अचानक वह आकृति उठी और अपने हाथ के हथौड़ेनुमा हथियार को उठालिया। अपने जैसे ही आकृति को  देख कर बोली वह आश्चर्य से-तुम कौन ? अचानक क्यों घुसे यहाँ, अगर में हथौडा चलादेता तो ! पहला मानव चारों और देख कर बोला, अच्छा तुम यहाँ रहते हो । मैं तुमसे अधिक बलशाली हूँ । मैं  भी तुम्हें मार सकता था । यह स्थान भी अधिक सुरक्षित नहीं है। तुम्हारे पास फल भी कम हें, इसीलिये तुम कमजोर हो . अच्छा अब हम मित्र हैं, मैंतुम्हें अपनी गुफा दिखाता हूँ।
           दूसरा मानव उसकी गुफा देख कर प्रभावित हुआ। प्रसंशापूर्ण निगाहों से देखा . पहले मानंव ने कहा तुम यहाँ ही क्यों नही  आजाते, मिलकर फल एकत्रित करेंगे और भोजन करेगे |  उसने ध्यान से देखा, उसका हथौडा भी बहुत बड़ा है, उसकी गुफा भी अधिक बड़ी है , उसके पास फल आदि भी अधिक मात्रा में एकत्रित हैं , उसने उसकी बाहों की पेशियाँ छू कर देखी ,वो अधिक मांसल ,कठोर थीं ,उसका शरीर भी उससे अधिक बड़ा था। दूसरे मानव ने कुछ सोचा और वह अपने फल आदि उठाकर पहले मानव की गुफा में आगया।
और यह वही प्रथम दिन था जव नारी ( शायद -शतरूपा या कामायिनी की श्रद्धा ) ने स्वेच्छा  से पुरूष के साथ सह जीवन स्वीकार किया। यह प्रथम परिवार था। यह सहजीवन था। कोई किसी के आधीन नहीं। नर-नारी स्वयं में स्वच्छंद थे , जीने ,रहने , किसी के भी साथ रहने आदि के लिए। अन्य जीवों, पशु-पक्षियों की तरह । यद्यपि सिंहों, हंसों आदि उच्च जातियों की भांति प्रायः जीवन पर्यंत एक साथी के साथ ही रहने की मूल प्रवृत्ति तब भी थी अब की तरह, (निम्न जातियाँ ,कुत्ते,बिल्ली आदि की भांति कभी भी किसी के भी साथ नहीं.) और यह युगों तक चलता रहा।
              जब संतानोत्पत्ति हुई,यह देखा गया की दोनों साथियों के भोजन इकट्ठा करने जाने पर अन्य जानवरों आदि की भांति, उनके बच्चे भी असुरक्षित रह जाते हें। तो किसी एक को घर रहने की आवश्यकता हुई । फल इकट्ठा करने वाली सभ्यता में शारीरिक बल अधिक महत्वपूर्ण होने से पुरूष ने बाहर का कार्य सम्भाला। क्योंकि नारी स्वभावतः अधिक तीक्ष्ण बुद्धि,सामयिक बुद्धि,व त्वरित निर्णय क्षमता में कुशल थी अतः वह घर का ,परिवार का प्रबंधन कराने लगी। यह नारी -सत्तात्मक समाज की स्थापना थी। पुरूष का कार्य सिर्फ़ भोजन एकत्रित करना , सुरक्षा व श्रमिक कार्य था। यह भी सहजीवन की ही परिपाटी थी। स्त्री-पुरूष कोई किसी के बंधन में नहीं था,सब अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र थे। युगों तक यह प्रबंधन चलता रहा, आज भी कहीं कहीं दिखता है।
              जब मानव कृषि आदि कार्यों से उन्नत हुआ । घुमक्कड़ ,घुमंतू समाज स्थिर हुआ ,भौतिक उन्नति,मकान,घर,कपडे,मुद्रा आदि का प्रचालन हुआ तो तो पुरूष व्यवसायिक कर्मों में अधिक समर्थ होने लगा, स्त्री का दायरा घर रहा ,पुरूष के अधिकार बढ़ने लगे ,राजनीति ,धर्म,शास्त्र, आदि पर पुरुषों ने आवश्यक खोजें कीं ,अबंधित शारीरिक व यौन संबंधों से   रोगों , द्वंदों आदि के रूप में विकार सम्मुख आने लगे तो नैतिक आचरण ,शुचिता,मर्यादाओं का बिकास हुआ।  नारी -मर्यादा -बंधन प्रारंभ हुए। और समाज पुरूष-सत्तात्मक होगया। परन्तु सहजीवन अभी भी था।  नारी मंत्री,सलाहकार, सहकार , विदुषी के रूप में घर में रहते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्व थी।  यस्तु नार्यस्तु पूज्यन्ते ..का भाव रहा।  महाकाव्य काल तक यह व्यवस्था चलती रही।
पश्च पौराणिक काल में अत्यधिक भौतिक उन्नति, मानवों के नैतिकता से गिरने के कारण , धन की महत्ता के कारण सामाजिक -चारित्रिक पतन हुआ , महिलाओं को पुरूष अहम् द्वारा उनका अधिकार छीना गया ( मुख्यतया , घर,ज़मीन ,जायदाद ही कारण थे ) और पुरूष नारी का मालिक बन बैठा। आगे की व्यवस्था सब देख ही रहे हैं।  इस सब के साथ साथ प्रत्येक युग में-अनाचारी होते ही रहते हैं । हर युग में अच्छाई-बुराई का युद्ध चलता रहता है । तभी राम व कृष्ण जन्म लेते हैं। और ---यदा यदा धर्मस्य --का क्रम होता है। नैतिक लोग नारी का सदै आदर  करते हैं ,बुरे नहीं --अतः बात वही है कि समाज व सिस्टम नहीं ,व्यक्ति ही खराव होकर समाज को ख़राब व बदनाम करता है।

4 टिप्‍पणियां:

Pallavi saxena ने कहा…

बलकुल सही बातें लिखी हैं आपने... बात वही है कि समाज व सिस्टम नहीं ,व्यक्ति ही खराव होकर समाज को ख़राब व बदनाम करता है।बहुत ही बढ़िया.... पोस्ट समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

S.N SHUKLA ने कहा…

सार्थक, सटीक और सामयिक प्रस्तुति, आभार.

रविकर ने कहा…

गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |
मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||

धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |
जर जमीन जोरू सकल,इच्छित मिलें पदार्थ ||

स्त्री के सारे सदगुणों पर उसका
अबला स्वरूप भारी पड़ने लगा ||

आभार सुन्दर प्रस्तुति के लिए ||

डा श्याम गुप्त ने कहा…

dhanyavad---रविकर व शुक्ला जी..

---पल्लवी जी -आपके आगमन के लिये..धन्यवाद आपके ब्लोग पर टिप्पणी का कालम ही नहीं है...