विशद रूप में दाम्पत्य-भाव का अर्थ है, दो विभिन्न भाव के तत्वों द्वारा अपनी अपनी अपूर्णता सहित आपस में मिलकर पूर्णता व एकात्मकता प्राप्त करके विकास की ओर कदम बढाना। यह सृष्टि का विकास-भाव है । प्रथम सृष्टि का आविर्भाव ही प्रथम दाम्पत्य-भाव होने पर हुआ । शक्ति-उपनिषद का श्लोक है—“ स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत। सहैता वाना स। यथा स्त्रीन्पुन्मासो संपरिस्वक्तौ स। इयमेवात्मानं द्वेधा पातपत्तनः पतिश्च पत्नी चा भवताम।“
अकेला ब्रह्म रमण न कर सका, उसने अपने संयुक्त भाव-रूप को विभाज़ित किया और दोनों पति-पत्नी भाव को प्राप्त हुए। यही प्रथम दम्पत्ति स्वयम्भू आदि-शिव व अनादि माया या शक्ति रूप है जिनसे समस्त सृष्टि का आविर्भाव हुआ। मानवी भाव में प्रथम दम्पत्ति मनु व शतरूपा हुए जो ब्रह्मा द्वारा स्वयम को स्त्री-पुरुष रूप में विभाज़ित करके उत्पन्न किये गये, जिनसे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति हुई। सृष्टि का प्रत्येक कण धनात्मक या ऋणात्मक ऊर्ज़ा वाला है, दोनों मिलकर पूर्ण होने पर ही, तत्व एवम यौगिक व पदार्थ की उत्पत्ति तथा विकास होता है।
विवाह संस्था की उत्पत्ति से पूर्व दाम्पत्य-भाव तो थे परन्तु दाम्पत्य-बंधन नहीं थे; स्त्रियां अनावृत्त व स्वतन्त्र आचरण वाली थीं, स्त्री-पुरुष स्वेच्छाचारी थे। मर्यादा न होने से आचरणों के बुरे व विपरीत परिणाम हुए। अतः श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह संस्था रूपी मर्यादा स्थापित की। वैदिक साहित्य में दाम्पत्य बंधन की मर्यादा, सुखी दाम्पत्य व उसके उपलब्धियों का विशद वर्णन है। यद्यपि आदि-युग में विवाह आवश्यक नही था, स्त्रियां चुनाव के लिये स्वतन्त्र थीं। विवाह करके गृहस्थ-संचालन करने वाले स्त्रियां-सद्योवधू- व अध्ययन-परमार्थ में संलग्न स्त्रियां –ब्रह्मवादिनी- कहलाती थी। यथा—शक्ति उपनिषद में कथन है— “द्विविधा स्त्रिया ब्रह्मवादिनी सद्योवध्वाश्च।
अग्नीन्धन स्वग्रहे भिक्षाकार्य च ब्रह्मवादिनी।“
पुरुष भी स्वयं अकेला पुरुष नहीं बनता अपितु पत्नी व संतान मिलकर ही पूर्ण पुरुष बनता है। अतः दाम्पत्य-भाव ही पुरुष को भी संपूर्ण करता है। यजु.१०/४५ में कथन है—
“एतावानेन पुरुषो यजात्मा प्रतीति।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“
दाम्पत्य जीवन में प्रवेश से पहले स्त्री पुरुष पूर्ण रूप से परिपक्व, मानसिक, शारीरिक व ग्यान रूप से , होने चाहिये। उन्हे एक दूसरे के गुणों को अच्छी प्रकार से जान लेना चाहिये। सफ़ल दाम्पत्य स्त्री-पुरुष दोनों पर निर्भर करता है, भाव विचार समन्वय व अनुकूलता सफ़लता का मार्ग है। ऋग्वेद ८/३१/६६७५ में कथन है—
“या दम्पती समनस सुनूत अ च धावतः । देवासो नित्य यशिरा ॥"
- जो दम्पति समान विचारों से युक्त होकर सोम अभुसुत ( जीवन व्यतीत) करते हैं, और प्रतिदिन देवों को दुग्ध मिश्रित सोम ( नियमानुकूल नित्यकर्म) अर्पित करते है, वे सुदम्पति हैं।
“या दम्पती समनस सुनूत अ च धावतः । देवासो नित्य यशिरा ॥"
- जो दम्पति समान विचारों से युक्त होकर सोम अभुसुत ( जीवन व्यतीत) करते हैं, और प्रतिदिन देवों को दुग्ध मिश्रित सोम ( नियमानुकूल नित्यकर्म) अर्पित करते है, वे सुदम्पति हैं।
पति चयन का आधार भी गुण ही होना चाहिये। ऋग्वेद १०/२७/९०६ में कहा है—
कियती योषां मर्यतो बधूनांपरिप्रीत मन्यका। भद्रा बधूर्भवति यत्सुपेशाः स्वयं सामित्रं वनुते जने चित ॥-
--कुछ स्त्रियां पुरुष के प्रसंशक बचनों व धनसंपदा को पति चयन का आधार मान लेती हैं, परन्तु सुशील, श्रेष्ठ, स्वस्थ भावनायुक्त स्त्रियांअपनी इच्छानुकूल मित्र पुरुष को पति रूप में चयन करती हैं।
पुरुष भी पूर्ण रूप से सफ़ल व समर्थ होने पर ही दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करें—अथर्व वेद-१०१/६१/१६०० मन्त्र देखिये-
कियती योषां मर्यतो बधूनांपरिप्रीत मन्यका। भद्रा बधूर्भवति यत्सुपेशाः स्वयं सामित्रं वनुते जने चित ॥-
--कुछ स्त्रियां पुरुष के प्रसंशक बचनों व धनसंपदा को पति चयन का आधार मान लेती हैं, परन्तु सुशील, श्रेष्ठ, स्वस्थ भावनायुक्त स्त्रियांअपनी इच्छानुकूल मित्र पुरुष को पति रूप में चयन करती हैं।
पुरुष भी पूर्ण रूप से सफ़ल व समर्थ होने पर ही दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करें—अथर्व वेद-१०१/६१/१६०० मन्त्र देखिये-
“आ वृषायस्च सिहि बर्धस्व प्रथमस्व च । यथांग वर्धतां शेपस्तेन योहितां मिज्जहि ॥“
हे पुरुष! तुम सेचन में समर्थ वृषभ के समान प्राणवान हो, शरीर के अन्ग सुद्रढ व वर्धित हों। तभी स्त्री को प्राप्त करो।
पति-पत्नी में समानता ,एकरूपता, एकदूसरे को समझना व गुणो का सम्मान करना ही सफ़ल दाम्पत्य का लक्षण है। ऋग्वेद -१/१२६/१४३० में पति का कथन है—
“अगाधिता परिगधिता या कशीकेव जन्घहे। ददामि मह्यंयादुरे वाशूनां भोजनं शताः॥“
मेरी सहधर्मिणी मेरे लिये अनेक एश्वर्य व भोग्य पधार्थ उपलब्ध कराती है, यह सदा साथ रहने वाली गुणों की धारक मेरी स्वामिनी है। तथा पत्नी का कथन है—
मेरी सहधर्मिणी मेरे लिये अनेक एश्वर्य व भोग्य पधार्थ उपलब्ध कराती है, यह सदा साथ रहने वाली गुणों की धारक मेरी स्वामिनी है। तथा पत्नी का कथन है—
“उपोप मे परा म्रश मे दभ्राणि मन्यथाः। सर्वाहस्मि रोमशाःगान्धारीणा मिवाविका||
-१/१२६/१६२५.
-१/१२६/१६२५.
मेरे पतिदेव मेरा बार बार स्पर्श करें, परीक्षा लें, देखें; मेरे कार्यों को अन्यथा न लें । मैं गान्धार की भेडो के रोमों की तरह गुणों से युक्त हूं ।
नारी पुरुष समानता, अधिकारों के प्रति जागरूकता, कर्तव्यों के प्रति उचित भाव भी दाम्पत्य सफ़लता का मन्त्र है। पत्नी की तेजश्विता व पति द्वारा गुणों का मान देखिये—.ऋग्वेद १०/१५६/१०४२० का मन्त्र-
“अहं केतुरहं मूर्धामुग्रा विवाचनी।
ममेदनु क्रतु पति: सेहनाया आचरेत॥“
----मैं गृहस्वामिनी तीब्र बुद्धि वाली हूं, प्रत्येक विषय पर विवेचना( परामर्श)देने में समर्थ हूं; मेरे पति मेरे कार्यों का सदैव अनुमोदन करते हैं। तथा—
“अहं बदामि नेत तवं, सभामानह त्वं बद:। मेयेदस्तंब केवलोनान्यांसि कीर्तियाशचन॥“
---हे स्वामी! सभा में भले ही आप बोलें परन्तु घर पर मैं ही बोलूंगी; उसे सुनकर आप अनुमोदन करें। आप सदा मेरे रहें अन्य का नाम भी न लें। पुरुषॊ द्वारा नारी का सम्मान व अनुगमन भी सफ़ल दाम्प्त्य का एक अनन्य भाव है, तेजस्वी नारी की प्रशन्सा व अनुगमन सूर्य जैसे तेजस्वी व्यक्ति भी करते हैं—रिग.१/११५ में देखें-“
ममेदनु क्रतु पति: सेहनाया आचरेत॥“
----मैं गृहस्वामिनी तीब्र बुद्धि वाली हूं, प्रत्येक विषय पर विवेचना( परामर्श)देने में समर्थ हूं; मेरे पति मेरे कार्यों का सदैव अनुमोदन करते हैं। तथा—
“अहं बदामि नेत तवं, सभामानह त्वं बद:। मेयेदस्तंब केवलोनान्यांसि कीर्तियाशचन॥“
---हे स्वामी! सभा में भले ही आप बोलें परन्तु घर पर मैं ही बोलूंगी; उसे सुनकर आप अनुमोदन करें। आप सदा मेरे रहें अन्य का नाम भी न लें। पुरुषॊ द्वारा नारी का सम्मान व अनुगमन भी सफ़ल दाम्प्त्य का एक अनन्य भाव है, तेजस्वी नारी की प्रशन्सा व अनुगमन सूर्य जैसे तेजस्वी व्यक्ति भी करते हैं—रिग.१/११५ में देखें-“
“सूर्य देवीमुषसं रोचमाना मर्यो नयोषार्मध्येति पश्चात।
यत्रा नरो देवयंतो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रय॥"
प्रथम दीप्तिमान एवं तेजश्विता युक्त उषादेवी के पीछे सूर्य उसी प्रकार अनुगमन करते हैं जैसे युगों से मनुष्य व देव नारी का अनुगमन करते हैं । समाज़ व परिवार में पत्नी को सम्मान व पत्नी द्वारा पति के कुटुम्बियों व रिश्तों क सम्मान दाम्पत्य सफ़लता की एक और कुन्जी है-रिग.१०/८५/९७१२ का मन्त्र देखें---
“सम्राग्यी श्वसुरो भव सम्राग्यी श्रुश्रुवां भवं ।
ननन्दारि सम्राग्यी भव,सम्राग्यी अधिदेब्रषु||"
–हे वधू! आप सास, ससुर, ननद, देवर आदि सबके मन की स्वामिनी बनो।
ननन्दारि सम्राग्यी भव,सम्राग्यी अधिदेब्रषु||"
–हे वधू! आप सास, ससुर, ननद, देवर आदि सबके मन की स्वामिनी बनो।
ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र में, समानता का अप्रतिम मन्त्र देखिये जो विश्व की किसी भी कृति में नहीं है— ऋग्वेद -१०/१९१/१०५५२/४---
“ समानी व आकूति: समाना ह्रदयानि वा।
समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामति॥
----हे पति-पत्नी! तुम्हारे ह्रदय मन संकल्प( भाव विचार कार्य) एक जैसे हों ताकि तुम एक होकर सभी कार्य- गृहस्थ जीवन- पूर्ण कर सको।
समामस्तु वो मनो यथा वः सुसहामति॥
----हे पति-पत्नी! तुम्हारे ह्रदय मन संकल्प( भाव विचार कार्य) एक जैसे हों ताकि तुम एक होकर सभी कार्य- गृहस्थ जीवन- पूर्ण कर सको।
इस प्रकार सफ़ल दाम्पत्य का प्रभाव व उपलब्धियां अपार हैं जो मानव को जीवन के लक्ष्य तक ले जाती है। ऋषि कहता है—पुत्रिणा तद कुमारिणाविश्वमाव्यर्श्नुतः। उभा हिरण्यपेशक्षा ॥. ऋग्वेद ८/३१/६६७९ –इस प्रकार वे दोनों( सफ़ल दम्पति ) स्वर्णाभूषणों व गुणों ( धन पुत्रादि बैभव) से युक्त होकर र्संतानों के साथ पूर्ण एश्वर्य व आयुष्य को प्राप्त करते हैं। एवम—८/३१/६६७९— "वीतिहोत्रा क्रत्द्वया यशस्यान्ताम्रतण्यकम”—देवों की उपासना करके अन्त में अमृतत्व प्राप्त करते हैं।
10 टिप्पणियां:
अच्छी प्रस्तुति विवाह के बारे में
अच्छी प्रस्तुति ||
बहुत बहुत आभार ||
बहुत बढ़िया पोस्ट. अच्छी लगी.
पाठक गण परनाम, सुन्दर प्रस्तुति बांचिये ||
घूमो सुबहो-शाम, उत्तम चर्चा मंच पर ||
शुक्रवारीय चर्चा-मंच ||
charchamanch.blogspot.com
jankari bhari post.........
Badhiya lekh.
gahan tathyon ko samete hue aapka aalekh sarahniy hai .aabhar
फिर से पढ़ने लायक
बहुत सुंदर लिखा
मेरे नये पोस्ट में आपका स्वागत है
धन्यवाद ,.जाट देवता जी, नारी स्वर, अन्कुर जैन, गोपाल जी व शिखा जी ..
---धन्य्वाद रविकर...सुन्दर सोरठे के लिये बधाई..
--धन्यवाद ..नवीन चतुर्वेदी जी....
-- धीरेन्द्र जी...आपकी पोस्ट देखी...बधाई..
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