अमर्यादित पुरुष
पहले महिलायें कहा करतीं थीं-
‘घर-बच्चों के मामले में टांग न अड़ाइए आप अपना काम देखिये|’ आजकल वे कहने लगीं हैं- ‘घर के काम में भी पति को हाथ बंटाना चाहिए,
बच्चे के काम में भी| क्यों? क्योंकि अब हम भी तो आदमी के तमाम कामों में हाथ बंटा
रही हैं, कमाने में भी |
क्या वास्तव में ऐसा है ?
नहीं ...महिलायें आजकल पढी-लिखी होने के कारण, कुछ महिलाओं के, जो अधिकाँश असंतुष्ट
व ठोकर खाई हुई होती हैं एवं कुछ छद्म-महिलावादी सेक्यूलर पुरुषों द्वारा यह सोच
कि महिलायें इसी उधेड़बुन में लगी रहें ताकि कुछ ऊंचा न सोच सकें, पुरुषवादी समाज के छद्म व भ्रामक नारे को उछालने के
कारण ऐसा कहने लगीं हैं| अन्यथा प्रायः महिलाए अपने स्वयं के और अधिक सुख-संतोष,
खर्च करने, शानो-शौकत व प्रदर्शन हेतु कार्य करती हैं| वे घर के कार्य को हीन व
अनावश्यक समझने के कारण एवं गृहकार्य हेतु कठिन परिश्रम से बचने हेतु भी पुरुष से
यह आशा करती हैं| आजकल बाहर खाना खाने, घूमने-फिरने में समय बिताने, खर्चीले फैशन
भी इस बदलाव का एक कारण है|
परिणाम है कि पुरुष चाय
बनाने, बच्चे खिलाने, घर-गृहस्थी के महिलाओं के कार्यों में सिमट रहा है | वह न
आफिस का कार्य सुचारू रूप से कर पाने में सक्षम हो पारहा है न उच्च वैचारिक सोच,
स्वाध्याय,पठन-पाठन हेतु समय दे पारहा है|
टीवी, कम्प्युटर, इंटरनेट आदि रूपी बुद्धू बक्सा का नया रूप अब ये सारे
गृहकार्य भी हो चले हैं | यह स्थिति पुरुष को सामाजिकता व अन्य उच्च वैचारिक
क्षमता से दूर ले जारही हैं| सिर्फ भौतिकता व शारीरिक सुख का महत्व हमारे पुरुषों
के, युवाओ के मन में घर बना रहा है|
दुष्परिणाम सामने है ...समाज
में स्त्री-पुरुष स्वच्छंदता, वैचारिक शून्यता, अति-भौतिकता, द्वंद्व, अत्यधिक
कमाने के लिए चूहा-दौड़, बढ़ती हुई अश्लीलता
...के परिणामी तत्व---अमर्यादाशील पुरुष, संतति, जो हम प्रतिदिन
समाचारों में देखते रहते हैं...यौन अपराध, नहीं कम हुआ अपराधों का ग्राफ, आदि |
क्यों नर एसा होगया यह भी तो तू सोच ,
क्यों है एसी होगयी
उसकी गर्हित सोच |
उसकी गर्हित सोच, भटक क्यों गया दिशा से |
पुरुष सीखता राह, सखी,
भगिनी, माता से |
नारी विविध लालसाओं में
खुद भटकी यों |
मिलकर सोचें आज होगया एसा
नर क्यों |
दोष किसका है -----मीडिया का जो कि आये दिन अपने चैनल्स पर दुनिया भर
की गंदगी परोसकर युवाओ के मन को उकसाता है इस
सूचना क्रांति का जिसका का दुरूपयोग होता है और युवा मन बहकता रहता है | वो सारे विज्ञापन जो टीवी में आये दिन क्या युवाओं को और उनके मन को नहीं
उकसाते हैं| फिल्मो का जहां औरतो का चरित्र जिस तरह से जिन कपड़ो में
दर्शाया जा रहा है, क्या वो युवा पीढ़ी को इस अपराध के लिये नहीं उकसाते होंगे| हमारे
गुम होते संस्कारों का जो हमें स्त्रियों का आदर करना सिखाते थे|
हम माता-पिता का जो कि अपने बच्चो को ठीक शिक्षा नहीं दे
पा रहे है| युवाओ का जो अब स्त्रियों को सिर्फ एक भोग की वस्तु ही समझ रहे है |
कहाँ गलत हो रहा है, किस बात की कुंठा है, तन का महत्व कैसे
हमारे पुरुषों के, युवाओ के मन में गलत घर बना रहा है, क्या माता-पिता का दोष इन युवाओ से कम है ? क्यों उन्होंने इतनी छूट दे रखी है ? कुछ तो गलत हो रहा है, हमारी सम्पूर्ण सोच में | क्या हम सभी को; एक मज़बूत स्वच्छ व सोच की पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है |
नववर्ष पर इस पुनर्विचार की आवश्यकता है
...सोचियेगा अवश्य...|