शनिवार, 16 नवंबर 2013

गीत सज़े - डा श्याम गुप्त का गीत....



               गीत सज़े ---
में लगा सोचने गीत कोई लिखूं,
ख्याल बनकर तुम मन में समाने लगे।
तुम लिखो गीत जीवन के सन्सार के ,
गीत मेरे लिखो यूं बताने लगे

जब उठाकर कलम गीत लिखने चला,
कल्पना बन के तुम मुस्कुराते रहे
लेखनी यूंही कागज़ पे चलती रही ,
यूं ही लिखता रहा तुम लिखाते रहे

छंद रस रागिनी स्वर पढे ही नहीं ,
कैसे गीतों को सुर ताल लय मिले।
में चलाता रहा बस यूं ही लेखनी ,
ताल लय उनमें तुम ही सज़ाते रहे

गीत मैंने भला कोई गाया ही कब,
स्वर की दुनिया से कब मेरा नाता रहा।
बन के वीणा के स्वर कन्ठ में तुम बसे,
स्वर सज़ाने लगे , गुनु गुनाने लगे

ख्याल बनके यूं मन में समाने लगे,
गीत मेरे लिखो यूं सुझाने लगे।।

9 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

bahut sundar abhivyakti .aabhar

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (17-11-2013) को "लख बधाईयाँ" (चर्चा मंचःअंक-1432) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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गुरू नानक जयन्ती, कार्तिक पूर्णिमा (गंगास्नान) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिवक्ति !
नई पोस्ट मन्दिर या विकास ?
नई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ

Unknown ने कहा…

श्याम जी गीत सजे़ कविता के लिए .... बधाई
और कुछ नहीं लिख रहा गीत के विषय में क्यूकि पिछली बार कुछ लिख देने पर आप नराज़ हो गए थे।
.... आभार

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद शास्त्रीजी, शिखाजी एवं कालीपद जी....

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद सावन कुमार जी .....
---- मैं स्वयं कठोर समीक्षक एवं स्पष्ट वादिता में विश्वास रखता हूँ ..... किसी भी टिप्पणी पर तो मैं कभी भी नाराज़ होता ही नहीं हूँ... अपितु मेरी टिप्पणी पर प्रायः कुछ लोग नाराज़ होजाते हैं..परन्तु मैं चिंता नहीं करता ..अतः मेरे नाराज़ होने का तो कोइ प्रश्न ही नहीं है ----मैंने स्पष्ट प्रति टिप्पणी अवश्य की होगी....
---आप बेधड़क टिप्पणी कीजिये ...

डा श्याम गुप्त ने कहा…

---क्या आप इन टिप्पणियों की बात कर रहे हैं....तो यहाँ नाराज़ की बात कहाँ है ...आपने विरोधाभासी तथ्य प्रस्तुत किया है कठिन भी सहज भी ?...तथ्य को जीवन तथ्य से स्पष्ट किया गया है ....एक मुक्तक ( या कता ) द्वारा ...यह शेर नहीं है जैसा आपने लिखा है सावन जी...

टिप्पणी करने से, प्राप्त करने से काफी कुछ सीखा भी जा सकता है ..अतः करते रहिये...
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savan kumar ने कहा…

मेने पहले भी कहां हैं आज फिर कह रहा हूँ। जहां प्रेम(श्रृंगार) पर लिखना जितना कठिन हैं उतना ही सहज भी। श्याम जी इस कला के माहिर न सहीं फिर भी अच्छा लिख रहे हैं....आपको बधाई
12 नवम्बर 2013 7:16 am
shyam Gupta ने कहा…

---क्या बात है ..सावन कुमार

कभी खुद पे कभी हालात पे हंसना आया,
बात निकली तो मौसमे सावन पे जीना आया|
माहिर कौन हुआ है इस जग में मेरे दोस्त,
सबको अपनी ही रीति-नीति से लिखना आया ||
13 नवम्बर 2013 12:22 am
savan kumar ने कहा…

इस शेर के लिए एक बार फिर आपका...आभार

Unknown ने कहा…

ज्ञानवर्धन के लिए आभार श्याम जी साथ में यह भी बता दिया होता कि मुक्तक में चार छंद और चारों में 28-28 मात्राएं होती हैं।
जहां तक विरोधाभासी होने का प्रश्न हैं वह तो रहेगा ही क्योंकि मानव जटिलता से सरलता, सरलता से जटिलता की तरफ दौड़ता रहां हैं।
मैं कठोर समीक्षक नहीं हूँ हां अच्छें लेखन का पाठक अवश्य हूँ।

डा श्याम गुप्त ने कहा…

मुक्तक में चार छंद और चारों में 28-28 मात्राएं...

भाई सावन जी ....इन्हें चार छंद नहीं अपितु चार पंक्तियाँ कहते हैं ...मुक्तक स्वयं एक ही छंद है....मुक्तक में २८ मात्राएँ भी आवश्यक नहीं... यथा...
ज़िंदगी तेरे पास आख़िर नया क्या है,
पैदा होना,जीना मरना और क्या है।
क्यों तुझे घुट-घुट के फ़िर इंसां जिए,
मौत से ज्यादा यहाँ कुछ और क्या है।